गुरुवार, 30 जून 2016

धन ओर शांति -

धन ओर शांति -
विश्व में यद्यपि धन का अभाव नहीं है, किंतु शांति का अभाव अवश्य है। धनोपार्जन के लिए इतनी अधिक जनशक्ति को दिग्भ्रमित किया जा रहा है कि सामान्य जनता की रुपये कमाने की क्षमता अधिकाधिक
विश्व मे यद्यपि धन का अभाव नहीं है, किंतु शांति का अभाव अवश्य है। धनोपार्जन के लिए इतनी अधिक जनशक्ति को दिग्भ्रमित किया जा रहा है कि सामान्य जनता की रुपये कमाने की क्षमता अधिकाधिक बढ़ गई है, किंतु इसका दीर्घकालीन परिणाम यह हुआ है कि इस अनियंत्रित और अन्यायपूर्ण मुद्रास्फीति से पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई है और उसने ऐसे सस्ते धनोपार्जन के फल को ही नष्ट करने के लिए हमें बड़े-बड़े भारी लागत के शस्त्रस्त्र बनाने के लिए उकसाया है। धनोपार्जन करने वाले बड़े देशों के नेता लोग वास्तव में शांति का अनुभव नहीं कर रहे हैं, बल्कि आणविक अस्त्रों के द्वारा आसन्न विनाश से अपनी सुरक्षा की योजनाएं बना रहे हैं। वस्तुत: इन भयंकर अस्त्रों के परीक्षण के रूप में विपुल धन-राशि समुद्र में फेंकी जा रही है। ऐसे परीक्षण न केवल भारी आर्थिक लागत पर किए जा रहे हैं, बल्कि अनेक प्राणियों के जीवन को संकट में डाल कर भी हो रहे हैं। इस प्रकार विश्व के राष्ट्र कर्मफल के नियमों से बंधते जा रहे हैं। जब लोग इंद्रियतृप्ति की भावना से प्रेरित होते हैं तो जो भी धन कमाया जाता है वह नष्ट हो जाता है, धन-संपदा स्वयं शांति और संपन्नता लाने के बजाय विनाश का कारण बन जाएगी। इसलिए धन के इस्तेमाल के प्रति हमें अपने विवेक का परिचय देना चाहिए और यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि जो भी धन है उसका मानव कल्याण के लिए सदुपयोग हो। अगर धन के इस्तेमाल के प्रति हमारे मन के भीतर भोग की भावना होगी तो उस धन का अपव्यय ही होगा और हमारा अपना आंतरिक नुकसान भी होगा। धन का सदुपयोग ही हमारे भीतर शांति और वास्तविक सुख लाता है।---- उत्तम जैन विद्रोही 

मंगलवार, 28 जून 2016

महिलाओं के संस्कारी होने की मांग करना क्या स्त्रीयों की स्वतंत्रता में बाधक है ??

 महिलाओं के संस्कारी होने की मांग करना क्या स्त्रीयों की स्वतंत्रता में बाधक है ??

मानव जाति के इतिहास में विभिन्न प्रकार की विभिन्नता की कहानी जुड़ी हुयी है, इस इतिहास में हमने बहुत प्रकार के वर्ग निर्मित किए, जैसे गरीब का, अमीर का, धन के पद के अभाव पर और आश्चर्य की बात यह है कि इस समाज ने जो स्त्री और पुरुष के बीच जो वर्ग का निर्माण किया यह एक अनोखा और अद्भुत रहा और इस भिन्नता को वर्ग बनाना मनुष्य की शेतानी कही जा सकती है। क्योंकि हजारों वर्ष पहले से ही स्त्री का शोषण का इतिहा रहा है। क्योकि पुरुष ने ही सारे कानून निर्मित किये है और शुरु से ही पूरुष शक्तिशाली था उसने स्त्री पर जो भी थोपना चाहा थोप दिया । और जब तक स्त्री पर से गुलामी नही उठती दुनिया से गुलामी नही मिट सकती चाहे कहने की बात क्यो न हो की भारत 68 साल पहले ही आजाद हो गया। ये अलग बात है कि हमारी सरकार गरीबी और अमीरी के फासले मिटाने मे सक्षम हो जाए लेकिन स्त्री और पुरुष के बीच शोषण का जाल और इनके बीच फासलो की कहानी इतनी लम्बी हो गयी है कि स्वयं स्त्री और पुरुष दोनो ही भूल गये है। पुरुष और स्त्री के बीच फासले और असमानता किस-किस रुप में खड़ी हुई है? भिन्नता सुनिश्चित  है भिन्न होनी ही चाहिए क्योंकि यही ही स्त्री,पुरुष को अलग-अलग व्यक्तित्व देते है लेकिन भिन्नता असमानता में बदल गया है। इसीलिए सारी स्त्रीयाँ भिन्नता को तोड़ने में लग गयी है ताकी वे ठीक पुरुषों जैसी दिखने लगे शायद वह इस सोच में है कि इस भाती असमानता भी टूट जाएगी धीरे-धीरे कपड़े एक जैसे होते चले गये। लेकिन कपड़ो के फासले से भिन्नता नही मिट जाएगीं यह एक गहरी बात है कपड़ो से कुछ फर्क  नही पड़ने वाला नही है क्योंकि भेद मिटाने से समाज द्वारा निर्माण किया गया स्त्री और पुरुष का वर्ग नही मिट सकता क्योकि पुरुष इस का आदि हो गया है।  भारत में आज तक स्त्री पुरुषो में बराबरी का स्तर नहीं आ पाया , स्त्रीयों को आज भी असमानता की भावना का सामना करना पड़ रहा है आज भी स्त्रीयों को समाज में दोयम दर्जे का स्थान ही प्राप्त है. अधिकाँश स्थानों पर महिलाओं का यही हाल है , महिलाओं के स्वास्थ्य एवं शिक्षा की स्थिति बहुत ही खराब है घरेलु वातावरण में रोज़ ही वो किसी न किसी दुर्व्यवहार का सामना करती ही रहती हैं. आज भी महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने में एक बड़े पुरुष वर्ग को आपत्ति है. पर बढ़ते वैश्वीकरण के दबाव में इन सब शोषित और कुपोषित मातृत्व वर्ग के बीच एक ऐसा महिला वर्ग भी उपजा जो की इन सब असमानताओ , कुपरिस्थितियो और समस्याओं से पूर्णतया मुक्त था अब इनमे भी दो तरह की महिलाए थी एक जो पारिवारिक संस्कार , सद्चरित्रता और सदभावना से ओत प्रोत थीं वही दूसरी जो की पारिवारिक संस्कार , सद्चरित्र इत्यादि बातो से पूर्णतया दूर एवं इन सुसंस्कारो को अपना बंधन मात्र मानती थी. पहला वर्ग तो अपने सदभावना  के कारण अपने अन्य शोषित बहनों के मुक्ति का मार्ग ढूढ़ने लगी और अपने परिवार को भी संस्कारी बनाये रखा अतः उन परिवार से निकलने वाले संस्कारी बालक , बालिकाए उनके सुविचारो के वाहक बन गए और महिला मुक्ति के मार्ग भी.दूसरी तरफ वे महिलाए थी जो की न तो संस्कार जानती थी न ही सद्चरित्र उनके लिए अपने संस्कृति अपनी परम्पराओं को तोड़ना ही स्वतंत्रता हो गया और ये भी आंकलन नहीं की की क्या सही है क्या गलत ? जो भी पश्चिम से मिला सब सर्वश्रेष्ठ है इस भावना से अपना विरोध और दूसरो को गले लगाने का एक नया परंपरा शुरू हो गया ये महिलाए स्वयं तो संस्कारी थी ही नहीं सो इनके बच्चे को  भी इन्ही के रास्ते पर जाना तय था.
ऐसी कुविचारी , निकृष्ट ,कुचरित्र महिलाओं ने कभी भी अपने महिला समाज का उठाने में कोई भूमिका नहीं अपनाई बल्कि अपने परिवार में असंस्कारी बालक बालिकाओं को रोपित कर समाज की स्थिति और खराब करने में जिम्मेदारी निभायी. पुरुषो से ज्यादा महिलाओं को संस्कार की जरुरत होती है पुरुषो से ज्यादा महिलाओं को नैतिक होने की जरुरत होती है, क्योकि महिलाए ही परिवार की आधार होती है. वो ही बच्चो की प्रथम गुरु होती है, वही बच्चो को संस्कारी बनाती है. और यह एक सामान्य दृष्टि की बात है की हम बहुधा देखते है की जिस घर में पिता निकृष्ट , शराबी या नीच कोटि का निकल जाता है वह यदि माता ठीक होती है तो बच्चे अपने पिता के दुर्गुणों से दूर गुणी  और बुद्धिमान ही होते है जबकि किसी परिवार के सभी पुरुष ठीक हो लेकिन महिला खराब हो गयी तो निश्चित ही उस परिवार की पूरी अगली पीढीयां खराब हो जाती है.यदि प्रकृति ने माँ को परिवार का आधार बनाया है तो , उस माँ को संस्कारी होने की मांग करना क्या स्त्रीयों की स्वतंत्रता में बाधक है ?? बहुत सारी पश्चिमी मानसिकता से ग्रसित महिलाए इसे एक घटिया सोच करार देती है और पूछती है की आखिर संस्कार की जिम्मेवारी महिलाओं पर पुरुषो से ज्यादा क्यों ?? क्या इस प्रश्न का कोई जबाब है??
जो प्रश्न प्रकृति से पूछा जाना चाहिए  वो प्रश्न ये महिलाए पुरुषो से जानना चाहती हैं.
अब कोई पुरुष यदि यह पूछे की बच्चे ज्यादा प्रेम माँ से क्यों करते है पिता से क्यों नहीं , स्नेह दिखाने की जीतनी कला स्त्रीयों को प्राप्त है उतनी पुरुषो को क्यों नहीं ??? बच्चो को गर्भ धारण करने की शक्ति सिर्फ महिलाओं को पुरुषो को क्यों नहीं ?? बच्चो के शुरूआती भरण पोषण की शक्ति केवल महिलाओ को क्यों प्राप्त है पुरुषो को क्यों नहीं ??
क्या हम प्रकृति प्रदत्त गुणों पर टकराकर कुछ प्राप्त कर सकते है?
कुछ लोगों ने कहा की स्त्रीयों को मर्यादित कपडे पहनना चाहिए मीडिया में भयंकर विरोध इस मुद्दे पर होता ही रहता है. स्त्री आखिर अपने आप को क्या समझती है यह बात हम उसके वस्त्रो से ही निर्धारित करते है , हमारे देश की परंपरा और संस्कृति में उसे भी आत्मा का दर्ज़ा प्राप्त है न की केवल नीरा शरीर का. जबकि पश्चिम में और अरब की कुसंस्कृति में उन्हें केवल शरीर का ही दर्ज़ा प्राप्त है  एक उसे दिखाने में लगा रहता है तो दूसरा उसे ढकने में. पर क्या यही सोच हमारे समाज में आज नहीं फ़ैल गयी कुछ लोग है जो पर्दा प्रथा को जारी रखना चाहते है तो कुछ उसे नग्नता के उस स्तर पर ले जाने की फिराक में है जहाँ सभ्यों का सर नीचा करके जमीन देखना ही बचाव के एक मात्र लगता है. क्या ये दोनों मार्ग उचित है??
निश्चित ही मेरे मत से नहीं …. यदि स्त्री केवल शरीर नहीं तो उसे क्यों ढकना और क्यों दिखाना? उसे मर्यादित ढंग से रहना ही चाहिए. स्त्रीयों से मर्यादित कपडे की उम्मीद करने पर , पश्चिमी विचारों से ओत प्रोत महिलाए कहने लगती हैं की ये महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन है. आखिर वो कौन सी मानसिकता है जिसके कारण महिलाए जब मर्यादित कपडे पहनती है तो उन्हें ऐसा लगता है मानो उनकी स्वतंत्रता हर ली गयी हो. क्या नग्नता के उचाई पर ही पहुच कर स्वतंत्रता का बोध हो सकता है. कुचरित्र और असंस्कारी महिलाए ही नग्नता में स्वतंत्रता का अनुभव प्राप्त करती है. इसको समझने के लिए एक उदाहरण लेते है ऐसी कल्पना करते है की एक संस्कारी परिवार की बालिका को एक अलग स्थान पर ले जाकर उसे यह कह दिया जाय की तुम जो करना चाहो कर लो जैसा पहनना चाहो पहन लो तुम्हे कोई कुछ नहीं कहेगा तो क्या वह नग्नता का प्रदर्शन करेगीक्या वो निर्लाज्ज़ता को अपना ध्येय चुनेगी?? निश्चित ही नहीं क्योकि उसके दिमाग में ये गन्दगी डाली ही नहीं गयी की स्त्री की स्वतंत्रता का मतलब नग्नता. हम पहले ये घटिया सोच बच्चो में रोपित करते है की शरीर का प्रदर्शन ही स्वतंत्रता है जिस कारण बाद में यह समस्या आती है की मर्यादित कपड़ो में महिलाओं को परतंत्रता का बोध होता है.
यदि वास्तव में भारत वर्ष में स्त्रीयों का विकास करना है तो उन्हें संस्कारी सद्चरित्र और मर्यादित बनाना ही पड़ेगा , क्योकि स्त्रीयां ही समाज की आधार है यदि उनका पतन होगा तो समाज जरुर अधोगति को प्राप्त होगा. ऐसी सोच भी हमारे सामने चुनौती बनकर खडी है जो की महिलाओं के स्वतंत्रता के मुख्य आन्दोलन को जिसमे उनको समाज में बराबरी का हक दिलाना ध्येय को खीच कर ऐसे निकृष्ट मार्ग पर ले जा रहा है जहा पर महिलाए खुद अपने आपको और ज्यादा खराब स्थिति में पाएंगी .............उत्तम जैन (विद्रोही )


समाज की परिभाषा -

मेरे विचार जरूर पढे.....
  समाज की परिभाषा -
व्यावहारिक रुप से समाज शब्‍द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है । किन्‍तु वास्‍तविक रुप से समाज मानव समूह के अन्‍तर्गत व्यक्तियों के सम्‍बंधों की व्यवस्‍था का नाम है । समाज स्‍वयं एक संघ है संगठन है, औपचारिक सम्‍बंधों का योग है । समाज के प्रमुख स्‍तम्‍भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्‍बंध पति और पत्‍नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्‍तानोत्‍प‍त्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्‍यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्‍बंधों का एक लम्‍बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानव के अतिरिक्त किसी भी प्राणी मे सम्‍बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्‍वपूर्ण इकाई है । आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्‍पत्ति के संरक्षण, वंश विस्‍तार तथा पिता के मरणोपरान्‍त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्‍यक समझा जाने लगा तथा सन्‍तान का होना भी अत्‍यावश्‍यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्‍यवस्‍था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्‍य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्‍या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्‍वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्‍तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है ।
भारतीय संस्‍कृति में नारी का परम्‍परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यन्‍ते रमन्‍ते तत्र देवता”। भारतीय संस्‍कृति इसके जननी, भगिनी, पत्‍नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्‍वजनों के निमित्‍त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्‍वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्‍मभूमिश्‍च स्‍वर्गादपि गरियसी । किन्‍तु भारतीय संस्‍कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्‍वपूर्ण माना गया है ।
प्रकृ‍ति ने नर और नारी में भिन्‍नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्‍तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्‍य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्‍य है और कठोर परिश्रम के पश्‍चात् विश्राम की आवश्‍यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्‍नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्‍नी रुप से अति निकट का सम्‍बन्‍ध है । नर-नारी सम्‍बन्‍धों का सुन्‍दर रुप दाम्‍पत्‍य जीवन है । क्‍योंकि पति-पत्‍नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्‍नी ही आदर्श भारतीय नारी है । ओर नर व नारी से हुई उत्त्पती द्वारा एक परिवार बनता है ! ओर परिवार से समाज इसलिए कहते संघम शरणम गछामी....... जहा हमे एक परिवार एक समाज मिलेगा ओर अच्छे संस्कार ............ 
उत्तम जैन विद्रोही  

धर्म -सुखी जीवन का एक मात्र आधार

 धर्म -सुखी जीवन का एक मात्र आधार


धर्म क्या है ? जीवन क्या है ? जीवन मे संघर्ष क्यू होते है ? व सुख केसे प्राप्त किया जा सकता है ! बहुत खूब सोचा व समझा ! ओर जिस निष्कर्ष पर पहुंचा अपने विचारो को आप तक प्रेषित कर रहा हु !     

जीवन का अर्थ है संघर्ष, परिस्थितियों का आरोह  जिसे परिवर्तन भी कहा जा सकता है। अर्थात् परिवर्तन ही जीवन है और जीवन ही परिवर्तन। जीवन में दैत्यता, कुटिलता के आकस्मिक एवं अप्रत्याशित आक्रमणों को सहन करना अस्वाभाविक नहीं। परेशानियों, कष्टों और आपदाओं की बाँधी आती है तो मानव शक्ति को कुण्ठित कर देती है, फलस्वरूप बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है, नैराश्य पूर्ण मानसिकता मनुष्य को किंकर्तव्यविमूढ़ बना देती है, ऐसी विषय परिस्थिति में असहाय, निस्सहाय व्यक्ति यह चिन्तन करता है कि हमारा सहायक कौन हो सकता है? हमारी रक्षा कौन कर सकता है? हमारा उद्धार कौन कर सकता है? साथ ही सत्पथ ज्ञान कोन करा सकता है? उत्तर एक ही है-धर्म। सुख-शान्ति की परिस्थितियों का जनक भी धर्म की समाप्ति हो जाएगी उस दिन सर्वनाश को कोई न रोक सकेगा। धर्म को परिभाषित करते हुए कहना ठीक होगा  कि सम्पूर्ण विश्व मेरा देश, सम्पूर्ण मानवता मेरा बन्धु है और सम्पूर्ण भलाई ही मेरा धर्म है।

वर्तमान युग में धर्म के प्रति लोगों की अनास्था बढ़ रही है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि नैतिक एवं साँस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं में भी अवमूल्यन निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इसी के कारण मनुष्य की सुख-शान्ति भंग होती जा रही है, सर्वत्र असन्तोष का वातावरण व्याप्त है।मेरी  दृष्टि में एक ही उपाय परिकरण में सहायक सिद्ध हो सकता है- धर्म। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि धर्मशास्त्रों में इसी तथ्य का निरूपण हुआ है। धर्म प्रधान युग अर्थात् सत्प्रवृत्तियों की बहुलता वाला युग सतयुगकहलाता है, सतयुग में सुख और सम्पन्नता का आधार धर्म होता है। भगवान् राज जब वन-गमन के लिए तत्पर हुए तो जीवन रक्षा की कामना से उन्होंने माता कौशल्या से आशीर्वाद की आकांक्षा व्यक्त की। विदुषी माता ने उस समय यह कहा कि-हे राम ! तुमने जिस धर्म की प्रीति और नियम का पालन किया है, जिसके अनुसरण से तुम बन जाने को तत्पर हुए हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।”“घृयते इति धर्मःअर्थात् जो धारण किया जाये वही धर्म है। धर्मशब्द ध्वैधातु से बना है जिसका अर्थ है-धारण करनाअर्थात् जो मनुष्य को धारण करे, शुद्ध और पवित्र बनाकर उसकी रक्षा करे, वही धर्म है। वास्तविक धर्म में व्यक्ति जिन तत्त्व की साधना करता है वह है परोपकार, दूसरों की सेवा, सत्य, संयम और कर्तव्य-पालन आदि। धर्मचरका अभिप्राय भी तो यही है कि सदाचरण, धर्माचरण, सत्याचरण आदि मानव जीवन में व्यावहारिक रूप पा सकें।जो व्यक्ति धर्म का पालक, पोषक होता है वही सच्चा धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी है। धर्म-निष्ठ व्यक्ति के अन्तःकरण में वह शक्ति होती है जो असंख्य विघ्न−बाधाओं, प्रतिगामी शक्तियों को पराजित कर देती है। धार्मिक मनुष्य के जीवन में एक विशेष प्रकार का विलक्षण आह्लाद भरा रहता है, वह सर्वत्र सौरभ बिखेरता चलता है, उसकी उमंग एवं उल्लास से आस-पास का वातावरण भी प्रभावित होता है। धर्म की प्रणवता निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ होती है। धर्म मनुष्य का वह अग्नि तेज है जो प्रकाश उत्पन्न करता है उसमें क्रियाशीलता एवं जिजीविषा जागृत रखता है। धर्मशील व्यक्ति विभिन्न विपदाओं, विघ्न−बाधाओं में भी हिमालय के समान अटल एवं समुद्र के सदृश धीर गम्भीर रहता है। संक्षेप में कहा जाय तो धर्म जीवन का प्राण और मानवीय गरिमा का पर्याय है उससे ही मानव जाति की सुख-शान्ति और व्यवस्था अक्षुण्ण रह सकती है।

भारतीय युवा भटकाव की राह पर .

भारतीय युवा भटकाव की राह पर .. ..
आज कल युवा वर्ग जो उच्च मध्यम वर्ग का है जो आज अपनी शिक्षा के बल पर उड़ना चाहता है । उसे परिवार से यही सीखने को मिल रहा है कि चार किताबें पढ़ कर अपने career (भविष्य ) को बनाओ, यह युवा अपनी सारी ऊर्जा केवल अपने स्वार्थ या उज्जवल भविष्य के लिए लगा देता है । यदि कभी भूले भटके उसका विचार देश या समाज की तरफ जाने लगता है तो घर परिवार और समाज उसे सब भूल कर अपने भविष्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर देता है । यह वर्ग भी अपने आप को देश और समाज से अलग ही अनुभव या यूं कहें की अपने आपको को समाज से श्रेष्ठ समझने लगता है और सामाजिक विषमता का होना उसके अहम को पुष्ट करता है ।ओर कभी आज के युवा हताशा में गलत कदम उठा लेते है !युवा वर्ग की हताशा देश का दुर्भाग्य है क्योंकि न तो इस वर्ग मे हम उत्साह भर सके न ही समाज के प्रति संवेदनशीलता । एक प्रकार से यह वर्ग विद्रोही हो जाता है समाज के प्रति, परिवार के प्रति और अंत में राष्ट्र के प्रति । क्या हमने सोचा है कि ऐसा क्यों हो रहा है मुझे लगता है इसके पीछे कई वजह है , आज दुनिया भौतिकता वादी हो गयी है और लोगो की जरूरते उनकी हद से बाहर निकल रही है इसलिए उनके अंदर तनाव और फ़्रस्ट्रेशन बढ़ता जाता है , दूसरी बात पहले सयुंक्त परिवार थे तो अपनी कठिनाइया और तनाव घर में किसी ना किसी सदस्य के साथ बातचीत कर कम कर लेते थे घर में अगर कोई अकस्मात दुर्घटना हो जाती थी तो परिवार के बीच बच्चे बड़े हो जाते थे लेकिन आज न्यूक्लिअर फैमिली हो गयी है व्यक्ति को यही समझ में नहीं आता कि अपने दुःख-दर्द किसके साथ बांटे, पुरानी कहावत है कि पैर उतने ही पसारो जितनी बड़ी चादर हो लेकिन आज दूसरो की बराबरी करने के चक्कर में हम कर्ज लेकर भी अपनी हैसियत बढ़ाने की कोशिश करते है, आज के युवा वर्ग में जोश तो है पर आज के युवा को बहुत जल्दी बहुत सारा चाहिए और वो सब हासिल ना कर पाने पर डिप्रेशन में चले जाते है मेरा तो यही मानना है कि विपरीत समय और ख़राब हालात हमें जितना सिखाते है उतना हम अच्छे समय में नहीं सीख पाते इसलिए विपरीत समय को हमेशा ख़राब नहीं मानना चाहिए बल्कि विपरीत परिस्थितियों में हमें धैर्य रखना चाहिए और अच्छे समय का इंतज़ार करना चाहिए क्योंकि जिंदगी में अगर अँधेरा आया है तो उजाला भी आएगा अगर रात हुयी है तो सुबह भी होगी .....उत्तम विद्रोही


जीवन जीने का विज्ञान-----

जीवन जीने का विज्ञान-----
प्राणों का एक ही सन्देश है, भौतिक संसार में आर्थिक प्रगति ही अध्यात्मिक विकास की, शांति, आनंद रूप परमात्मा को प्राप्त करने की सीढ़ी बन सकती है। आपसे कहता हूँ कि आप इसी जीवन में शांति, आनंद और इस संसार कि समस्त उपलब्धियों को प्राप्त करना चाहते हैं तो अपने जीवन के अनुभव किये हुए जो महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं सिर्फ सुनें ह्रदय खोलकर , ह्रदय खोलकर सुनना ही आपको सबकुछ उपलब्ध करा देगा। आपको कोई तपस्या करने के लिये नहीं कह रहा हूँ सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि आप अपने शब्दों को सुनें, अपनी दृष्टि के माध्यम से, अपने शब्दों के माध्यम से स्वयं को अपने भीतर प्रवेश करने का अवसर दें। आपको तन मन धन तीनों प्रकार का सुख, तीनों प्रकार कि उपलब्धियां प्रदान होगी इसमें कोई संदेह नहीं है। मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा दुःख है कि वह आने वाले कल और बीते हुए कल के जालों में उलझा रहता है और जिंदगी में कभी वर्तमान में जीने का आनंद नहीं ले पाता है। जिसे ऋषियों ने माया कहा है वो कोई अप्सरा नहीं है, कोई सुंदरी नहीं है जो आपको उलझाये रहती है इस भंवर में, इस दुखों के जाल में। केवल आने वाला कल यानि भविष्य और बीता हुआ कल यानि भूत, ये दोनों ही आपके जीवन की ऊर्जा को नष्ट करते हैं और आप इस जिंदगी में जिसके लिये पैदा हैं वह शांति, वह आनंद और इस रूप में साक्षात् परमात्मा को नहीं प्राप्त हो पते हैं। परमात्मा तो सदैव वर्तमान में है, आनंद सदैव वर्तमान में है। अगर तुम सिर्फ वर्तमान में आ जाओ तो तुम्हारा तार आनंद से जुड़ जाता है इसलिए दुनिया में जितने धर्म हैं सबका सार है तुम कैसे वर्तमान में जी सको; सबमें इस विधि को, इस व्यवस्था को, इस विज्ञान को देने का प्रयास किया गया है। आज मैं आपसे चर्चा करना चाहता हूँ कि वर्तमान में जीना कैसे संभव है, वर्तमान में जीने का विज्ञान क्या है और वर्तमान में जीना आपको आ जाये तो कैसे आपके जीवन में क्रांति पैदा हो जाती है और आपका जीवन ऊर्जा का पुंज बन जाता है। वर्तमान में जीना ही होश में जीना है, वर्तमान में जीना ही जागे हुए जीना है, और यही सारे धर्मों का सार है।.......
उत्तम जैन विद्रोही

सोमवार, 27 जून 2016

कडवे घूंट जीवन के ---

कडवे घूंट जीवन के ---
हमारी वर्तमान दशा व दिशा सिर्फ अपने कारण से होती है इस दशा मे मुख्य कारण एक चिंता व नकारात्मक भाव है !चिंताओं का विश्लेषण किया जाए तो ४०%- भूतकाल की, ५०% भविष्यकाल की तथा १०% वर्त्तमान काल की होती है ! इस स्वीकार भाव से ही हमारे भाव बदलने शुरू होते हैं। रोग का जन्म ही नकारात्मक भावनाओं में है । विकृत भाव व चिन्तन रोग के माता-पिता है । हम भावनाओं में जीते है । उन्हे बदल कर ही हम सुखी हो सकते है । आज अधिकतर लोग चिन्ता से चिन्तित रहते हैं। पिता को अपनी बेटी की शादी की चिन्ता है। एक गृहिणी को पूरा महीना घर चलाने की चिन्ता है। एक विद्यार्थी को अच्छे अंक प्राप्त करने की चिन्ता है। एक मैनेजर को अपने प्रोमोशन की चिन्ता है। एक व्यापारी को अपने व्यापार में लाभ कमाने की चिन्ता है। एक नेता को चुनाव से पहले वोट लेने और जीतने की चिन्ता है। किसी को अपनी सफलता की दावत देने की चिन्ता है।न जाने इंसान कितनी चिंताओ से ग्रसित रहता है लोगों ने जाने-अनजाने में अपनी जिम्मेदारी के साथ चिन्ता को भी जोड़ दिया है। क्या हर जिम्मेदारी के साथ चिन्ता का होना आवश्यक है? क्या चिन्ता किए बिना जिम्मेदारी का निभना संभव नहीं है? एक मां अपने बच्चे से कहती है, 'तुम्हारी परीक्षा सिर पर आ गई है, अब तो चिन्ता कर लो।' बच्चा शायद समझदार है। वह चिन्ता नहीं करता, पढ़ाई करता है और अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। जिम्मेदारी है पॉजिटिव और चिन्ता करना है नेगेटिव। हम जब जिम्मेदारी को निभाते हैं तो हमारी ऊर्जा पॉजिटिव काम में लगती है और हमें लाभ देती है। लेकिन जब हम चिन्ता करते हैं तो हमारी ऊर्जा नेगेटिव काम में लगती है और नष्ट हो जाती है। मान लो यदि हमारी 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता में चली जाती है तो जिम्मेदारी को निभाने के लिए कितनी बची? यदि साधारण हिसाब की बात करें तो बचती है 80 प्रतिशत। लेकिन यदि हम गहराई में जाएं तो परिणाम कुछ और ही होगा। चिन्ता है नेगेटिव और जिम्मेदारी है पॉजिटिव। जब दोनों एक साथ होंगे तो एक दूसरे की विपरीत दिशा में काम करेंगे। जिस तरह 'टग ऑफ वार' खेल में दो विभिन्न समूह एक मोटे रस्से को दो विपरीत दिशाओं में खींचते हैं तो एक समूह की सामूहिक ऊर्जा, दूसरे समूह की सामूहिक ऊर्जा के साथ बराबर हो जाती है। उसके बाद जिस समूह के पास थोड़ी ऊर्जा ज्यादा बचती है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है और वह विजयी घोषित किया जाता है। इसी तरह चिन्ता और जिम्मेदारी के मध्य भी चलता है 'टग ऑफ वार'। यदि 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता के पास है तो उसे बराबर करने के लिए 20 प्रतिशत ऊर्जा जिम्मेदारी की ओर से खर्च करनी होगी। इस तरह हमारे पास जिम्मेदारी निभाने के लिए बचती है सिर्फ 60 प्रतिशत ऊर्जा। जितनी ऊर्जा हम लगाएंगे, परिणाम भी वैसे ही आएंगे। 100 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम अधिक और अच्छे होंगे और 60 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम कम ही होंगे। लेकिन लोगों को लगता है कि काम चल जाएगा। यदि हमारी 50 प्रतिशत ऊर्जा चली गई चिन्ता की ओर तो चिन्ता शेष 50 प्रतिशत ऊर्जा भी खींच लेगी जिम्मेदारी से। और इस तरह हमारे पास अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कोई ऊर्जा बचेगी ही नहीं। जब ऊर्जा न हो तो अच्छा से अच्छा उपकरण भी काम नहीं कर पाता। फिर हमारा दिमाग भी बिना ऊर्जा के काम कैसे कर सकता है। हम बहुत छोटी-छोटी जिम्मेदारियां भी नहीं निभा सकते और स्वयं से कहते हैं, 'ये मुझे क्या हो गया है, मेरा दिमाग ही काम नहीं कर रहा।' चिन्ता हमारी ऊर्जा को नष्ट कर देती है, जिससे हम अपनी जिम्मेदारी को निभाने में अपने आप को असमर्थ महसूस करते हैं। हम अपनी जिम्मेदारी से नाता नहीं तोड़ सकते। हमें अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए ऊर्जा चाहिए। इसलिए यह हमारी सबसे बड़ी जरूरत है कि हम अपनी ऊर्जा को चिन्ता में नष्ट होने से रोकें। हमें चिन्ता न करने का अभ्यास करना है। लेकिन कोई भी अभ्यास करने के लिए आवश्यक है अभ्यास करने का अवसर। प्रतिदिन हमारे पास अनगिनत समस्याएं आती हैं, जिनके लिए हम चिन्ता करते हैं। तो हर समस्या आने पर स्वयं से बात करें कि चिन्ता करने पर मेरी मूल्यवान ऊर्जा नष्ट हो रही है, जो मुझे नहीं करनी। सिर्फ अपने मन को इस बात की याद दिला कर भी हम अपनी काफी ऊर्जा नष्ट होने से बचा सकते हैं।
यदि आप चिन्ता मुक्त होना चाहते है तो आपको सकारात्मक विचारों को अपने जीवन में लाना पड़ेगा । चिन्ता जन्मजात नहीं होती है । ये एक आदत है जो पड़ जाती है । जब हम इस आदत को मजबूत बना लेते है तो इसको तोड़ना मुश्किल पड़ जाता है । यदि हमको पता चल जायें कि चिन्ता से डर का जन्म होता है और डर एक बहुत भयानक वस्तु है जो आपको मुर्त्यु का ग्रास बना सकती है!
उत्तम जैन (विद्रोही )

शनिवार, 25 जून 2016

पति पत्नी व पारिवारिक क्लेश -

पति पत्नी व पारिवारिक क्लेश -
रोज़-रोज़ ऐसे ही झगड़े होते रहते हैं, फिर भी पति-पत्नी को इसका हल निकालने को मन नहीं करता, यह आश्चर्य है न?
यह सारा लड़ाई-झगड़ा खुद की गरज से करते हैं। यह जानती है कि आ़खिर वे कहाँ जानेवाले हैं? वह भी समझता है कि यह कहाँ जानेवाली है? ऐसे आमने-सामने गरज से टिका हुआ है।
विषय में सुख से अधिक, विषय के कारण परवशता के दुःख है! ऐसा समझ में आने के बाद विषय का मोह छूटेगा और तभी स्त्री जाति (पत्नी) पर प्रभाव डाल सकेंगे और वह प्रभाव उसके बाद निरंतर प्रताप में परिणमित होगा। नहीं तो इस संसार में बड़े-बड़े महान पुरुषों ने भी स्त्री जाति से मार खाई थी। वीतराग ही बात को समझ पाए! इसलिए उनके प्रताप से ही स्त्रियाँ दूर रहती थीं! वर्ना स्त्री जाति तो ऐसी है कि देखते ही देखते किसी भी पुरुष को लट्टू बना दे, ऐसी उसके पास शक्ति है। उसे ही स्त्री चरित्र कहा है न! स्त्री संग से तो दूर ही रहना और उसे किसी प्रकार के प्रपंच में मत फँसाना, वर्ना आप खुद ही उसकी लपेट में आ जाएँगे। और यही की यही झंझट कई जन्मों से होती आई है।
स्त्रियाँ पति को दबाती हैं, उसकी वज़ह क्या है? पुरुष अति विषयी होता है, इसलिए दबाती हैं। ये स्त्रियाँ आपको खाना खिलाती हैं इसलिए दबाव नहीं डालतीं, विषय के कारण दबाती हैं। यदि पुरुष विषयी न हो तो कोई स्त्री दबाव में नहीं रख सकती! कमज़ोरी का ही़ फायदा उठाती हैं। यदि कमज़ोरी न हो तो कोई स्त्री परेशानी नहीं करेगी। स्त्री बहुत कपटवाली है और आप भोले! इसलिए आपको दो-दो, चार-चार महीनों का (विषय में) कंट्रोल (संयम) रखना होगा। फिर वह अपने आप थक जाएगी।
गृह कलह- आज जिधर भी दृष्टि डालिए लोग पारिवारिक जीवन से ऊबे, शोक- सन्ताप में डूबे, अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। बहुत ही कम परिवार ऐसे होंगे जिनमें स्नेह- सौजन्य की सुधा बहती दिखाई पड़े, अन्यथा घर- घर में कलह, क्लेश, कहा- सुनी, झगड़े- टंटे, मार- पीट, रोना- धोना, टूट- फूट, बाँट- बटवारा और दरार, जिद फैली देवर- भौजाई यहाँ तक कि पति- पत्नी तथा बच्चों एवं बूढ़ों में टूट- फूट लड़ाई- झगड़ा, द्वेष- वैमनस्य तथा मनोमालिन्य उठता और फैलता दिखाई देता है। आज का पारिवारिक जीवन जितना कलुषित, कुटिल और कलहपूर्ण हो गया है कदाचित् ऐसा निकृष्ट जीवन पहले कभी भी नहीं रहा होगा।
अपने पैरों खड़े होते ही पुत्र असमर्थ माता- पिता को छोड़ कर अलग घर बसा लेता है। भाई- भाई की उन्नति एवं समृद्धि को शत्रु की आँखों से देखता है। पत्नी- पति को चैन नहीं लेने देती। बहू- बेटियाँ, फैशन प्रदर्शन के सन्निपात से ग्रस्त हो रही हैं। छोटी संतानें जिद्दी, अनुशासनहीन तथा मूढ़ बनती जा रही हैं। परिवारों के सदस्यों के व्यय तथा व्यसन बढ़ते जा रहे हैं। कुटुम्ब कबीले वाले कौटुम्बिक प्रतिष्ठा को कोई महत्व देते दृष्टिगोचर नहीं होते। निःसन्देह यह भयावह स्थिति है। परिवार टूटते, बिखरते जा रहे हैं। चिन्तनशील सद्गृहस्थ इस विषपूर्ण विषम स्थिति में शरीर एवं मन से चूर होते जा रहे हैं। गृहस्थ धर्म एक पाप बनकर उनके सामने खड़ा हो गया है। अनेक समाज हितैषी, लोकसेवी, परोपकार की भावना रखने वाले सद्गृहस्थ इस असहनीय पारिवारिक परिस्थिति के कारण अपने जीवन लक्ष्य की ओर न बढ़ सकने के कारण अपने दुर्भाग्य को धिक्कार रहे हैं। जरूरत है संयम के साधना की , अपने इगो (घमंड ) से दूर होने की , एक समर्पण की ........ देखो परिवार एक सुंदर सी बगिया के रूप मे निखर जाएगा
उत्तम जैन (विद्रोही )