रविवार, 7 अगस्त 2016

बचपन की यादे और आज

                 बचपन के दिन भी क्या  
               क्या वो बचपन ..वो नादानिया
               वो शरारते ..वो मनमानिया !
              दादी की फटकार , दादा जी मार !
              पापा का चांटा और माँ की पुचकार!
 
 
 
बचपन के दिन भी क्या वो बचपन ..वो नादानिया
वो शरारते ..वो मनमानिया !
दादी की फटकार , दादा जी मार !
पापा का चांटा और माँ की पुचकार
दादाजी से 10 पेसे मिल जाते अनंत खुशिया मिलती खुद की जेब को बार बार टंटोलते कही गिर न जाये ! रोज दादाजी खर्ची के 5 पेसे और ज्यादा जिद्द करने पर 10 पेसे देते ! भाटा की कुल्फी 5 पेसे में मिलती थी ! हवाबाण हरडे , नारंगी गोली की किम्मत सिर्फ 5 पेसे ! अगर 2 रूपये की चिल्लर कभी जमा हो जाती खुद को लखपति समझते ! वो बाजार में लगा नीम का झाड़ के निचे बेठ जाते आजका एयर कंडीशन फेल ....... अब सिर्फ यादे ही यादे
क्या दिन थे वो बचपन के , चाहत चाँद को पाने की करते थे और दोपहर से शाम तक कभी कभी तितली को पकड़ा करते . न दिन का होश न शाम की खबर न ही सुध – बुध कपड़ो की और न ही अपनी . कभी मिट्टी पे हम तो कभी मिट्टी हमारे चेहरों को छूती ,कभी हाथो पे तो कभी कपड़ो पे याद है न कैसे लग जाया करती थी . सुबह की वो प्यारी मीठी नींद से जब हमे जबरदस्ती जगाया जाता .. वो भी स्कूल जाने के लिए. कितना गुस्सा आता था न …….थक – हार के स्कूल से आते पर तुरंत ही खेलने के लिए तैयार भी हो जाते . वो बचपन के सारे खेल हमे कितना कुछ सिखाते थे , कभी आपस में लड़ाते तो कभी साथ मिलके मुस्कुराते . अपनी बचकानी हरकतों से हम दुसरो को कितना सताते थे न . वो …..बहती नाक , खिसकती निक्कर तो याद ही होगी बात है बहुत सालों पहले, बचपन के समय की उन दिनों रोजाना स्कुल से आने के बाद शाम को (जेसा की हर स्कुली बच्चा करता है) हम लोग खेलने जाते थे पास के ही स्कुल ग्राउंड में । लेटेस्ट खेलों से लेकर पारम्परिक देसी खेल जेसे की क्रिकेट, बेडमिन्टन, गुल्ली डंडा, कांच की अंटिया, दड़ी आदि सब बडे मजे से खेले जाते थे, आज के जेसे नहीं कि हर बच्चा टी. वी. से चिपका हो । आलम ये था की उस दौरान शाम सुबह तो जगह नहीं मिलती थी, खेलने के लिये तो फिर जल्दी किसी गुरगे को बिठा कर जबरन कब्जा जमाया जाता, कि पहले हम आएं हैं तो हमारी टीम यहां खेलेगी, और इस ही क्रम में कभी कभी पंगे भी हो जाते थे
पहली टीम दुसरी टीम को कहती कि आ जाना कल शाम को चार बजे देख लेते हैं कि किसने असली मां का दुध पिया है, तो दुसरी टीम में से कोई पहलवान टाइप का लडका कहता कि कल क्या है आज ही देख लेते हैं, चल बता क्या करेगा हम सबके साथ । कोई बहुत बहसे होती व कभी कभी लडाई भी । पर अक्सर कल कल के चक्कर में कई लडाईयां टल जाया करती थी, क्यों कि दुसरे दिन दोनों ही टीमें नदारत होती थी फिर अक्सर बडा कोई सीनीयर मोस्ट व्यक्ती समझौता करा ही देता था, व फिर से वही खेल खेले जाते सदभावना के साथ ।…“आइये फिर डूबते हैं इन कुछ बचपन के खेलो और शरारत भरी यादो में .....वक्त्त के इस आइने में हमारे कल की तस्वीर चाहे कितनी ही पुरानी हो गई हो पर जब भी सामने आती है ढेर सारी यादे ताज़ा हो जाती हैं और वो भी यादे अगर बचपन की हो तो और ही मज़ा आता है …….जैसे -“अक्कड़ -बक्कड़ बम्बे बो, अस्सी नब्बे पुरे सौ , सौ में लगा धागा, चोर निकल के भागा” ये लाइने तो याद ही होगी ! उस टाइम हमे कितना उधमी कहा जाता था वो साहसी वाला नहीं ……….जी! “उधम ” (शोरशराबा / हलचल ) मचाने वाला . पर हमको इस बात की कहा फ़िक्र रहती थी आखिर मनमौजी जो थे .जब हमारी गेंद पड़ोसियों के घरो में चली जाती और हम ” चाची/ काकी /दादी ……….आखिरी बार अब नहीं जाएगी गेंद आपके घर में प्लीज़ ” हमारा मासूम चेहरा देख हमे वापस कर दी जाती.कितनी बार अपने सपनो का घर बनाते तो कभी गुड्डे – गुडियों की शादी करते ,कभी लडकियों की चोटी खींचते और उन्हें परेशान करते उस पर पापा की वो डांटे और वो गलती पर मम्मी को मनाना होता था , कभी बारिश में कागज़ की नाव बहाए तो कभी राह चलते पानी में बेमतलब पैर छप-छपाए .जब याद करते है उन पलो को तो ये गाना याद आता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन “ पर सच कहूँ तो मुश्किल ही लगता है उन दिनों का लौट पाना ….“काश ! कही बैंक होता अपने बचपन का तो……. वो पुरानी यादे वो लम्हे निकाल लाते बचपन में न जाने कैसे – कैसे खेल खेला करते थे और अब समय की व्यस्थता के चलते जिन्दगी हमारे साथ बड़े अजीब -अजीब खेल खेलती है कल तक गुड्डे – गुडियों को हम अपने इशारो पे नाचते थे और आज जिन्दगी हमे .जब हम “उच-नीच” का खेल खेलते थे तब हमे किसी ने बताया नहीं था की ये है क्या हैं? अपने हिसाब से हमने आपने मानक तय कर लिए थे और आज इस के मायने ही बदल गये है अब न ही गलियों में वो शोर सुनाई देता है और ही गिल्ली डंडे के खेल का शोर ……क्योकि अब इन्हें हम में से किसी समझदार ने status simble में बांध दिया है अब कहा जाता है की ये सब खेल शरीफ घर के बच्चे नहीं खेला करते जादातर तो अब बच्चे घर में कैद हो जाते है या तो टी.वी के सामने , विडियो गेम में या कंप्यूटर और या फिर इन्टरनेट पे ….उनकी मासूमियत किसी और ने नहीं हमने ही छीनी है जिसकी वजह से हमारे ये बचपन के खेल अब जल्द ही सिर्फ कुछ इतिहासों के पन्ने बन जायेगे …सच कहूँ तो आज का बचपन कही खोता हुआ नज़र आ रहा है समय से पहले ही बच्चे बड़े हो जाते है एक तरह से तो अच्छा है की उनका विकास हो रहा है पर शायद वो अपने जीवन के उन सुनहरे पलो को नहीं जी पा रहे है जो अपने और हमने जिए है इसी वजह से वो अकेलेपन का शिकार हो रहे है …..स्कूल के बैग का बोझ दिन पर दिन बढता जा रहा है और बच्चे धीरे – धीरे दबते जा रहे है . जरूरत है हमे उन्हें हकीकत की दुनिया से रूबरू करने की .जिससे वो अपने आज को खुल के जी सके और आने वाले कल में हमारे जेसे ये भी कह सके की ………
“बचपन का भी क्या ज़माना था
हँसता मुस्कुराता खुशियो का खज़ाना था
खबर न थी सुबह की न शाम का ठिकाना था
दादा दादी की कहानी थी परियो का फ़साना था
उतम जैन (विद्रोही )

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