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बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

भुवनेश्वर की हृदयविदारक घटना

एक हृदयविदारक ख़बर कल जब सुनी जिसने सिर्फ मुझे ही नही पूरी देश को झकझोर दिया. इस ख़बर ने सत्ता और शासन को सोचने पर मज़बूर किया या नही मे नही जानता पर मुझे लिखने को जरूर साहस दिया ! कल भुवनेश्वर में जो हृदयविदारक घटना हुई। इलाज कराने आए मरीजों को निजी अस्पताल में मौत मिली। एक दिन पहले सोमवार शाम इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड एसयूएम हॉस्पिटल के आईसीयू वार्ड में भयंकर आग लगी। लगभग दो दर्जन लोग इसकी भेंट चढ़े। उससे कई गुना ज्यादा घायल हुए। ज्यादातर मौतें दम घुटने के कारण हुई। आरंभिक जानकारियों के मुताबिक आग ऑक्सीजन चैंबर में शॉर्ट सर्किट के चलते लगी। शुरुआत डायलिसिस वार्ड से हुई। क्या ये सूचनाएं इसका संकेत नहीं हैं कि अस्पताल में सबसे संवेदनशील जगहों पर भी सुरक्षा इंतजामों की पर्याप्त निगरानी नहीं होती थी? शॉर्ट सर्किट भी अक्सर निरंतर निगरानी के अभाव का ही सूचक माना जाता है। उस अस्पताल में 1200 बेड हैं। जब हादसा हुआ, तब तकरीबन 500 मरीज वहां भर्ती थे। जाहिर है, यह एक बड़ा अस्पताल है। मगर अग्निकांड जैसे हादसे के वक्त लोगों को सुरक्षित निकालने का इंतजाम वहां कितना लचर था, यह मरीजों के अनुभव से साफ है। आग लगने के बाद अस्पताल में अफरातफरी मच गई। इसी बीच घबराहट में मरीजों और उनके तीमारदारों ने खिड़कियां, दरवाजे तोड़ दिए। चादरों में लपेटकर लोगों को नीचे उतारा गया। कई तीमारदार तो मरीजों को अपने कंधों पर बेड समेत लेकर बाहर की ओर भागे। यानी आग लगने पर बचाव के इंतजाम वहां या तो थे नहीं, या वे फेल हो गए।
क्या इसकी जिम्मेदारी अस्पताल प्रशासन पर नहीं आती? इसीलिए इस घटना को महज हादसा समझकर नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए। बल्कि अस्पताल प्रशासन से संबंधित और अग्नि-सुरक्षा के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों की पहचान कर उनकी व्यक्तिगत जवाबदेही तय की जानी चाहिए। 2011 में कोलकाता के एएमआरआई अस्पताल में आग लगी थी। तब अस्पताल संचालक मंडल के छह सदस्य गिरफ्तार किए गए थे। लेकिन बात धीरे-धीरे चर्चा से बाहर हो गई। जिम्मेदार लोगों को कोई ऐसी सजा मिली जो भविष्य के लिए मिसाल बनती, इस बारे में आम तौर पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इससे पहले 1997 में दिल्ली में हुए उपहार सिनेमाघर अग्निकांड के बाद सार्वजनिक उपयोग वाले भवनों में सुरक्षा उपायों को लेकर काफी चर्चा हुई थी। ऐसी घटनाओं की जवाबदेही तय करने के मुद्दे पर न्यायपालिका ने भी विचार किया। लेकिन उससे भी कोई बड़ा संदेश सारे देश में गया, यह नहीं लगता। इसीलिए भुवनेश्वर कांड में नेताओं का शोक जताना और मुआवजे का एलान करना काफी नहीं है। असली सवाल उत्तरदायित्व का है। ऐसे मामलों में भवन मालिकों की आपराधिक जिम्मेदारी तय होने के वैधानिक प्रावधान होने चाहिए। साथ ही मुआवजे की देनदारी भी उन पर ही आनी चाहिए। इस दिशा में अविलंब पहल होनी चाहिए। भुवनेश्वर में जिन निर्दोष लोगों की जान गई, उनके परिजनों को तात्कालिक राहत पहुंचाना अनिवार्य है। मगर बात वहीं तक सीमित रही, तो यह मृत या जख्मी लोगों को संपूर्ण न्याय से वंचित रखना होगा।
लेखक -उत्तम जैन (विद्रोही )

आम आदमी पार्टी की वास्तविकता – पथ से भ्रमित एक नजर मे

आम आदमी पार्टी का बनना, चुनाव लड़ना, सरकार बनाना, जिस आशा के साथ इस पार्टी का निर्माण हुआ, उतनी ही निराशा इसके काम से है | इस पार्टी का उदय होने का मुख्य कारण में सामान्यजन की पीड़ा मुख्य है | इस पीड़ा का मूल शासन-प्रशासन में व्याप्त रिश्वतखोरी है | जिसके कारण नियम, व्यवस्था सब कुछ निरर्थक हो गई है| इस घूसखोरी के कारण सामान्य मनुष्य का जीवन कठिनाई में पड गया है | जिसका काम नियम से होना चाहिए उसका काम नहीं होता | जिसका काम होने योग्य नहीं है, उसका काम पैसे देकर हो जाता है | इस कुचक्र में सामान्यजन फंस कर रह गया है, इस विवशता को उसने नियति मान लिया था | ऐसे समय में उसकी पीड़ा को छूने का काम इन वर्षों में हुआ है | आप पार्टी ने भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर जनता से समर्थन माँगा, परन्तु आज सरकार में बैठकर आदर्श की बात को व्यवहार के धरातल पर लाने में असफल हो गई | इसके कारण पर विचार करने पर एक बार स्पष्ट होती है की भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सरकार बनाने वाले स्वयं भ्रष्टाचार के दोषी है | आए दिन विधायकों पर तरह तरह आरोप लग रहे है वेसे धुआ वही से निकलता है जहा आग लगी हो ! आप पार्टी की जड़ों तक जाने पर आपको पता लगता है की ये उन विचारों का प्रतिनिधित्व करते है, जो इस देश के आचार-विचार और परम्परा से सहमति नहीं रखते | इनके सामने संकट भ्रष्टाचार नहीं है, भ्रष्टाचार को तो इन्होने लड़ाई के साधन के रूप में काम में लिया है | आप पार्टी के नेता केजरीवाल जहाँ खड़े होकर लड़ रहे हैं वह स्थान ही भ्रष्टाचार का उद्गम स्थल है | वेसे मेरी समझ से भ्रष्टाचार केवल पैसे से नहीं होता, आचरण एक व्यापक शब्द है अर्थात भ्रष्ट – आचरण | इसका सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है | भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘आप’ का आन्दोलन एक नारे से आगे नहीं बढ़ सका है | झूठ बोलना, दूसरों पर दोषारोपण करना भी तो भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है | सीएम अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से किए वादों को पूरा करने की बजाय ‘पंगे की राजनीति’ की राह चुनी।
उपराज्यपाल नजीब जंग से पंगा, दिल्ली पुलिस से पंगा। केंद्रीय गृह मंत्रालय से टकराव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बेबुनियाद आरोपों की झड़ी तो कभी सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रश्न चिन्ह ! केजरीवाल के इस रूप की उम्मीद दिल्ली की जनता को कतई नहीं रही होगी। लेकिन जनता अब केजरी के गढ़े हुए राजनीति झूठ को समझ रही होगी। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को समझना चाहिए कि ‘पंगे की राजनीति’ से किसी पार्टी की साख नहीं बनती है। अभी भी राजनीतिक व नैतिक ईमानदारी के बल ही पार्टी की साख बनी रहती है। अब गुजरात पर नजर टिकी है कल सूरत की आम सभा मे काफी भीड़ तो जुटी इसका अर्थ ये नही की सभी का समर्थन मिलेगा ! हार्दिक पटेल की तारीफ़ों के कसीदे कशकर तालिया बटोर लेना कोई समर्थन की उम्मीद के सपने सँजो लिए तो यह सपने सिर्फ सपने ही है ! अभी एक ओर आरोप लग गया आम आदमी पार्टी (आप) के निलंबित विधायक देवेन्द्र सहरावत ने पार्टी के उच्च नेतृत्व पर 16 करोड़ रुपए से अधिक राशि के चंदे के घोटाले का आरोप लगाया है।
आम आदमी पार्टी को नई राजनीति और नई गवर्नेंस, दोनों का आविष्कार करना था. यह पार्टी भारतीय राजनीति की क्षेत्रीय, जातीय और वैचारिक टकसालों से नहीं निकली. इसे गवर्नेंस में बदलाव के आंदोलन ने गढ़ा था. संयोग से इस पार्टी को देश की राजधानी में सत्ता चलाने का भव्य जनादेश मिल गया था, इसलिए नई सियासत और नई सरकार की उम्मीदें लाजिमी हैं. दिल्ली सरकार के पास सीमित अधिकार हैं, यह बात नई नहीं है लेकिन इन्हीं सीमाओं के बीच केजरीवाल को सकारात्मक गवर्नेंस की राजनीति करनी थी !
दिल्ली की सत्ता में आप की राजनैतिक शुरुआत बिखराव से हुई और गवर्नेंस की शुरुआत टकराव से. सत्ता में आते ही पार्टी का भीतरी लोकतंत्र ध्वस्त हो गया. इसलिए वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदें जड़ नहीं पकड़ सकीं. सच यह है कि सीधे टकराव के अलावा आप, केंद्र की गवर्नेंस और नीतियों की धारदार और तथ्यसंगत समालोचना विकसित नहीं कर पाई. आर्थिक, नीति, विदेश नीति, सामाजिक सेवाओं से लेकर रोजगार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था तक सभी पर, आधुनिक और भविष्योपरक संवादों की जरूरत है, जिसे शुरू करने का मौका आप के पास था !
ऐसे संवादों को तैयार करने के लिए दिल्ली में आप को नई गवर्नेंस भी दिखानी थी. लेकिन 49 दिन के पिछले प्रयोग की नसीहतों के बावजूद अरविंद केजरीवाल अपनी सरकार को प्रशासन के ऐसे अभिनव तौर-तरीकों की प्रयोगशाला नहीं बना सके, जो उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं का आधार बन सकते थे. यही वजह है कि आप राजनीति व गवर्नेंस के सकारात्मक और गुणात्मक संवादों में कोई जगह नहीं बना सकी, सिर्फ केंद्र से टकराव की सुर्खियां बटोरने में लगी रही है
सत्ता में आने के बाद कई महीनों तक मोदी सरकार के नेता भी पिछली सभी मुसीबतों के लिए कांग्रेस को कोसते रहे थे. यह एक किस्म का विपक्षी संवाद था, जिसकी अपेक्षा सरकार से नहीं की जाती. डेढ़ साल बाद मोदी सरकार ने अपने संवाद बदले, क्रियान्वयन पर ध्यान दिया और विपक्ष से सहमति बनाई, तो गवर्नेंस में भी सक्रियता नजर आई. इसी तरह हर समस्या के लिए केंद्र से टकराव वाला केजरीवाल जी का धारावाहिक कुछ ज्यादा लंबा खिंच गया जिसके कारण गवर्नेंस सक्रिय नहीं हो सकी और दिल्ली सरकार वह काम भी करती नहीं दिखी !
राष्ट्रीय राजधानी में आप की सरकार के तजुर्बे पूरे देश में गंभीरता से परखे जा रहे हैं. पंजाब या गोवा के चुनावों में मतदाताओं के पास पुराने दलों को आजमाने का विकल्प मौजूद है. इसलिए यदि आप खुद को विकल्प मानती है तो उसे ध्यान रखना होगा कि इन चुनावों में दिल्ली की गवर्नेंस का संदर्भ जरूर आएगा. फिलहाल पार्टी के चुनावी संवादों में पंजाब या गोवा के भविष्य को संबोधित करने वाली नीतियां नहीं दिखतीं ! मच्छर मारने में चूक और राजनीति पर सुप्रीम कोर्ट से लताड़ खाना किसी भी सरकार की साख पर भारी पड़ेगा क्योंकि इस तरह के काम तो बुनियादी गवर्नेंस का हिस्सा हैं. आप के लिए यह गफलत गंभीर है क्योंकि केजरीवाल (दिल्ली की संवैधानिक सीमाओं के बीच) नई व्यवस्थाएं देने की उम्मीद के साथ उभरे थे. अब उन्हें सबसे पहले दिल्ली में अपनी सरकार का इलाज करना चाहिए और टकरावों से निकलकर सकारात्मक बदलावों के प्रमाण सामने लाने चाहिए. !
आप का जनादेश कमजोर जमीन पर टिका है. उसके पास विचाराधारा, परिवार व भौगोलिक विस्तार जैसा कुछ नहीं है, जिसके बूते पुराने दल बार-बार उग आते हैं. आप उम्मीदों की तपिश और मजबूत प्रतिस्पर्धी राजनीति से एक साथ मुकाबिल है. इसलिए असफलता का जोखिम किसी भी पुराने दल की तुलना में कई गुना ज्यादा है. केजरीवाल को यह डर वाकई महसूस होना चाहिये गवर्नेंस की एक दो बड़ी चूक उनकी राजनीति को चुक जाने की चर्चाओं में बदल सकती है
लेखक – उत्तम जैन (विद्रोही )
यह विचार लेखक के स्वतंत्र विचार है !

सोमवार, 25 जुलाई 2016

बदलता बच्चो का परिवेश एक चिंतनीय



          बदलता बच्चो का परिवेश एक चिंतनीय 




मित्रों, आज बहुत दिनों से बच्चो के बदलते परिवेश को देखते हुए मानस पटल पर एक पीड़ा व् चिंतन उभर रहा है ! विचारों का प्रवाह किसी भंवर की तरह फिर मंथन कर रहा है शायद सारी बातें लिखना इतना आसान ना होगा फिर भी कोशिश है कि सम्पूर्ण विचारों का एक अंश मात्र ही लिख सकूँ तो बेहतर होगा आज इसी विषय पर लिखने बैठा हूँ मेरा लेखन व् पीड़ा तभी सार्थक होगी जब आप स्वय इस विषय पर चिंतन करेंगे अब मुख्य विषय पर ............!!
मैं और आप उस पीढ़ी है ! जिसने की कुछ स्वतंत्रता प्राप्ति के चंद वर्षो बाद में अपनी आँखें खोली और जो इस देश के साथ बड़े होते गए आज युवा से बुजुर्ग की और अग्रसर हो रहे है। मगर बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी व् आपकी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो चिमनी व् लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। हमारी पूर्व पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध्याय पढ़े हैं।और हमारी पीढ़ी ने भ्रष्ट नेताओ और राशन की पँक्तियों में खड़ी ग़रीबी देखी है और आज चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मगर आज के युवा के इस बदलते परिवेश को जब हम देखते है तो एक अलग अनुभूति होती है ! हमारे भारतीय सस्कृति में सयुंक्त परिवार प्रथा का प्रचलन प्राचीन काल से होता आया है ! जिसमे समस्त परिवार ,मुखिया के संचालन में ही संचलित होता था। परिवार के समस्त सदस्यों के कार्यो का विभाजन मुखिया के सहमत से ही होता था! परिवार के सभी सदस्य बिना किसी भेदभाव के एक ही छत के नीचे एक ही सांझे चूल्हे पर परिवार के वयोवृद्ध मुखिया की छत्र छाया में जीवनयापन करते थे। परन्तु आज के परिद्रश्य में हम उन्नत एवं प्रगति व विकास की दुहाई दे कर हम रिश्तों की उस खुशनुमा जिन्दगी को खोते जा रहे है और हम उस प्रथा को छोड़ने को मजबूर है। सयुंक्त परिवार मे अपने से बड़े व वृद्ध का मान ,सम्मान तथा उनकी भावनाओ को पूर्ण रूप से सम्मान दिया जाता था परन्तु आज के विकसित एकल परिवार में उक्त का विघटन होता जा रहा है एक दूसरे के प्रति प्रेम और सौहार्द तथा भाईचारे की भावना समाप्त होती जा रही है !यह एक चिंतनीय विषय है आज यदि अपने आसपास नज़र डाली जाये, आसपास ही क्यों यदि अपने घरों में भी झांका जाये तो साफ़ पता चल जाता है कि बच्चे अब बहुत बदल रहे हैं । हां ये ठीक है कि जब समाज बदल रहा है, समय बदल रहा है तो ऐसे में स्वाभाविक ही है कि बच्चे और उनसे जुडा उनका मनोविज्ञान, उनका स्वभाव, उनका व्यवहार सब कुछ बदलेगा ही। मगर सबसे बडी चिंता की बात ये है कि ये बदलाव बहुत ही गंभीर रूप से खतरनाक और नकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर है। आज नगरों , महानगरों में न तो बच्चों मे वो बाल सुलभ मासूमियत दिखती है न ही उनके उम्र के अनुसार उनका व्यवहार। कभी कभी तो लगता है कि बच्चे अपनी उम्र से कई गुना अधिक या कहू हमसे ज्यादा परिपक्व हो गये हैं। ये इस बात का ईशारा है कि आने वाले समय में जो नस्लें हमें मिलने वाली हैं..उनमें वो गुण और दोष ,,स्वाभाविक रूप से मिलने वाले हैं , जिनसे आज का समाज खुद जूझ रहा है।बदलते परिवेश के कारण आज न सिर्फ़ बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से अव्यवस्थित हो रहे हैं बल्कि आश्चर्यजनक रूप से जिद्दी , हिंसक और कुंठित भी हो रहे हैं। जिसका नतीजा सामने है पिछले एक दशक में ही ऐसे अपराध जिनमें बच्चों की भागीदारी में बढोत्तरी हुई है। इनमें गौर करने लायक एक और तथ्य ये है कि ये प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा,शहरी क्षेत्र में अधिक रहा है। बच्चे न सिर्फ़ आपसी झगडे, घरों से पैसे चुराने, जैसे छोटे मोटे अपराधों मे लिप्त हो रहे हैं..बल्कि चिंताजनक रूप से नशे, जुए, गलत यौन आचरण,फ़ूहड और फ़ैशन की दिखावटी जिंदगी आदि जैसी आदतों में भी पडते जा रहे हैं। बच्चों मे आने वाले इस बदलाव का कोई एक ही कारण नही है। इनमें पहला कारण है बच्चों के खानपान में बदलाव। आज समाज जिस तेजी से फ़ास्ट फ़ूड या जंक फ़ूड की आदत को अपनाता जा रहा है उसके प्रभाव से बच्चे भी अछूते नहीं हैं। बच्चों के प्रिय खाद्य पदार्थों में आज जहां, चाकलेट, चाऊमीन, तमाम तरह के चिप्स, स्नैक्स, बर्गर, ब्रेड आदि न जाने में तो नाम व् स्वाद भी नही जानता शामिल हो गये हैं ! परिणाम स्वरुप कहावत है "जेसा खाए अन्न वेसा होए मन" वहीं, फ़ल हरी सब्जी ,साग दूध, दालें जैसे भोज्य पदार्थों से दूरी बनती जा रही है। इसका परिणाम ये हो रहा है कि बच्चे कम उम्र में ही मोटापे, रक्तचाप, आखों की कमजोरी,हर्दयाघात और उदर से संबंधित कई रोगों व् सबसे भयानक मधुमेह का शिकार बनते जा रहे हैं। भारतीय बच्चों मे जो भी नैतिकता, व्यवहार कुशलता स्वाभाविक रूप से आती थी, उसके लिये उनकी पारिवारिक संरचना बहुत हद तक जिम्मेदार होती थी। पहले जब सम्मिलित परिवार हुआ करते थे., तो बच्चों में रिश्तो की समझ, बडों का आदर, छोटों को स्नेह, सुख दुख , की एक नैसर्गिक समझ हो जाया करती थी। उनमें परिवार को लेकर एक दायित्व और अपनापन अपने आप विकसित हो जाता था। साथ बैठ कर भोजन, साथ खडे हो पूजा प्रार्थना जो अभी दुर्लभ हो गयी है ! पूजा पाठ का स्थान आज व्हट्स अप , फेसबुक ने ले लिया है ! सभी पर्व त्योहारों मे मिल कर उत्साहित होना, कुल मिला कर जीवन का वो पाठ जिसे लोग दुनियादारी कहते हैं , वो सब सीख और समझ जाया करते थे। आज इस बात पर में मुख्य रूप से चिंता जाहिर करता हु कि आज जहां महानगरों मे मां-बाप दोनो के कामकाजी होने के कारण या पिता सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से दूर भागते हुए रुपयों के पीछे भाग रहा है ! बच्चे दूसरे माध्यमों के सहारे पाले पोसे जा रहे हैं या पथ से भ्रमित हो रहे है , वहीं दूसरे शहरों में भी परिवारों के छोटे हो जाने के कारण बच्चों का दायरा सिमट कर रह गया है । इसके अलावा बच्चों में अनावश्यक रूप से बढता पढाई का बोझ, माता पिता की जरूरत से ज्यादा अपेक्षा, और समाज के नकारात्मक बदलावों के कारण भी उनका पूरा चरित्र ही बदलता जा रहा है । यदि समय रहेते इसे न समझा और बदला गया तो इसके परिणाम निसंदेह ही समाज व् परिवार के लिये आत्मघाती साबित होंगे।
उत्तम जैन विद्रोही
मो- ८४६०७८३४०१ 

शनिवार, 23 जुलाई 2016

एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति




एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति



वर्तमान समय में और विशेषकर भारत के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक नेतागण, इस बात की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए. यह इस लिए प्रबल समस्या बन गई है कि राजनीति के काम में सब जगह धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को राजनीति से जोड़ने की कोशिश करते हैं. ऐसा करने से उनके धर्म को बल मिलता है. और शक्ति से लोगों को विवश किया जाता है कि उनके धर्मों में अधिक से अधिक लोग आएं ताकि उस धर्म के अनुयायी अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बना लें !भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है यहाँ विभिन्न प्रकार के धर्म पाये जाते है और उन धर्मों के अनुसार भारतीय समाज में नाना प्रकार की परम्पराएं और प्रथाऐं प्रचलित हैं, इन सबमें भारतीय समाज, भारतीय साहित्य, सभ्यता और संस्कृति, भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक बड़े पैमाने तक प्रभावित किया है। इस प्रभाव की विचित्रताओं, विशिष्टताओं और विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि यह कहा जाये कि भारत विभिन्न धर्मों का अजायबघर है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोकतान्त्रिक देश की राजनीती की और आपको लेकर चलू तो ‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं,और धर्म व् राजनीती का मूल सिद्दांत है - धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। अब क्युकी हमारे देश मे दो प्रकार के भ्रम फल-फूल रहे हैं। कुछ लोग धर्म को गलत अर्थ निकालते हुये उसे सिर्फ और सिर्फ उपासना पद्धति से जोड़ते हैं। कुछ लोग राजनीति को गंदे लोगों के लिए सुरक्षित छोड़ देते हैं। धर्म का गलत अर्थ लेने की वजह से राजनीति भी गलत अर्थों मे ली जाती है परिणाम यह है कि राजनीति भी ‘धर्म’ की ही भांति गलत लोगों के हाथों मे पहुँच गई है। देश-हित,समाज-हित की बातें न होकर कुछ लोगों के मात्र आर्थिक-हितों का संरक्षण ही आज की राजनीति का उद्देश्य बन गया है। नेता का अर्थ है जो समाज, देश या वर्ग समूह का नेतृत्व करता है वह नहीं जो खुद का नेतृत्व करता है और सत्ता की कुर्सी पर बैठकर अपनी महत्वकांक्षा साधता हो। देश का नेतृत्व किसके हाथ में हो अब जनता तय करती है भ्रष्ट्राचारी, अपराधी , विश्वासघाती लोग ही इस देश का नेतृत्व करे, यही जनता चाहती है तो इनका चुनाव करने के लिए वह स्वतन्त्र है।धर्म गुरूओं द्वारा धर्म का जो वर्तमान स्वरूप बदला जा रहा है या कहे तो शब्दों का ताना-बुना कर अनुयायी के मन मे धर्म का जो बीजारोपण किया जा रहा है उस पर शायद ही किसी सच्चे अनुयायी को गर्व होना चाहिए। रही सही कसर हमारे राजनेताओं ने पूरी कर दी है। परिणामतः धर्म का अस्तित्व खतरे में नहीं है, वस्तुतः धर्म के कारण मानव समुदाय का अस्तित्व ही खतरे में है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ धर्म के कारण अस्थिरता, अराजकता एवं भय का वातावरण नहीं हो फिर भी बहुत कम लोग इस संबंध में बोलने का दुस्साहस करता है।आज राजनीती की स्थिति को हर कोई जानता है । सब के मुंह से एक ही बात सुनने को मिलती है की , राजनीती बड़ी गन्दी हो गई है। आज कोई राजनीती की और जाना पसंद नही करता !अगर यह बात सत्य है तो हमारे देश की व्यवस्था को , हमारे समाज को इस गन्दी नीती से क्यो चलाया जाय ? इस नीति को साफ़ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनाया जाय या फ़िर देश की व्यवस्था को किसी दूसरी व्यवस्था से चलाया जाय। राजनीती को कोसने या नेताओ को गालिया देने से क्या होगा ? अगर बात राजनीती को साफ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनने की करे तो प्रश्न उपस्थित होता है की , यह शुभ कार्य करेगा कौन ? अगर कोई करेगा नहीं तो हमे यह साफ-सुंदर स्वच्छ लोकतांत्रिक परिकल्पना को भी भुला देने की जरूरत है और हमे यह कहने का भी अधिकार नहीं की राजनीत बहुत गंदी हो गयी है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था, ‘मेरे लिए धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है। मेरा धर्म सार्वभौम और सहनशील धर्म है, अंधविश्वासो और ढकोसलों का धर्म नहीं। वह धर्म भी नहीं, जो घृणा कराता है और लड़ाता है। नैतिकता से विरक्त राजनीति को त्याग देना चाहिए.’ उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है, पर उनके नाम का इस्तेमाल करके सत्ता-सुख भोगने वालों ने इसे बहुत पहले त्याग दिया था. आज उनकी राजनीति अनैतिकता से भरपूर है। गांधी जी का यह विचार अब अप्रासांगिक हो गया है आज का धर्म ने अपना मूल स्वरूप त्याग कर समाज मे गलत व्यसन, कुकृत्य और धर्म को अधर्म मे परिवर्तन करने का स्वरूप बन कर रह गया है। अब धर्म राजनीति और राजनीति समाज देश को दिशा तो नही देता परंतु दोनों चेले-गुरु का दामन थाम अपनी अपनी स्वार्थ की रोटियाँ जरूर पक्का रहे है।यह तो जनता का सरोकार है अधिकार है बोलने की आज़ादी है राजनेताओं को चुनने का हक़ है आख़िर बार-बार हर बार जनता एक मौक़ा और क्यों दे ताकि वह अपनी रही-सही महत्वकांक्षा भी पूर्ण कर सकें। अब तो अपने सरोकार के लिए, अपने आने वाले भविष्य के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी और कहना होगा, ‘अब यह नहीं चलेगा’ ।हम जिस दौर में जी रहे है, उस दौर मे हंस के टाल देने वाली बातो पर हमारा खून खौल उठता है और जिन बातो पर वाकई हमारा खून खौलना चाहिए, उन्हें हम बेशर्मी से हंस के टाल देते है।आज जरुरत है धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’ धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। तभी धर्म एवं राजनीति के विवेकपूर्ण मिलन से एक आदर्श व् उन्नत समाज और उज्जवल राष्ट्र का निर्माण होगा !
उत्तम जैन ( विद्रोही )
मो-८४६०७८३४०१ 

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

वर्तमान की शिक्षा प्रणाली - मेरा दर्द




वर्तमान की शिक्षा प्रणाली - मेरा दर्द
देश को बदलना है तो शिक्षा का प्रारूप बदलो
आज एक पुस्तक पर मेरी नजर पड़ी जिसमे लिखा था --जिस शिक्षा से हम अपने जीवन का निर्माण कर सके , मनुष्य बन सके , चरित्र गठन कर सके और विचारो का सामंजस्य कर सके वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है ... स्वामी विवेकानन्द की यह पंक्तिया आज मेने एक जब पढ़ी कुछ दिनों पूर्व की शिक्षा से जुडा मेरा मानसिक तनाव कहू या या मेरी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली पर मेरा चिंतनीय विषय ने मुझे लिखने को मजबूर कर दिया ! क्यों की चंद दिनों पूर्व ही मेरा पुत्र 12 वि में वाणिज्य संकाय में गुजरात बोर्ड में अपेक्षितअंको/ प्रतिशत से कम 51 प्रतिशत ही प्राप्त कर पाया ! मे व् मेरे पुत्र को मानसिक तनाव तो परिणाम आने के बाद बढ़ ही गया था क्यों की मेरा पुत्र B.B.A में दाखला लेना चाहता था मगर परिणाम के प्रतिशत को देखते हुए वीर नर्मद यूनिवर्सिटी से पहले व् दुसरे चक्र में उसका नाम किसी महाविद्यालय में नामित नही हुआ ! वर्तमान में आज के हताश विद्यार्थी के आत्महत्या के किस्से सुन में डर के मारे अपने पुत्र को प्रतिदिन होंसला देता रहता था चिंता न करो दाखला हो जायेगा ! पुत्र को चिंतित देख में खुद मानसिक तनाव में था ! खुद पहुच गया स्वयं निर्भर(सेल्फ फायनेंस ) महाविद्यालय में जहा दूसरी यूनिवर्सिटी से M.M.A नामक कोई कोर्स जिसे 5 वर्ष में पूर्ण करने पर B.B.A व् M.B.A की ऐसी ही कुछ डिग्री मिलेगी ! मरता क्या न करता दाखला लेने को तेयार हुआ और मुझे बताया गया 1 लाख डोनेशन प्रवेश के लिए व् प्रति सेमेस्टर (छह माह ) फीस ३१५०० /- भुगतान करना पड़ेगा ! मुझ जेसे साधारण व्यक्ति के सामने आँखों के आघे अँधेरा छा गया ! मुह लटकाकर बिना कुछ बोले जेहन में एक दर्द लेकर बाहर निकला ! अब मानस पटल पर मेरे विचार शिक्षा पर आये प्रेषित ----
शिक्षा का व्यवसायीकरण या बाजारीकरण आज देश के समक्ष बड़ी चुनौती हैं !
किसी भी समस्या का समाधान चाहते है तो उसकी जड़ में जाने की आवश्यकता होती है। शिक्षा में वर्तमान का व्यवसायीकरण का कारण क्या है? उसका समाधान क्या हो? कुछ लोग ऐसा भी तर्क देते है कि शिक्षा का विस्तार करना है या सर्वसुलभ कराना है तो मात्र सरकार के द्वारा संभव नहीं है, निजीकरण आवश्यक है और जो व्यक्ति शिक्षा संस्थान में पैसा लगायेगा वह बिना मुनाफे क्यों विद्यालय,महाविद्यालय खोलेगा?यह तर्क भी बिल्कुल सही है कुछ लोग इससे भी आगे बढ़कर कहते है कि देश की शिक्षा का विस्तार एवं विकास करने हेतु विदेशी शैक्षिक संस्थाओं के लिए द्वारा खोलने चाहिए। वैश्वीकरण के युग में इसको रोका नहीं जा सकता आदि प्रकार के विभिन्न तर्क दिये जा रहे है। यह सारे तर्क तथाकथित सभ्रांत वर्ग के द्वारा ही दिये जाते है। अगर मुख्य मुद्दे पर नजर डाली जाये तो पूर्व में शैक्षिक संस्थाए या तो सीधे तोर पर सरकार चलाती थी या सरकार के अनुदान से संस्थाएं चलती थी। विद्यार्थियों का निष्चित शुल्क शिक्षकों का निष्चित वेतन एवं संस्था चलाने हेतु अनुदान जैसी व्यवस्थाए बनी।
कुछ समय के बाद सरकारी शैक्षिक संस्थाओं के स्तर में लगातार गिरावट आती गई। इस कारण से निजी विद्यालयों का आकर्षण बढ़ा शुरू में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में वस्तुओं के रूप में दान लेना शुरू हुआ। आगे जाकर छात्र से बड़ी मात्रा में दान लेना, शिक्षकों की निुयक्ति में पैसा लेना और कम वेतन देना शुरू हुआ। विद्यालयों में शिक्षा के स्तर गिरने से ट्यूशन प्रथा प्रारम्भ हुई। क्रमशः शिक्षा का स्वरूप धन्धे जैसा बनने लगा।यह सब कार्य शासन-प्रशाासन एवं शिक्षा माफियाओं की मिलीभगत से होने लगे। जिसका आज इस प्रकार विभत्स स्वरूप बन गया कि शिक्षा यह सब्जी मंडी का बाजार जैसे हो गई है । आज अराजकता का माहौल है। शुल्क न भर सकने के कारण छात्र आत्महत्याएं कर रहे है। अभिभावक इस हेतु गलत कार्य करने को मजबूर है। एक प्रकार से व्यवसायिक उच्च-शिक्षा उच्च मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के बस की बात नही रही। प्रष्न उठता है इस प्रकार के लगभग 20 प्रतिशत वर्ग को छोड़कर 80 प्रतिशत वर्ग के बच्चे प्रतिभावन नहीं है क्या? इससे देश की प्रतिभाएं भी कुठित हो रही है। इन सारी परिस्थितियों के कारण वर्तमान में शिक्षा का मात्र बजारीकरण नहीं हुआ है। एक प्रकार से अतिभ्रष्ट व्यापार हो गया है। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र किस प्रकार के निर्माण होगे? और इस प्रकार के छात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करेंगे तब देश का चरित्र कैसा बनेगा? यह बड़ा प्रश्न है। देश में भ्रष्टाचार, अनाचार, चरित्र-हीनता बढ़ रही है उसकी चिंता करने से कुछ परिणाम नहीं होगा। जब तक शिक्षा का बाजारीकरण नहीं रूकेगा तब तक बाकी सारी गलत बातें बढ़ना स्वाभाविक है। देश की सभी समस्याओं की जड़ वर्तमान शिक्षा है। इसके लिए कुछ मेरे समाधान हेतु सुझाव की शिक्षा प्रणाली केसी हो -शिक्षा के व्यापारीकरण, बाजारीकरण को रोकने हेतु केन्द्र सरकार कानून बनाये।
1. शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार पर रोक लगे।
2 .विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत के शैक्षिक संस्थानों से भी कड़े कानून हो। उनका प्रत्ययायन एवं मूल्यांकन उस देश में तथा भारत में भी हो ।
अपने देश की विशेषकरके सरकारी शैक्षिक संस्थानों की गुणवत्ता सुधार हेतु ठोस योजना बनें।
३. उच्च शिक्षा विशेषकरके व्यवसायी उच्च शिक्षा को मात्र निजी भरोसे पर न छोड़ा जाए। सरकार के द्वारा भी नये शैक्षिक संस्थान शुरू करने की योजना बनें।
शिक्षा की भारतीय संकल्पना को पुनः स्थापित करने हेतु प्रयास किये जाएं।
शिक्षा मात्र सरकार का दायित्व न होकर समाज भी अपने दायित्व का निर्वाह करें।..... सुझाव तो बहुत है मगर सिर्फ ३ सुझाव पर भी ध्यान दे दिया जाये तो शिक्षा जगत में काफी परिवर्तन हो सकता है
उत्तम जैन (विद्रोही )
मो- ८४६०७८३४०१ 

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

कन्या भ्रूण हत्या एक अभिशाप

                 कन्या भ्रूण हत्या एक अभिशाप


                     
                                 मेरी हत्या न करो माँ
                                 मैं तेरा ही अंश हूँ माँ
                                पिताजी को समझा दो माँ
                                पिताजी को मना लो माँ






कन्या भ्रूण हत्या के रूप में हम अपनी जल्लाद मानसिकता के साथ सांस्कृतिक पतन की सूचना संसार को दे रहे हैं। यह महापाप है। अक्सर इसके लिए स्त्रियों को जिम्मेदार ठहराकर "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है" वाला रटा रटाया फार्मूला सुनते है। सच तो यह है कि हम पुरुषो ने भ्रूणहत्या में अपने दोष को कभी देखा ही नही या देखकर खुद को नजर अंदाज कर दिया है ! पुरुष प्रधान भारतीय समाज में सक्षम स्त्री भी हर फैसले के लिए पुरुष का मुंह ताकती हैं। वह प्रणय क्रीड़ा में सहभागी होना चाहती है या नहीं, गर्भ निरोधक इस्तेमाल करे या ना करे, कितने बच्चों को कब जन्म दे, वे लड़के होंगे या लड़कियां, उन्हें शिक्षा कहां और कितनी देनी हैं- ये सब पुरुष तय करता है। जहां स्त्री का अपनी देह पर अधिकार नहीं होगा वहां कन्या भ्रूण हत्या तो होगी ही। अधिकांश मामलों में स्त्री विवश कर दी जाती है और न करने की स्थिति में उसका जीना हराम कर दिया जाता है। कन्या भ्रूण हत्या के लिए पुरुष ही पूर्णत: जिम्मेदार हैं। मरने के मुखाग्नि देने, तर्पण करने, वंशवृद्धि और संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए कुलदीपक" अर्थात् पुत्र की चाह होती है। चाहे उसके कारनामे कुल-काजल क्यों न हों। पुरुष, पुत्रजन्म को अपनी मर्दांनगी से जोड़ते हैं। कन्या भ्रूण हत्या 21वीं सदी के माथे पर कलंक है। स्त्री के अस्तित्व को गर्भ में ही नष्ट करने का कुकृत्य हो रहा है। "प्राइवेट क्लिनिक" कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं जो समाज की इस रुग्ण मानसिकता को अपने हक में भुनाकर चांदी काट रहे हैं। मुख्यतया सभी समाज में तो दुल्हनें अन्य समाज से "आयात" करनी पड़ रही हैं। कही परिवार तो ऐसे जहां राखी बांधने के लिए बहनें ही नहीं हैं।
स्त्री पुरुषों का अनुपात, खतरनाक रूप से असन्तुलित हो चुका है। प्रकृति के साथ यह क्रूर मजाक समाज पर ही भारी पड़ रहा है। जिस समाज की नैतिक चेतना सदियों से कुभकर्णी नींद में हो, उसे जगाने के लिए आज पुन: ढोल-नगाड़ों की जरूरत है। केवल कानून बनाना जरूरी नहीं, उसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। गैरसरकारी सामाजिक संगठनों से भी सन्देश पहुंचना चाहिए। शिक्षक ही नहीं, धर्म गुरु भी इसमें अपनी भूमिका तय करें, शास्त्रों में ईश्वर को "त्वं स्त्री" कहकर नारी रूप में आराधना की गई हैं, क्योंकि नारी अपनी सीमाओं में संपूर्णता की वाहक है।सामाजिक रूढ़ियां, पूर्वाग्रह, दहेज, शिक्षा-ब्याह पर होने वाला खर्च (क्योंकि लड़की को दूसरे घर जाना होता है) और असामाजिक आचरण से उसकी रक्षा, ऐसे कई कारण हैं जो कन्या भ्रूण हत्या के गर्भ में हैं। कन्या को मार दो और जिन्दगी भर के लिए बिंदास हो जाओ- पर इस नीच वृत्ति के लोग यह नहीं सोचते कि उनकी अगली पीढ़ी को शादी के लिए लड़कियां कहां से मिलेंगी। वे स्वयं भी तो किसी स्त्री से जन्मे हैं। कन्या भ्रूण हत्या के रूप में वे आत्मघात ही कर रहे हैं।
हमें बेटी को पराया धन और बेटे को कुल दीपक की मानसिकता से ऊपर उठने की जरूरत है। यह सोचा जाना भी आवश्यक है कि भ्रूण हत्या करके हम किसी को अस्तित्व में आने से पहले ही खत्म कर देते हैं। आज के दौर में बेटीयां बेटे से कमतर नहीं है। इस गलत परम्परा को रोकने के लिये हम सभी को मिलकर तेजी से अभियान चलाना होगा। सरकारी सहयोग की अपेक्षा हमें नही करनी चाहिये। इस मामले में कानून भी लाचार सा ही दिखता है। जाँच सेन्टरों के बाहर बोर्ड पर लिख देने से कि "भ्रूण जाँच किया जाना कानूनी अपराध है।" उन्हें इसका भी लाभ मिला है। जाँच की रकम कई गुणा बढ़ गई। रोजाना गर्भपात के आंकड़े चौकाने वाले बनते जा रहे हैं, चुकिं भारत में गर्भपात को तो कानूनी मान्यता है, परन्तु गर्भाधारण के बाद गर्भ के लिंक जाँच को कानूनी अपराध माना गया है। यह एक बड़ी विडम्बना ही मानी जायेगी कि इस कानून ने प्रचार का ही काम किया। जो लोग नहीं जानते थे, वे भी अब गर्भधारण करते वक्त इस बात की जानकारी कर लेते हैं कि किस स्थान पर उन्हें इस बात की जानकारी मिल जायेगी कि होने वाली संतान नर है या मादा। धीरे-धीरे लिंगानुपात का आंकड़ा बिगड़ता जा रहा है। यदि समय रहते ही हम नहीं चेते तो इस बेटे की चाहत में हर इंसान जानवर बन जायेगा। भले ही हम सभ्य समाज के पहरेदार कहलाते हों, पर हमारी सोच में भी बदलाव लाने की जरूरत है !
उत्तम जैन(विद्रोही)
uttamvidrohi121@gmail.com
mo-8460783401
नोट - मेरे इन विचारो से आप अगर प्रभावित है ! और इन विचारो से आप सहमत है तो बिना कांट छांट किये व् लेखक का नाम हटाये बिना श्योसल मिडिया ( व्ह्ट्स अप , फेसबुक , ट्विटर , अपने समाचार पत्रों में जरुर स्थान दे / फोरवर्ड करे ! अगर कुछ दो चार महानुभाव भी भ्रूण हत्या नही करेगे तो मेरा लेखन सफल हो जायेगा !     

बुधवार, 20 जुलाई 2016

धर्म व राजनीति


                                   धर्म व राजनीति
वर्तमान मे धर्म व राजनीति पर नजर डाली जायी तो हर धर्म मे राजनीतिक दखल हो रहा है ! धर्म का उपयोग राजनीति में नहीं होना चाहिए यह बात देश में सभी को पता है और वर्षों से पता है बावजूद इसके वर्तमान हालात कुछ अलग ही बात कहते हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल के कारण विचित्र परिस्थितियाँ निर्मित होते जा रही हैं। फलस्वरूप धार्मिक मुद्दो पर राजनीतिज्ञ बड़ी चतुराई से अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते है या यू कहा जाए धार्मिक मुद्दा बनाकर मीडिया मे छाए रहना इन राजनीतिज्ञ लोगो की सोची समझी चाल है ! ओर धर्म के नाम पर भोले भाले धार्मिक लोग इनके झांसे मे आकर हो हल्ला मचाते है ! ओर कुछ धर्म के ठेकेदार बनकर खुद की राजनीतिक घुसपेठ बनाने के लिए मीडिया मे अपने तर्क वितर्क प्रस्तुत करते है ! जिसका कोई सारांश नही निकलता जिसमें जितने प्रश्न हैं उतने जवाब नहीं हैं। धर्म और राजनीति का घालमेल सदियों से होता आ रहा है पर वर्तमान स्वरूप काफी व्यथित करने वाला है। धर्म के बारे में सामान्य रूप से कहा जाता है कि यह जीवन जीने का रास्ता बताता है। सभी धर्मों में इसी बात को लेकर अलग-अलग व्याख्या है। मैं विभिन्न धर्मों व पंथों के बारे में व उनके मतों के बारे में गहराई में नहीं जाना चाहता। पर मेरा मानना है कि धर्म के नाम पर गुमराह करना और लुटना बंद होना चाहिए। धर्म के नाम पर आडंबर नहीं होना चाहिए। व्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर धर्म के प्रति उसकी आसक्ति, अनासक्ति भाव सब कुछ आ जाता है। धर्म केवल नियम कानूनों में बँधना नहीं बल्कि धर्म इंसान को दूसरे इंसान के साथ इंसानियत का भाव बनाए रखने में मदद करता है। आज के परिप्रेक्ष्य में यही जरूरी है। हम न केवल धर्म को बल्कि साधारण सी समस्याओं का भी राजनीतिकरण करने से नहीं चूकते। जिसका परिणाम हम सभी देख रहे हैं। कला, संस्कृति से लेकर भगवान भी राजनीति के कटघरे में खड़ा नजर आ रहा है। यह स्थिति क्यों बनी और क्या ऐसी ही स्थिति बनी रहेगी? मैं इसका हल शिक्षा में ढूँढता हूँ। हम धर्म का सही मायने में अर्थ ही समझ नहीं पाएँगे तब निश्चित रूप से इसका गलत उपयोग ही करेंगे। हमें अपने व्यवहार व आचरण को लेकर सोचना होगा और इस बात को ध्यान में लाना होगा कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है। हमारा प्रथम धर्म मानव धर्म है हम भले ही किसी भी ओहदे पर बैठे हों और किसी भी प्रकार का काम कर रहे हों, अगर हम इंसानियत के धर्म को अपना पहला धर्म समझेंगे तब बाकी सभी कुछ आसान हो जाएगा और यह केवल शिक्षा से ही आ सकता है। धर्म के कई ठेकेदार व धनिक लोग कहु या अग्रिम पंक्ति मे बेठे हुए कुछ लोग अपने प्रभाव से अशिक्षित व साधारण लोगों को बरगलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। वे लोग शिक्षित लोगों पर अपनी दादागिरी से यह आदेश नहीं देते, क्योंकि उन्हें पता है कि शिक्षित व्यक्ति रुढ़िवादी और ढोंग में भरोसा नहीं करता, केवल अच्छे कर्म व इंसानियत को ही मानता है। मेरा ऐसा व्यक्तिगत मत है कि धर्म की सही व्याख्या बच्चों को घरों में दिए जाने वाले संस्कारों में छिपी है। हम बच्चों को संस्कार देते समय सावधानी बरतते हैं और उन्हें भलाई, ईमानदारी के साथ जीवनयापन करने की बातें करते हैं पर स्वयं की बारी आने पर हम कायर, कपटी, झूठे, बेईमान बनने में किसी भी प्रकार की शर्म नहीं पालते ! भौतिकवादी जीवनशैली के चलते हम संस्कारों से लेकर धर्म को अपने अनुसार बदलने पर तुले हैं पर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह बदलाव हमारे लिए भविष्य में सकारात्मक होगा या नकारात्मक। निश्चित रूप से अब तक जो स्वरूप सामने आया है वह नकारात्मक है। इस कारण अब हमें धर्म की व्याख्या करते समय इस बात का ध्यान आवश्यक रूप से रखना होगा कि हम राजनीति को अलग रखें और धर्म को अलग तभी इंसानियत धर्म के संस्कारों का बीजारोपण आगे आने वाली पीढ़ी में कर पाएँगे।

लेखक – उत्तम जैन (विद्रोही )

अरे मानव! तू क्यों हर पल दानव बनता जा रहा हैं,


ईश्वर ने तुझे बहुत सोच समझकर प्यार और विश्वास के साथ बनाया था,--मनुष्य बन रहा है दानव 

मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही जितने भी विनाश हुए है, इनके समाज में जितने भी जुल्मों सितम हुए है ; जितने भी युद्ध हुए है और आज हमारा समाज, हमारा परिवार जितनी भी कलह, त्रासदी, दंगे-फसाद, अपराध से प्रताड़ित हो रहा है! नैतिक शिक्षा ही मानव को ‘मानव’ बनाती है क्योंकि नैतिक गुणों के बल पर ही मनुष्य वंदनीय बनता है। सारी दुनिया में नैतिकता व् चरित्र के बल पर ही धन-दौलत, सुख और वैभव की नींव खड़ी है। नैतिकता के अंग हैं – सच बोलना, चोरी न करना, अहिंसा, दूसरों के प्रति उदारता, शिष्टता, विनम्रता, सुशीलता आदि। परन्तु आज ये शिक्षा ना तो बालक के माता-पिता, जिन्हें बालक की प्रथम पाठशाला कहा जाता है, ना ही विद्यालय दे पा रहा है। नैतिक शिक्षा के अभाव के कारण ही आज जगत में अनुशासनहीनता का बोल-बाला है। आज का छात्र कहाँ जानता है, बड़ों का आदर-सत्कार, छोटों से शिष्ठता-प्यार, स्त्री जाति की सुरक्षा-सम्मान सत्कार। रही-सही कसर पूरी कर देता है हमारा फिल्मजगत और टेलिविजन प्रसारण। जो अश्लीलता की हर हदें पार कर चुका है और उसका मूल्य चुकाना पड़ता है समाज को, क्योंकि मनुष्य का स्वभाव है अनुकरण करना। वह अनुकरण से ही सीखता है। आज नायिकाओं में नग्नता परोसने की होड़ लगी है कि कौन कितने कपड़े उतारता है तथा कौन कितना बोल्ड सीन दे सकता है? पैसे की चकाचौंध ने इतना अंधा बना दिया कि वह यह भूल गई हैं कि इसका दुष्परिणाम भुगत रही हैं हमारी नवयुवतियाँ, बच्चियाँ, स्त्रियाँ। यह कथन कितना चरितार्थ होता है – कि ‘स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है’। दर्शक टेलीविजन चैनलों पर, सिनेमा में पेश नग्नता, उनके नग्नता भरे दृश्यों से कितना विचलित हो रहा है, उसकी भड़ास का शिकार, उसके घरों के आस-पास में जहाँ कहीं मौका मिलता है, मासूम बच्चियाँ, महिलायें बन रही हैं। पिता के साथ बेटी सुरक्षित नहीं, भाई के साथ बहन, पति के साथ पत्नी भी असुरक्षित हैं। समाज में एक ज्वाला जली है हवस की। चारों तरफ, जहाँ पढ़ो, सुनो व देखने को मिलता है देश में महिलाओं के खिलाफ असामाजिक घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं ! समाज का दायित्व हो जाता है कि हम अपने नैतिक मूल्यों का पुर्नस्थापन करें। मगर अफसोस समाज अपने कर्तव्य से विमुख होता नजर आरहा है ! आज हम अपने पूर्वजों के दिखायें, बताये मार्ग को भूल गये हैं। पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति को अपनाते-अपनाते, ना तो हम खुद को ही पहचान पा रहे हैं, ना ही पाश्चात्य को। कुछ नवयुवतियाँ भी आजादी मिलने का अर्थ कुछ और ही ले रही हैं। माँ-बाप की खुली छूट का गलत फायदा उठा रही हैं। आये दिन अखबारों, पेपरों में छप रहा है कि शराब पीकर लड़कियों ने हंगामा किया। देर रात तक लड़कों के साथ क्लबों में, होटलों में पार्टी करना आज आम हो रहा है। ऐसा इसलिये हो रहा है कि हमारे नैतिक जीवन मूल्यों का पतन हो रहा है। नारी का ऐसा घृणित व्यवहार, घटिया मानसिकता और निकृष्ठ सोच का परिणाम है। ‘‘किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर वहाँ की महिलाओं की स्थिति है। जो राष्ट्र समाज में स्त्रियों का आदर नहीं करना चाहते व कभी महान बन ही नहीं पायेंगे। देश के वर्तमान पतन का मुख्य कारण यही है कि हमने शक्ति की इन सजीव प्रतिमाओं के प्रति आदरभाव नहीं रखा। स्त्रियों के प्रति घृणित दृष्टि निन्दनीय है। माँ के रूप में, बहन-बेटी के रूप में महिलाओं को सुरक्षा, सुविधा, स्नेह व दुलार देना समाज का कर्तव्य है। नैतिकता और सदाचार ही राष्ट्रीय जीवन का आधार है। आज समाज में इन्हीं नैतिक मूल्यों की स्थापना की सबसे अधिक जरूरत है। प्रत्येक बच्चे को सही मार्ग दर्शन मिले, यह उचित शिक्षा ही कर सकती है। नैतिकता का पाठ पढ़ाया नहीं जा सकता, वरन् उसे चरित्र में उतारना है। वरना मानव दानव का रूप धर चुका है तथा उसका रूकना कठिन ही नहीं नामुमकिन हो जायेगा।
उतम जैन (विद्रोही ) 

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

     तलाक वर्तमान की गंभीर समस्या 

आज वर्तमान में हमारे देश की सबसे गंभीर समस्या तेजी से पनप रही है वह है तलाक नामक बीमारी ! जो व्यक्ति या नारी इस बीमारी से गुजरा है या गुजर रहा है तलाक नाम सुनते ही खुद अपने आपको दुर्भाग्यशाली समझने लग जायेगा ! आखिर यह समस्या क्यों पनप रही है ! आज क्यों अदालतो में हजारो लाखो इस तरह के केस लंबित पड़े हुए है ! यह एक विचारणीय प्रश्न है ! विवाह मात्र दो शरीरों का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों,सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिवेशों का मिलन है | इस मिलन से बने संबंध हमारे जीवन के हर सुख-दुख में हमारा साथ निभाते हैं | पर कभी-कभी एक क्षण ऐसा भी आता है कि इस विवाह से जुड़े रिश्ते के साथ जीवन जीना दूभर हो जाता है ,जो पति-पत्नी कल तक एक दूसरे के सुख-दुख में एक दूसरे के साथ थे ,वे अचानक एक -दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते और एक समय ऐसा आता है कि उनका एक छत के नीचे निर्वाह मुश्किल हो जाता है ,तब सिर्फ और सिर्फ एक ही रास्ता सूझता है ,और वो रास्ता है वह है तलाक का ……! क्या आपकी शादी भी ऐसे किसी दोराहे पर खड़ी है? शायद आपके जीवन-साथी ने आपके भरोसे को तोड़ा हो या फिर बार-बार होनेवाले झगड़ों की वजह से आपके रिश्ते में पहले जैसी मिठास नहीं रही। अगर ऐसा है तो शायद आप खुद से कहते होंगे, ‘हमारे बीच अब प्यार नहीं रहा,’ या ‘हम एक-दूसरे के लिए बने ही नहीं थे’ या ‘शादी के वक्‍त हमें पता ही नहीं था कि इसमें क्या-क्या शामिल है।’ आपके मन में यह भी खयाल आता होगा, ‘शायद हमें तलाक ले लेना चाहिए।’ मेरी एक सलाह तलाक का फैसला जल्दबाज़ी में नहीं करना चाहिए। पहले इस बारे में अच्छी तरह सोच-विचार कर लीजिए। यह ज़रूरी नहीं कि तलाक लेने से आपकी ज़िंदगी में छाए परेशानी के काले बादल छँट जाएँगे। इसके उलट अकसर यह देखा गया है कि तलाक से एक समस्या तो हल हो जाती है, लेकिन उसकी जगह एक नयी समस्या खड़ी हो जाती है। मेने किसी लेखक की एक किताब में पढ़ा “जो पति-पत्नी तलाक का फैसला करते हैं वे इस कदर अपने ख्वाबों-खयालों में खो जाते हैं कि वे सोचने लगते हैं कि इससे एकदम से सारी समस्याओं का हल हो जाएगा, रोज़-रोज़ की किट-किट से हमेशा की छुट्टी मिल जाएगी, उनके रिश्ते से खटास चली जाएगी और ज़िंदगी में चैन-सुकून आ जाएगा। लेकिन यह उतना ही नामुमकिन है जितना नामुमकिन एक ऐसी शादीशुदा ज़िंदगी जीना जिसमें खुशियाँ ही खुशियाँ हो।” इसलिए यह जानना ज़रूरी है कि तलाक लेने के क्या-क्या नतीजे हो सकते हैं और उन्हें ध्यान में रखकर फैसला लेना चाहिए । “चतुर मनुष्य समझ बूझकर चलता है।” मेरी आज तक जितने भी तलाकशुदा व्यक्ति या महिला से बात हुई उन्होंने यही कहा तलाक लेकर उन्होंने गलत फैसला किया है ।शादी टूटने पर अकसर पत्नी को भयंकर आर्थिक समस्या से जूझना पड़ता है ! क्योंकि उन्हें बच्चों की देखभाल करनी होती है, नौकरी ढूँढ़नी होती है, साथ ही तलाक की वजह से मानसिक तनाव से भी गुज़रना होता है।”लोग तलाक तो ले लेते हैं, पर अकसर यह नहीं सोचते कि इसका बच्चों पर क्या असर होगा। मगर तब क्या अगर माता-पिता की आपस में बिलकुल नहीं बनती? ऐसे हालात में, क्या तलाक लेना वाकई “बच्चों की बेहतरी” के लिए होगा? हाल के कुछ सालों में लोगों ने इस विचार पर सवाल उठाए हैं, खासकर तब जब छोटी-छोटी बातों पर तलाक लिया जाता है।“जिन लोगों की शादीशुदा ज़िंदगी खुशहाल नहीं है, उन्हें यह जानकर ताज्जुब होगा कि बच्चों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वे अपने में खुश रहते हैं। जब तक परिवार एक-जुट रहता है, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि मम्मी-पापा अलग-अलग सो रहे हैं।” यह बात सच है कि अकसर बच्चों को पता होता है कि उनके मम्मी-पापा के बीच झगड़ा चल रहा है और इसका बच्चों के कोमल दिल और दिमाग पर बुरा असर हो सकता है। मगर यह सोचना की तलाक लेना बच्चों के लिए अच्छा रहेगा बिलकुल गलत है। हमारे समाज में आज भी तलाक़शुदा स्त्री-पुरुष को इज्जत की दृष्टि से नहीं देखा जाता | जहां तक मेरा मानना है कि कोई भी स्त्री तब तक अपना संबंध बचाती है जब तक की एकदम से असहनीय न हो जाए | तलाक की बात करना जितना आसान लगता है वास्तव में यह उतना ही कठिन व तकलीफ़देह होता है | तलाक की प्रक्रिया इतनी जटिल व लंबी होती है कि व्यक्ति मानसिक रूप से टूट जाता है ,और इसका सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव तो बच्चों पर पड़ता है ,अगर बच्चे नहीं भी हैं तो भी वह सामाजिक उपेक्षा का भी कारण बनता है | ऐसे में प्रयास तो यही करना चाहिए की आपसी सूझबूझ व सहयोग से झगड़ों का निबटारा कर लिया जाए | लेकिन कई बार स्थिति बेकाबू हो जाती है और उन परिस्थितियों में तलाक ही उचित व अंतिम विकल्प बच जाता है | जहां एक ओर स्त्रीयों ने पढ़-लिख कर अपना एक अलग मुकाम बनाया है तो जाहीर है उनकी सोच में भी बहुत अंतर आया है ,वही दूसरी ओर पुरुष आज भी स्त्री को उसी परंपरा के घेरे में देखना चाहता है ,जो तलाक का सबसे बड़ा कारण बनता है | तलाक़शुदा स्त्री-पुरुष को समाज में आज भी उपेक्षित नजरों से देखा जाता है ,और तलाक के बाद कोई जरूरी नहीं कि दुबारा सब अच्छा ही हो | पीहर में ऐसी स्थिति हो जाती है की "धोबी का गधा घर का न घाट का" कई बार तो स्थिति पहले से भी बदतर हो जाती है ,,ऐसे में बेहतर तरीका तो यही है कि थोड़ा सा संयम और धैर्य से वैवाहिक जीवन बचाया जाए ताकि एक स्वस्थ समाज व स्वस्थ परिवार की रचना हो | आज के तेजी से बदलते परिवेश में करीब-करीब रोज ही अनगिनत शादियाँ तलाक की बलि चढ़ रही हैं ,इसका सबसे बड़ा कारण रिश्तों में धैर्य एवं सहनशीलता का अभाव है | तलाक लेना मानसिक व सामाजिक पीड़ा के साथ-साथ खर्चीला भी है और तलाक की प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि उसके बाद जीवन जीने का उत्साह ही क्षीण हो जाता है | पर विडंबना यह है कि इतनी सारी दिक्कतों के बाद भी आज हमारे समाज में तलाक के केस सबसे ज्यादा हो रहे हैं !
उत्तम जैन (विद्रोही )
uttamvidrohi121@gmail.com
mo-8460783401

रविवार, 17 जुलाई 2016

बुढ़ापा क्यू है बेसहारा -


                                  -बुढ़ापा क्यू है बेसहारा -
आजकल सीनियर सिटिजंस को मुख्यत: 3 तरह की समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं। एक कोशिश बुढ़ापे को करीब से जानने की बुढ़ापे का एक सच यह है कि उस व्यक्ति ने जो सीखा हुआ है उसे वह भूल नहीं सकता और नई चीजें वह सीख नहीं सकता। यानी उसे पिछले सीखे हुए से ही काम चलाना पड़ता है। सीनियर सिटिजंस की मौजूदा हालत के लिए अगर कोई एक बात जिम्मेदार है, तो वह है इस देश का इतिहास। हमारे देश का जन्म ही कुछ इस तरह हुआ कि इसकी कई समस्याओं का कोई समाधान नहीं दिखता। यहां कभी मनुष्य के जीवन को महत्व नहीं दिया गया ! वृद्धावस्था उस अवस्था को कहा गया है जिस उम्र में मानव-जीवन काल के समीप हो जाता है। वृद्ध लोगों को विविध प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोग लगने की अधिक सम्भावना होती है। उनकी समस्याएँ भी अलग होती हैं। वृद्धावस्था एक धीरे-धीरे आने वाली अवस्था है जो कि स्वभाविक व प्राकृतिक घटना है।मैं मानता हूं कि नई पीढ़ी का जीवन बहुत फास्ट हो गया है, लेकिन बावजूद इसके वे अपने पसंदीदा काम के लिए टाइम तो निकाल ही लेते हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि वे समय की कमी के कारण सीनियर सिटिजंस की देखभाल नहीं कर पाते। दरअसल नई पीढ़ी आत्मग्रस्त होती जा रही है। बसों में वे सीनियर सिटिजंस को जगह नहीं देते। बुजुर्ग अकेलापन झेल रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ी उन्हें लेकर बहुत उदासीन हो रही है , मगर हमें भी अब इन्हीं सबके बीच जीने की आदत पड़ गई है। सीनियर सिटिजंस की तकलीफ की एक बड़ी वजह युवाओं का उनके प्रति कठोर बर्ताव है। लाइफ बहुत ज्यादा फास्ट हो गई है। इतनी फास्ट की सीनियर सिटिजंस के लिए उसके साथ चलना असंभव हो गया है। एक दूसरी परेशानी यह है कि युवा पीढ़ी सीनियर सिटिजंस की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं- घर में भी और बाहर भी। दादा-दादियों को भी वे नहीं पूछते, उनकी देखभाल करना तो बहुत दूर की बात है। जिंदगी की ढलती साँझ में थकती काया और कम होती क्षमताओं के बीच हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का सबसे बड़ा रोग असुरक्षा के अलावा अकेलेपन की भावना है वृद्ध का शाब्दिक अर्थ है बढ़ा हुआ, पका हुआ, परिपक्व। वर्तमान सामाजिक जीवन-शैली में वृद्धों के कष्टों को देखकर मन में हमेशा ही अनिर्णय भरा प्रश्न बना रहता है कि बुढापा एक अभिशाप है या वरदान? हमारी संस्कृति और आदर्शों के आधार पर आज की सभ्यताओं को ध्यान में रखकर देखा जाय तो आयास ऐसा लगता है कि खैर, जो भी हो, वह तो ईश्वर का अवदान है। बुढ़ापा जब दस्तखत देता है, तब यौवन का उन्माद मद्धिम पड़ जाता है। शेर भी खरगोश बन जाता है। जीवन के राग-रंग, आकर्षण-विकर्षण के साथ ही जीने का उद्देश्य ही बदल जाता है। बुढ़ापें में बिस्तर पर लटेते ही नींद आ जाती है। करवट बदलते ही टूट जाती है।सौभाग्य से मुझे वृद्धों का सानिध्य मिला है। साथ-ही-साथ जीवन के कटू सत्यता को भी उनसे सुना है। मैंने पाया है कि बुढ़ापे में हमारे ये आदरणीय जन एक पावन ज्ञान-स्रोत हो जाते हैं। अनुभव की किताब को पढ़ चुकने वाले हमारे बुजुर्गों का मन बीते हुए यादों में गोता लगाता रहता है। वे कभी जीवन से उबे हुए लगते हैं तो कभी आसक्ति में डूबे हुए लगते हैं। कभी वैराग्य का मूर्त रूप नज़र आते हैं तो कभी तो उनके लिए आगे का रास्ता ही नहीं दिखता है। कभी उनके लिए अकूत अर्थ का कोई अर्थ नहीं होता तो कभी वे व्यर्थ में हताश से लगते हैं। लगता है कि उन्होंने जीने का सामर्थ्य ही खो दिया है। हमारे समाज में अनेक उदाहरण मिल जाते हैं, जिससे कि पता चलता है कि अगर ये बूढ़े नहीं होते तो हमारा जीवन और कितना बोझिल हो जाता। हमारा समाज अपने वृद्धों को भले ही बोझ समझता है, उनके सानिध्य को डरावना अनुभव करता है लेकिन हम उनकी कुर्बानियों को कैसे भूल जाते हैं? वे तो अपने उम्र के पड़ाव में अपनी ही औलाद की सेवा-भाव को एक अनुकंपा समझते हैं। बुढ़ापे में लगी चोट तो बड़ी ही घातक होती है। उनकी संतानें जब उन्हें भूल जाती हैं तो जाने-पहचाने चेहरे भी अजनबी से नज़र आने लगते हैं। जब वृद्धों की इंद्रियाँ भी साथ छोड़ देती हैं तब वे चारों ओर से असहाय अनुभव करने लगते हैं। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति तो हमेशा यह स्मृति रखना चाहिए कि यह कहानी हर एक के जिंदगी मे दोहरायी जाती है। जानते सब हैं, परन्तु मानता कोई नहीं। सभी को चिर यौवन चाहिए। हम सभी को उम्र के उस पड़ाव से गुजरना है, लेकिन सभी उस उम्र के मुसाफिरों के दूर रहना चाहते हैं। हम सभी को समझना चाहिए कि बुढ़ापा अभिशाप या वरदान नहीं है, यह तो उम्र की छेड़खानी है। ईश्वर का अवदान है। किसी कवि की कुछ लिखी पंक्तियाँ –
जि़न्दगी एक कहानी समझ लिजिए।
दर्द की लन्तरानी समझ लिजिए।
चेहरे पर खींचे ये आक्षांश-देशान्तर
हाय रे विडम्बना! नगरों, महानगरों में ही नहीं, गाँवों-देहातों में भी लोगों मेला-बाजार में भी वृद्धों के साथ नहीं जाना चाहते। पार्टियों के उमंग, पर्यटन के उल्लास या पिकनिक के जोश में वृद्धों को अचानक सामने आ गये खतरनाक मोड़ का ब्रेकर समझ कर घर पर ही छोड़ दिया जाता है। ऐसे में घर की देखभाल और दो जून की रोटी तक सीमित बच्चों को पारिवारिक सहयोग मिलना चाहिए। उन्हें आध्यात्मिकता की ओर जबरन जाने के लिए नहीं बाध्य करना चाहिये। जिनके लिए उनकी संतति ही भागवान है, उनका मन किस भगवान में रमेगा भला? ऐसे में घर के प्रत्येक सदस्य को चाहिये की वृद्धों को संवेदनाओं से जोड़े रखा जाए। उनके रोटी, कपड़ा, मकान और स्वास्थ्य का निरन्तर देखभाल करना चाहिए। स्वास्थ्य एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों में उनकी सहभागिता लेनी चाहिए। वृद्ध अनुभव के अथाह समुद्र होते हैं। 1990-92 के दौर में ही संयुक्त राष्ट्र महासभा में वृद्धों के पक्ष में अनेक सिद्धान्तों को पारित किया जा चुका है, परन्तु समस्या गहराती ही जा रही है।उपेक्षित, बहिस्कृत तथा कटूक्तियों से बिध-बिध कर जीने को विवश होते हैं। वैसे देखा जाए तो वृद्धों को लेकर ये समस्याएँ अचानक नहीं हुई हैं, यह सब तो आधुनिक उपभोक्ता वाद तथा सामाजिक क्षरण का परिणाम है। नई पीढ़ी की परिवर्तित सोच का परिणाम है। सामाजिक स्थिति के दौड़ का परिणाम है। भौतिक सम्पदाओं के भूख का परिणाम है। पारिवारिक संकीर्णता का परिणाम है। व्यक्तिगत जीवन-शैली का परिणाम है। सामाजिक विघटन का परिणाम है। आज का अधिकांश युवा-वर्ग यह भ्रम पाल लेता है कि संयुक्त परिवार व्यक्तिगत उत्थान में बाधक है। पारिवारिक रिश्तों में रहने पर व्यावसायिक वृद्धि नहीं हो सकती। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वहित से प्रभावित होकर मानवीय संवेदना को लकवा मार गया है। दिन-पर-दिन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। रिश्ते-नाते उपेक्षित अस्पताल में पड़ा अपनी अंतिम साँसें गिनता कोई असाध्य रोगी हो गया है। हमारा पालन-पोषण करने वाला वृद्ध दुख भोगकर जीवन जीने को बाध्य हो जाता है। हमें किसी भी परिस्थिति में निरन्तर यह प्रयास करना चाहिए कि किसी को भी वृद्धावस्था में सामाजिक उपेक्षा का दर्द नहीं अनुभव करना पड़े। वृद्ध तो अपने चिड़चिड़े जीवन को जीने के लिए विवश हैं। कुछ भी हो, हमें उनका आदर करना चाहिए। वृद्धाश्रम इसका कभी हल नहीं है। वृद्धाश्रम भले ही सेवा भाव से प्रारंभ किये जाते हैं, लेकिन उनका वर्तमान स्वरूप अर्थ-भाव हो गया है। वृद्धाश्रम आज मात्र पैसे वालों के लिए ही मृत्यु का प्रतीक्षालय बना हुआ है। धिक्कार है उस मानवता को जो वृद्धों का तिरस्कार करता है। पशु से भी गिरा है वह व्यक्ति जो अपने घर के वृद्धों को कभी बधुआ मजदूर तो कभी बोझ समझता है। यदि परिवार के वृद्ध कष्टपूर्वक एवं रुग्णावस्था में जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो धिक्कार है उस घर को। उस मानवता को और सामाजिक सोच को। आज के युवक भले ही नित-नूतन लक्ष्य को पाने में लगे हैं, लेकिन जीवन के अंतिम पड़ाव पर पड़े वृद्धों की सेवा करना भी युवाओं का ही पुनीत कर्त्तव्य है। वृद्धों का सानिध्य किसी अछूत बीमारी का आमंत्रण नहीं, आंतरिक शुचिता का अनुष्ठान है। वृद्धजन अपने अनुभव से हमारे साहस और संघर्ष के साथ ही हमारे पुरुषार्थ को बढ़ाते हैं। जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का दर्पण दिखाकर हम पर ज्ञान की वर्षा करते हैं। हम में विनम्रता को बीज बोकर यश से सम्मान योग्य बनाते हैं। नित्य बड़ों की सेवा और प्रणाम करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल में निरंतर वृद्धि होती है।हमें अपने घर के वृद्धों के लिए प्रयास करना चाहिये कि वे दुखी न रहें। उन्हें जो सुख देना है, इस जीवन में देने का प्रयास करना चाहिए। घर में प्रवेश करते ही एक क्षण उनके पास बैठकर उनका हाल पूछ लेना करैले के स्वाद से नहीं भरेगा, मधु का अनुभव देगा। उठते समय उनके हाथ में डंडा पकड़ा देना हमेशा ही आशीष का काम करेगा। चश्मा टटोलते हाथों को जब हम सहारा देकर वॉशरूम ले जायेंगे तो उन्हें अपने अंधे होने का कष्ट ही नहीं रहेगा। तब किसी के लिए भी वृद्धावस्था बोझ नहीं, वरदान बन जायेगा। तब वृद्धों को तो आन्तरिक आह्लाद होगा ही, हमारा मन भी अनेक तनावों से मुक्त हो जायेगा। हम स्वयं को सबल अनुभव करेंगे और वृद्धों के उस अव्यक्त आशीष के दम पर जीवन की किसी भी परिस्थिति से दो हाथ करने को तैयार रहेंगे।
उत्तम जैन (विद्रोही )
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