शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

सुख ओर दुख के दिन

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
कटते हैं दुख में ये दिन, पहलू बदल बदल के
रहते हैं दिल के दिल में, अरमाँ मचल मचल के
कटते हैं ...!
तड़पाएगा कहाँ तक, ऐ ददर्\-ए\-दिल बता
रुसवा कहीं न कर दें, आँसू निकल निकल के
कटते हैं ...!
ये ख्वाब पर जो चमके, ?
फेंका गया है दिल का, गुँचा कुचल कुचल के
कटते हैं ...!
उल्फ़त की ठोकरों से, आखिर न बच सका दिल
आखिर न बच सका दिल
जितने कदम उठाए, हमने सम्भल सम्भल के
कटते हैं ...!
 आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वही व्यक्ति समझदार और सफल है, जिसे इस प्रश्न का उत्तर हमेशा मालूम रहता है। समझदार व्यक्ति जानता है कि वर्तमान समय कैसा चल रहा है। अभी सुख के दिन हैं या दुख के। इसी के आधार पर वह कार्य करता हैं। यदि सुख के दिन हैं तो अच्छे कार्य करते रहना चाहिए और यदि दुख के दिन हैं तो अच्छे कामों के साथ धैर्य बनाए रखना चाहिए। दुख के दिनों में धैर्य नही खोना चाहिए ! दुख के बाद सुख आना ही है अगर आपने दुख के दिनो मे धेर्य बनाए रखा ! एक कहानी के माध्यम से आपको कहना चाहूँगा ..
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यह कहानी है दो पानी के दो पात्र "घडे" की, एक घड़े का नाम सुखिया और दूसरे घड़े का नाम दुखिया था, दोनों घड़े एक ऋषि के आश्रम मे पानी भरने के काम आते थे, और आश्रम के ऋषि दोनों घड़ो को रोज़ साफ करते और नदी पे जा कर उसमे पानी भर के लाते, भगवान की आराधना करने वाले महात्मा ऋषि मुनि ओ के काम आने से दोनों ही घड़े काफी गर्व महेसूस करते थे, और अपना कर्तव्य यानि के पानी को अपने मे समा कर रखना, बड़े लगन से करते थे, कुछ समय बीतने के बाद सुखिया और दुखिया मे से दुखिया नाम का घड़ा थोड़ा टूटफूट जाता है, और उसमे से थोड़ा थोड़ा पानी टपक ने लगता है, अपनी इस हालत से दुखिया काफी दुखी हो जाता है, पर फिर भी अपना काम पूरी ईमानदारी से जारी रखता है, रोज़ नदी पे दोनों घड़े ले जाए जाते एक घड़ा पूरा भरा हुआ आश्रम मे लौटता जबकि दूसरा घड़ा दुखिया आधा टपक जाता, और आधा ही भरा हुआ आश्रम लौट पाता, ऋषि ने दुखिया नाम के घड़े का उपचार भी किया पर एक दो दिनो मे फिर से वो टपकने लगता, अपनी इस हालत से उदास हो कर दुखिया घड़ा रोने लग जाता है, और खुद को बेकार और कमजोर महेसूस करने लगता है, पास मे बैठा सुखिया घड़ा भी दुखिये घड़े को सांत्वना देता है, पर फिर भी दुखिया घड़ा विलाप करता रहेता है, एक दिन रात को आश्रम के ऋषि पानी पीने को उठते है, तो देखते है के दुखिया घड़ा फुट फुट के रो रहा होता है, यह देख कर ऋषि उस घड़े को दुखी होने का कारण पूछते है, तब दुखिया घड़ा अपने मन की पूरी व्यथा सुना देता है, और खुद को तोड़ कर फेक देने के लिये ऋषि को कहेता है, ऋषि दुखिये घड़े की पूरी बात सुन कर मुस्कुरा देते है, और उसे अपने साथ आश्रम के बाहर ले आते है, और गुरु ज्ञान देते है, ऋषि कहेते है, के तुम अपने अंदर पूरा पानी नहीं समा पाते इस लिए दुखी नहीं हो, पर तुम्हारा साथी घड़ा सुखिया अब भी पूरा घड़ा पानी ला सकता है और तुम नहीं ये दुख तुम्हें ज़्यादा सता रहा है शायद, इस लिए दूसरों की बराबरी कर के खुद को कोसना छोड़ देना चाहिये तुम्हें, दूसरी बात यह के तुम ने अपनी नाकामियाबी और कमी तो देख ली, पर कामयाबी और खासियत नहीं देखि, जेसे के नदी से आते वक्त जहा जहा तुम मे से पानी गिरा वहा वहा छोटे छोटे पौधे उग आये है, और ये पोधे कल पैड बन कर पर्यावरण को सुद्ध रखेगे, और एक पौधे या पैड से लाखो करोड़ो नन्हें जीव जन्तु अपना भोजन पाते है, और उसमे अपना घरौंदा बनाते है, और तुम्हारा गिरा हुआ पानी ज़मीन पर या ज़मीन के अंदर रेंग ने वाले जीवो को भी तो ठंडक दे गया, या उसकी प्यास बुजाने के काम आ गया, इस लिए हे दुखिये घड़े शोक का त्याग करो और अपनी शक्ति अनसार कर्म अच्छा कर्म कर के अपना जीवन-काल बिताओ,
उत्तम जैन (विद्रोही )

रविवार, 25 सितंबर 2016

परिवार की खुशिया – समर्पण


परिवार की खुशिया – समर्पण-------
अहंकार है सर्वनाश का द्वारा -----
आज तक मेरे मुताबिक परिवार हर ख़ुशी और गम बाँटने , अच्छे और बुरे की पहचान कराने वाला होता था ! लेकिन अब विचार पूरी तरह बदल चुके है । कहते थे परिवार सुशिक्षित हो ओर परिवार पढ़ा लिखा हो तो हर परेशानी से मुक्त हुआ जा सकता है ! लेकिन अब समय बदल गया है अब तो परिवार ही परेशानी बन जाता है । ओर उसमे सबसे अहम रोल अदा करता अहंकार ! जब अहंकार परवाने चढता है! तब सोचने की शक्ति क्षीण हो जाती है ! जब सब सिर्फ अपने बारे में सोचते है किसी को मुझसे कोई लेना देना नहीं है बस सबको अपनी पड़ी है । जब स्वयं अपने खुशियो के लिए जीना चाहता है लेकिन परिवार की खुशियो को नही चाहते है कहते है क्या मेरी यही ज़िंदगी है ? असली वजह तो कुछ और ही है वो है उनकी सामंतवादी मानसिकता है , मै सोचता हु हर काम घरवालो की मर्जी से सबके सन्मान के साथ और ईमानदारी से करना चाहिए ! लेकिन उनकी सामंतवादी मानसिकता और स्वार्थ की वजह से लेकिन पत्थर तो पत्थर ही होता ! आज परिवार के सदस्यो को ख़ुशी और भविष्य से कोई लेना देना नहीं है उन्हें तो बस अपनी पड़ी है !अपने घमंड व अहंकार रूपी चादर को कोई हटाना नही चाहता ! स्वयं के अहंकार को कम करना जेसे खुद को बोना समझते है ! स्वयं की खुशिया सर्वोपरि समझने लगते है लगता है की कैसे भी मुझे इनसे आजादी मिल जाए ताकि मै जिन्दगी में कुछ कर सकूं आगे बढ़ सकूं जितना आगे बढ़ने के प्रयास करता/ करती हूँ उतना ही मेरा परिवार मुझे पीछे की और धकेलता जाता है । अब तो परिवार से और इस शब्द से ही नफरत हो गई है। पता नहीं कब मुझे आजादी मिलेगी या फिर इनकी कैद में मेरा भविष्य यूँ ही बर्बाद हो जाएगा। यही संकीर्ण मानसिकता आज हर व्यक्ति के जेहन मे बस चुकी है ! यही है पारिवारिक विनाश का मुख्य कारण ! लेकिन किस्मत भी मेरा साथ नहीं देती ओर कटु सत्य है परिवार दूर होकर जीवन मे न खुशी मिल सकती है ओर न ही उन्नति ओर न ही सपने साकार हो सकते है किस्मत का साथ तो दूर की बात है ! चंद वर्षो की ज़िंदगी यूंही बिखर जाती है मिलता है सिर्फ अफसोस जब समय निकल जाता है ! अपने भीतर मौजूद सीमाओं को समझने के लिए परिवार एक अच्छी जगह है। परिवार में रहकर आप अपनी ट्रेनिंग कर सकते हैं। परिवार के साथ रह कर आप कुछ लोगों के साथ हमेशा जुड़े रहते हैं, जिसका मतलब है, आप जो कुछ भी करते हैं, उसका एक दूसरे पर असर जरुर पड़ता है। ऐसा हो सकता है कि उनके कुछ काम या आदतें आपको पसंद न हो, फिर भी आपको उनके साथ रहना पड़ता है। यह आपके फेसबुक परिवार की तरह नहीं है जिसमें आपने 10,000 लोगों को जोड़ तो रखा है, लेकिन अगर आप किसी को पसंद नहीं करते, तो आप एक क्लिक से उसे बाहर कर सकते हैं। या व्हट्स अप नही की जब चाहा आपको आचरण अच्छा नही लगा ब्लॉक कर दिया अपनी पसंद-नापसंद से ऊपर उठने के लिए परिवार बहुत ही कारगार साबित हो सकता है। परिवार के सामंजस्य के लिए त्याग करना बहुत जरूरी है ! अपने विचारो को परिवार के साथ तालमेल बैठने के लिए महात्वाकांशा बलिदान करने की जरूरत है ! हो सकता है अपनी कुछ खुशियो , अपने कुछ सपनों का त्याग करना पड़े वही त्याग आपके सुंदर भविष्य का निर्माण करेगा ! सिद्घि समर्पण से सहज ही मिल सकती है ! मगर समर्पण आपको करना ही पड़ेगा आपको स्वय हित को त्याग परिवार के बारे मे गहन चिंतन करना होगा वह दिन दूर नही जब आपके सामने खुशिया झोली फेलाकर खड़ी होगी ! हमें अपनी मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है ! तभी हमारी ओर परिवार की खुशिया है ! तो आज ही हम प्रण ले परिवार के लिए जीना है ओर परिवार रूपी वटवृक्ष को हमे सींचना है तभी हमे अच्छी व शीतल छाँव मिलेगी !
उत्तम जैन ( विद्रोही )http://www.vidrohiawaz.com/
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शनिवार, 24 सितंबर 2016

जीवन के कडवे अनुभव - एक सफर

जीवन के कडवे अनुभव - एक सफर
सफ़र दुनिया की नजर में इस शब्द का मतलब यात्रा करने से है पर वास्तविक अर्थ तो कुछ और ही है । इसका अर्थ तो उन कड़े अनुभवों और संघर्षो से है जो इस जीवन में हमें मिलते है यहाँ हमें नए नए और कडवे अनुभव हर दिन मिलते है जो बहुत कुछ सिखा देते है सब कुछ सहना और किसी से कुछ न कहना हम जीवन के इस सफ़र में ही सीखते है , कभी अच्छा और कभी बुरा अनुभव आपको परिपक्व बनाने में और तपाने में मदद करता है जो कुछ करने के लिए हिम्मत देता है, लोगो की पहचान कराता है और जीवन के इस कठिन डगर में चलना सिखाता है संभलना सिखाता है । इस सफ़र में तो हमेशा ऐसे लोगों से मिलना जुलना लगा रहता है जो बिना कुछ जाने अपना ज्ञान बांटते रहते है ! ये वो ही लोग होते जिन्होंने सही मायने में तो सफर किया ही नहीं होता ये सिर्फ यात्रा करते है जो हमेशा सुखद होती है ये लोग जिन्दगी को कभी समझ ही नहीं पाते बस हमेशा बिना कुछ सोचे अपनी सलाह दूसरों को देते रहते और ये सोचते है की उनकी ये सलाह दूसरे बिना कुछ कहे मान भी ले लेकिन इन्हें क्या मालूम की ऐसा नहीं होता ।लोग बिना किसी के बारे में जाने या अधूरी बाते जानकर ही अपना किसी के प्रति नजरिया बना लेते है और उसी के अनुरूप अपना ज्ञान और अपनी सलाह देते रहते है और जब सामनेवाला उनकी बात न माने तो उसे दुनिया का सबसे बुरा इंसान करार देते है । ये दुनिया का रिवाज है जो आज से नहीं सदियों से चला आ रहा है और उसे चाहकर भी कोई नहीं बदल पाया है ।
इस दुनिया में बड़े अजीब लोग है जो लोग आपके अन्दर दिनभर कमिया ढूँढते रहते है वही आपसे मदद लेने में भी जरा सा भी नहीं हिचकते है जब आपको उनकी जरुरत थी तो बड़ी आसानी और चतुरता के साथ अपना हाथ आपकी मदद करने से खींच लिया लेकिन जब उन्हें जरुरत पड़ी तो बड़े आराम से बिना कुछ सोचे मुंह उठा कर आपसे मदद लेने चले आये ये है दुनिया का दस्तूर ।
जिन्हें कभी लगता था की आप किसी काबिल नहीं हो आज जब आपको सफलता मिली , धन -दौलत और शोहरत जब आपके क़दमों है तो खुद को आपका करीबी और शुभचिंतक बताने लगे लेकिन जैसे ही ये सब कुछ आपसे दूर हुआ तो आपके शुभचिंतक भी उसी पल दूर हो गए ये होता है सफ़र का मजा और अर्थ ।
यहाँ बहुत से बुरे अनुभव मिलते है और आपको अपने और पराये , सही और गलत में फर्क करना सब सहज ही समझ आने लगता हैं । इसके अपने सुख भी है और दुःख भी है जो जीवन के सफ़र को तय करने वाले और इसे समझने वालो को इस पथ में आगे चलने और बढ़ने पर मिलेंगे ।
" मेरी मंजिल की बड़ी कठिन डगर है
जिसमें मेरे बड़े कठिन हमसफर हैं
इस सफर में बहुतों ने तोडा है दम मगर
जीता वहीँ है जिसने सफर में गिर कर भी खुद को संभाला अगर है , दम तोडना भी इतना गर होता आसान तो करते ही क्यों ये सफर हम मगर है।"
अपने सपने और अपनी मंजिल का पता तो हर इंसान को खुद ही लगाना होता है और इनके बारे में बहुत सोचकर ही किसी से कहना चाहिए क्योकि यहां तो अनुभवी भी आपका मजाक बनाने से बाज नहीं आते । ये बात मै इतनी आसानी से इसलिए कह पा रहा हूँ क्योकि इस सफ़र को मैंने जिया हैं महसूस किया है लेकिन अभी दम नहीं तोडा है जब तक रहेंगी इस शरीर में सांसे ये सफ़र कभी नहीं थमेगा चाहे कितने ही बुरे और कडवे अनुभवों से क्यों न गुजरना पड़े हमें । हम तो इस पर चलते ही रहेंगे क्योकि ------
हम है राही प्यार के चलना अपना काम हौसला न छोड़ेंगे हारी बाजी जीतेंगे।"
ये खुद से वादा है और चाहे जितने आलोचक क्यों न हो खुद को हम साबित करेंगे ।
उत्तम जैन (विद्रोही )----- 

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गुरुवार, 22 सितंबर 2016

वर्तमान की सबसे बड़ी पारिवारिक समस्या सास बहू व पति के मतभेद

वर्तमान की सबसे बड़ी पारिवारिक समस्या सास बहू व पति के मतभेद
ससफल विवाहित जीवन के लिए पति-पत्नी दोनों में कुछ विशेषताएं होनी चाहिए। परिवार समाज की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण इकाई है। हमारे देश में परिवार का आधार विवाह है। विवाह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दो अपरिचित स्त्री-पुरुष सामाजिक विधानों के अनुसार संबंध स्थापित करते हैं तथा उनका शारीरिक एवं भावनात्मक मिलन होता है। पारिवारिक समायोजन न होने की स्थिति में भी द्वंद्व बना रहता है। विवाह के पश्चात स्त्री और पुरुष दोनों को ही नवीन भूमिकाओं से स्वयं को समायोजित करना होता है। पारिवारिक समायोजन में स्त्री जो वधू के रूप में ससुराल जाती है, विवाह के बाद उसका पहला समायोजन पति के साथ होता है और फिर ससुराल के अन्य सदस्यों के साथ समायोजन की समस्या उत्पन्न होती है। आज मेरे विचारो ने पारिवारिक समायोजन की समस्या को उठाया है। वधू को ससुराल में सबसे अधिक समायोजन की समस्या ससुराल की स्त्रियों के साथ होती है जो कि सास, ननद, जेठानी के रूप में होती है। बहुदा बहू और सास में परस्पर मनमुटाव होता रहता है। इस बात पर मेने बहुत शोध किया की सास बहू मे अनबन व आपस मे अनबन के किस्से ज्यादा क्यू होते है ! काफी संशोधन के बाद इस निर्णय पर पहुचा की सास बहू मे मुख्यतया 20 वर्ष का उम्र का फर्क होता ही है ! अब इन 20 वर्ष के फर्क मे सोच का काफी फर्क होता है ! मुख्यतया सास की पढ़ाई 12 या इसके समकक्ष या इससे भी कम होगी ! ओर आज की लडकीया कुछ ज्यादा पढ़ी लिखी ! स्वाभाविक है सोच व विचारधारा मे फर्क होगा ही ! अब यह 20 वर्षो का अंतर तो स्वाभाविक है ! फिर संतुलन की कमी को केसे पूरा किया जाए जब यह सोच का संतुलन पूरा नही हो पाता स्वाभाविक रूप से उनमे यह मनमुटाव होना ही है ! इसका समाधान क्या ?
नव वधू के आगमन पर सास को प्रायः ‘‘असुरक्षा की भावना’’ अनुभव होती है। इसी के वशीभूत हो कर वह अपने मन के रोष, क्षोभ, आशा, स्पर्धा आदि भावों का शिकार हो जाती है। परिवार के पुरुष वर्ग का अधिकांश समय घर के बाहर व्यतीत होता है और प्रायः स्त्रियां सारा दिन घर में रहती हैं इसलिए समायोजन की आवश्यकता उनके साथ अधिक होती है। यद्यपि आज महिलाएं नौकरीशुदा भी हैं। एक अन्य मनोवैज्ञानिक कारण है- स्त्रियों में जाने अनजाने में एक दूसरे के रूप और गुण के प्रति ईर्श्या की भावना का होना। एक और स्थिति में जरा-सी चूक हो जाने पर समायेाजन की समस्या गंभीर होने के साथ-साथ असंभव भी हो जाती है, जहां वर अपने परिवार से बहुत अधिक जुड़ा रहता है। उसके अनुसार आदर्श नारी का रूप उनकी मां और बहनें ही होती हैं और वह उन्हीं की विशेषताओं को अपनी पत्नी में भी देखना चाहता है। वधू का अपना व्यक्तित्व और विशेषताएं होती हैं तथा जब वर के द्वारा अपनी पत्नी तथा परिवार की अन्य स्त्रियों में बहुत अधिक तुलना की जाने लगती है तो कई बार वधू के आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचती है और सहनशीलता की सीमा पार हो जाने पर परिवार टूट जाते हैं। ऐसा कभी-कभी वधू के द्वारा भी हो जाता है कि वह अपने पिता की छवि व विशेषताएं अपने पति में देखना चाहती है। यह भावना ग्रंथी होती है। स्त्री-पुरुष संबंधों में व परिवारों में जिन समस्याओं के कारण तनाव उत्पन्न हो, उन समस्याओं पर मिलकर विचार करना चाहिए। कौन सही है, इस पर नहीं अपितु क्या सही है इस पर विचार किया जाना चाहिये !.....
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अकसर छोटी.छोटी बातों को लेकर पति.पत्नी इस हद तक झगड़ पड़ते हैं कि उनकी जिंदगी में सिर्फ तनाव ही रह जाता है जो उन पर इस हद तक हावी हो जाता है कि दोनों का एक छत के नीचे जीवन बसर करना मुश्किल हो जाता है और नौबत तलाक तक पहुंच जाती है। आम जिंदगी में यदि पति.पत्नी कुछ बातों को ध्यान में रखें तो तनाव से बच कर अपने घरेलू जीवन को खुशियों से भर सकते हैं। यदि पति.पत्नी के बीच कभी झगड़ा हो तो दोनों में से एक को शांत हो जाना चाहिए जिससे बात आगे न बढ़े और फिर पति.पत्नी का झगड़ा तो पानी के बुलबुलों की तरह होता है जो पल भर में ही खत्म हो जाता है। युगो से नर-नारी समानता का एक मूल तथ्य परिचालित किया जाता रहा है कि पुरूष स्त्री की अपेक्षा साधारणतया ज्यादा बड़ा और शक्तिशाली होते हैं और सामान्यतः भौतिक हिंसा में जीत उन्हीं की होती है । मानव सभ्यता के शुरू से ही स्त्रियों को पुरूषों के भौतिक हमलों से स्वयं की रक्षा करनी पडी है । यहां तक कि जब वह क्रोधित नर के सामने अपने आप को असहाय महसूस करती है कई पत्नियां अपनी पति की बातों को लेकर काफी कंफ्यूज रहती है कि आखिर उनके पति अपने मन की बात उनसे शेयर क्यों नहीं करते और उनके पति मन ही मन परेशान क्यों रहते है और खुद ही अपनी सारी मुश्किलों को सुलझाने के लिए प्रयत्न करते रहते है और उनसे कोई भी बात शेयर क्यों नहीं करते । इन्ही कारणों से कभी-कभी पति-पत्नी के बीच में मन मुटाव पैदा हो जाता है और कई पत्नियां जो अपने पति के मन की बातों को समझ लेती है उनके पति उनसे खुश हो जाते है परंतु कई बार पत्नी कंफ्यूज हो जाती है कि आखिर उनके पति की खुशी किस बात में है । इन टिप्स की मदद से आप जान सकती है कि एक पति अपनी पत्नी से क्या चाहता है ।
कुछ टिप्स –
हर पति अपनी पत्नी से यह अपेक्षा करता है कि उसकी पत्नी उसके अच्छे कार्य करने पर उसकी तारीफ करें और एसा करने से आपके पति आपसे खुश हो जाएंगे। पति को ये बात सबसे ज्यादा अच्छी लगती है कि जब वो घर पर रहे तो उसकी पत्नी उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करें और जितना भी समय उसके साथ व्यतीत करें वो लम्हें हंसी मजाक से भरे होने चाहिए और लड़ाई झगड़े न हो जिससे रिश्तों में तनाव पैदा हो सकता है ।पति को ये बात सबसे अच्छी लगती है जब उसकी पत्नी घर के छोटे- छोटे कामों में अपने पति की मदद मांगे और काम करने के साथ- साथ आपस में ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत हो सकता है । हर पति यही चाहता है कि उसकी पत्नी सिर्फ उसी से प्यार करें और किसी और उसी को अपनी लाइफ का हीरो मानें ...................
उत्तम जैन (विद्रोही )

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

पल का उपयोग – सकारात्मक सोच

हम जब भी बाजार से कोई खाने पिने या दवा खरीदते है उस पर लिखी उत्त्पाद तिथी व् अवसान तिथी पहले देखते है !क्युकी हम पहले से अधिक जागरूक हो गए है ! साथ में हम यह भी देखते है की इस वस्तु में कोई हानिकारक तत्व तो मौजूद नही ! इसी प्रकार से हम सभी के जीवनों पर प्रयोग हो सकने वाली तिथि लिखी हुई है – बस हम में से कोई उस तिथि को जानता नहीं है; हमें पता नहीं है कि हमारा हृदय किस तिथि तक ही कार्य करेगा और फिर सदा के लिए बैठ जाएगा, या हमारी अन्तिम श्वास किस पल ली जाएगी और फिर किस रीति से सदा के लिए थम जाएगी। जब यह सत्य सभी के जीवनों के लिए अवश्यंभावी है, तो क्या हम सब को उन पलों का जो हमें दिए गए हैं, मन लगा कर सदुपयोग नहीं करना चाहिए? पलों के उपयोग से मेरा तात्पर्य है हम और गहराई तथा अर्थपूर्ण रीति से सच्चा प्रेम दिखाएं, औरों को क्षमा करने में तत्पर रहें, दूसरों की सुनने वाले बनें, खराई किंतु मृदुभाव से बोलने वाले बनें, इत्यादि। क्योंकि हम में से कोई भी अपने उपयोगी रहने की अन्तिम तिथि नहीं जानता, इसलिए प्रत्येक पल को बहुमूल्य जानकर, हर पल का उपयोग त्याग ,संयम, साधना , सतकर्म , प्रेम से प्रसार कर संसार को और अधिक उज्जवल तथा सुन्दर बनाने के लिए करने वाले बन जाएं। जब हम अपने परिवेश व दिनचर्या को देखते हैं तो पाते हैं कि हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण और आस-पास गणित ही गणित है। ये खुशियां हमें यूं ही सौगात में कोई नहीं दे देगा। उन्हें हमें पथरीले जीवन, कांटोंभरी जिंदगी के बीच से फूलों के समान चुनना होगा। जीवन में परेशानियां सभी को आती हैं, लेकिन जीवन सफल उसका है, जो परेशानियों का हिम्मत से सामना करते हुए जीवन में खुशियां ढूंढ लेते हैं ! …..आज के जमाने में खुशियां हासिल करना कांटों के बीच से फूल ......
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गुरुवार, 15 सितंबर 2016

क्षमा वाणी - दिगंबर संप्रदाय का एक विशेष पर्व

क्षमा वाणी - दिगंबर संप्रदाय का एक विशेष पर्व
हे भगवान! मैंने पर्युषण पर्व मनाते हुए दसलक्षण को अपने जीवन में अपनाया है। मेरे अंदर ऐसी भावना जागृत कर दो कि मेरे जीवन की सारी मलिनताएं समाप्त हो जाएं। आत्मा की शुद्धता सभी धर्मों का आधार होता है। आत्मा की शुद्धता के लिए सभी धर्मों में कोई न कोई विधान है। जैन धर्म में पर्यूषण पर्व ऐसा ही विधान है जिसका उद्देश्य जीवन को सार्थक बनाने के लिए मन, क्रम और वचन पर नियंत्रण रखते हुए आत्मा में स्थिर वास करना है। पर्यूषण का अर्थ भी स्थिर वास करना ही है। इस पूर्व के दौरान जैन अनुयायी व्रत, ध्यान, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और समाधि जैसी साधनाओं से अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करते हैं।जैन दर्शन में पर्यूषण या दशलक्षण पर्व के दिनों में आध्यात्मिक तत्वों की हम आराधना करके अपना और अपने जीवन मूल्यों का स्पर्श करते हैं। इसकी समाप्ति के ठीक एक दिन बाद विशेष पर्व मनाया जाता है और वह है क्षमावाणी पर्व। दिगंबर परंपरा के अनुयायी इसे क्षमापर्व या क्षमावाणी पर्व कहकर पुकारते हैं। यह पर्व बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।दुनिया में यह अपने तरह का अलग पर्व है, जिसमें क्षमा या माफी मांगी जाती है। इस दिन प्रत्येक जीव से अपने जाने या अनजाने में किए गए अपराधों के प्रति क्षमा-याचना की जाती है। बधाइयों के पर्व बहुत होते हैं, जिनमें शुभकामनाएं दी जाती हैं, लेकिन जीवन में एक ऐसा दिन भी आना चाहिए, जब हम अपनी आत्मा के बोझ को कुछ हल्का कर सकें। अपनी भूलों का प्रायश्चित करना तथा यह प्रतिज्ञा करना कि दूसरी भूल नहीं करेंगे, यह हमारे आत्मविकास में सहयोगी होता है। पर्वो के इतिहास में यह पर्व एक अनूठी मिसाल है।हम अपने जीवन में कितने ही बुरे कर्म जान-बूझकर करते हैं और कितने ही हमसे अनजाने में हो जाते हैं। हमारे कुकर्मो या गलतियों की वजह से दूसरों का मन आहत हो जाता है। हमें वर्ष में कम से कम एक बार इस पर विचार जरूर करना चाहिए कि हमने कितनों को दुख पहुंचाया? सदियों से चली आ रही दुश्मनी, बैर-भाव की गांठ को बांधकर आखिर हम कहां जाएंगे? जब हम किसी से क्षमा मांगते हैं तो दरअसल अपने ऊपर ही उपकार करते हैं। अच्छाई की ओर प्रवृत्त होने की भावना जब हर मानव के चित्त में समा जाएगी, तब मानव जीवन की तस्वीर ही कुछ और होगी।क्षमा शब्द क्षम से बना है, जिससे क्षमता शब्द भी बनता है। क्षमता का मतलब होता है साम‌र्थ्य। क्षमा का वास्तविक मतलब यह होता है किसी की गलती या अपराध का प्रतिकार नहीं करना। सहन कर जाने की साम‌र्थ्य होना यानी माफ कर देना। दरअसल, क्षमा का अर्थ सहनशीलता भी है। क्षमा कर देना, माफ कर देना बहुत बड़ी क्षमता का परिचायक होता है। इसलिए नीति में कहा गया है-क्षमा वीरस्य भूषणम् अर्थात क्षमा वीरों का आभूषण है, कायरों का नहीं। कायर तो प्रतिकार करता है। प्रतिकार करना आम बात है, लेकिन क्षमा करना सबसे हिम्मत वाली बात है। क्षमा भाव अंतस का भाव है। जो अंतस की शुद्धि के आकांक्षी हैं, वे सभी इस पर्व को मना सकते हैं। इस शाश्वत आत्मिक पर्व को जैन परंपरा ने जीवित रखा हुआ है। क्षमा तो हमारे देश की संस्कृति का पारंपरिक गुण हैं। यहां तो दुश्मनों तक को क्षमा कर दिया जाता है। हमारी संस्कृति कहती है -मित्ती में सव्व भूयेसु, वैर मज्झं ण केणवि। प्राकृत भाषा की इस सूक्ति का अर्थ है सभी जीवों में मैत्री-भाव रहे, कोई किसी से बैर-भाव न रखे। जैन संस्कृति ने इस सूक्ति को हमेशा दोहराया है।ईसा मसीह का वाक्य है- हे पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं? वहीं कुरान ने क्षमा को साहसिक मानते हुए कहा - जो धैर्य रखे और क्षमा कर दे, तो यह उसके लिए निश्चय ही बड़े साहस के कामों में से है। बाणभट्ट ने हर्षचरित में क्षमा को सभी तपस्याओं का मूल कहा है-क्षमा हि मूलं सर्वतपसाम्। महाभारत में कहा है, क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थ मनुष्यों का भूषण है। बौद्धधर्म के ग्रंथ संयुक्त निकाय में लिखा है- दो प्रकार के मूर्ख होते हैं-एक वे जो अपने बुरे कृत्यों को अपराध के तौर पर नहीं देखते और दूसरे वे जो दूसरों के अपराध स्वीकार कर लेने पर भी क्षमा नहीं करते। गुरु ग्रंथ साहिब का वचन है कि क्षमाशील को न रोग सताता है और न यमराज डराता है।
अनेक धर्मो और दार्शनिकों ने क्षमा की महिमा को निरूपित किया है। अत: क्षमा दिवस आध्यात्मिक पर्व है। अंतस के मूलगुण किसी धर्म-संप्रदाय से बंधे नहीं होते, इसीलिए क्षमापर्व सर्वधर्म समन्वय का आधार है।आप सभी से क्षमा याचना
उत्तम जैन (विद्रोही )

बुधवार, 7 सितंबर 2016

जैन चातुर्मास का केंद्रीय पर्व ‘पर्यूषण” व दशलक्षण पर्व

चातुर्मास का केंद्रीय पर्व ‘पर्यूषण” व दशलक्षण पर्व
जैन परंपरा में चातुर्मास के साधनाकाल के बीच पर्यूषण (पज्जोसवना) पर्व आता है| इसे संवत्सरी भी कहते हैं| श्‍वेतांबर जैनों का ८ या १६ दिवसीय पूर्यषण पर्व भाद्र पद शुक्ल पक्ष की पंचमी को संपन्न होता है जो पूर्ण हो चुका है न अंतिम दिन को ‘संवत्सरी’ या ‘संवत्सरी प्रतिक्रमण’ कहा जाता है| इसे क्षमावणी पर्व भी कहते हैं| ‘प्रतिक्रमण’ (सामयिक) जैनों के अनुसार उनकी आध्यात्मिक यात्रा के नवीकरण (उसकी तरफ पुनः वापसी) का पर्व है| जैन श्रावकों के लिए वर्ष में एक बार ‘प्रतिक्रमण’ आवश्यक है| ‘संवत्सरी’ और ‘पर्यूषण’ दोनों वस्तुतः एक ही हैं| जैन विश्‍वास है कि पर्यूषण के आठ दिनों में देवतागण तीर्थंकरों की अष्टप्रकारी (आठ प्रकार की) पूजा करते हैं| इसलिए अष्टाहनिक महोत्सव भी कहते हैं|
दिगंबरों में इस १० दिन के पर्व महोत्सव को ‘दशलक्षण पर्व’ कहते हैं| इसका प्रारंभ और अंत के बारे में दिगंबरों और श्‍वेतांबरों में थोड़ा मतभेद है| श्‍वेतांबरों का पर्यूषण पर्व या ‘अष्टाहनिक महोत्सव’ जहॉं भाद्र शुक्ल पक्ष पंचमी को समाप्त होता है, वहीं दिगंबरों का ‘दश लक्षण पर्व’ (या १० दिन का उत्सव) इस तिथि को प्रारंभ होता है और चतुर्दशी (अनंत चतुर्दशी) तक चलता है| श्‍वेतांबरों में इस दौरान कल्पसूत्र का पाठ किया जाता है, जिसमें पॉंचवें दिन भगवान महावीर की जन्मकथा कही जाती है| दिगंबर इस अवधि में उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र का पाठ करते हैं| दिगंबर दशमी को ‘सुगंध दशमी व्रत’ करते है| तथा अनंत चतुर्दशी का उत्सव मनाते हैं| क्षमावणी के दिन सभी जैन मतानुयायी अपने सभी संबंधियों मित्रों से ही नहीं, सभी प्राणियों से क्षमा का आदान-प्रदान करते है॥
‘खमेमि सव्वेजीव, सव्वेजीवा खमन्तु में
मित्ती में सव्ब भूएषु, वेरम मझ्झम न केनवी
मिच्छमि दुक्कड़म् (मिथ्या मे दुष्कृतम)’......

शनिवार, 3 सितंबर 2016

जैनधर्म के पर्युषण देता मधुरता व् मेत्री का सन्देश

श्वेताम्बर सम्प्रदाय प्रति वर्ष की भाँति आत्म जागरण का महापर्व पर्युषण चल रहे हैं। व् दिगंबर सम्प्रदाय में शुरू होने वाले है यह पर्व क्षमा और मैत्री का संदेश लेकर आया है। खोलें हम अपने मन के दरवाजे और प्रवेश करने दें अपने भीतर क्षमा और मैत्री की ज्योति किरणों को। तिथि क्रम से तो हम पर्युषण महापर्व की दस्तक सुनना प्रारम्भ कर देते हैं, किन्तु ध्यान में रखना यह है कि भावना-क्रम से हम अपने अन्तर्मन को कितना तैयार करते हैं? व्रत, उपवास, सामायिक, प्रवचन- स्वाध्याय के लिए हम अपने को तैयार कर लेते हैं, किन्तु अंतर्मन में घुली हुई गाँठें खोलने के लिए तथा सब पर समता, मैत्री की धारा बहाने के लिए अपने को कितना तैयार करते हैं। हमें अपने को कुछ इस तरह तैयार करना है कि हमारे कदम वीतरागता की ओर बढ़ सकें। भगवान महावीर पुरुषार्थवादी हैं। वे जीवन का परम लक्ष्य किसी अन्य विराट सत्ता में विलीन होना नहीं मानते, बल्कि अपनी मूल सत्ता को ही सिद्ध, बुद्ध और मुक्त करने की प्रक्रिया निरुपित करते हैं। समग्र जीवन सत्ता के साथ भावनात्मक तादात्म्य, उसका साधन है, अहं मुक्ति का उपादान मात्र इसके पार कुछ भी नहीं है। अतः उन्होंने अपनी ग्रन्थियों का मोचन करने पर बल दिया। उद्धार तो स्वयं का स्वयं से करना है, और यह तभी होगा जब कि हम संयम और तप द्वारा आत्म-परिष्कार करें। क्षमा उसी साधना का अंग है। इसे महावीर ने सर्वोपरि महत्व दिया। संवत्सरी के पूर्व और उस दिन होने वाले सारे तप और जप की अंतिम निष्पत्ति क्षमा को पाना ही है। क्षमापना के अभाव में तब तक का सारा किया कराया निरर्थक है। धर्म साधना की प्रक्रिया में क्षमा का महत्व स्थापन भगवान महावीर की एक महान देन है। उन्होंने सूत्र दिया, सब जीव मुझे क्षमा करें। मैं, सबको क्षमा करता हूँ। मेरी सर्व जीवों से मैत्री है। किसी से बैर नहीं। यह सूत्र ध्वनित करता है कि क्षमा स्वयं अपने में ही साध्य नहीं है। उसका साध्य है मैत्री और मैत्री का साध्य है समता और निर्वाण। क्षमा और मैत्री मात्र सामाजिक गुण नहीं हैं, वे साधना की ही एक प्रक्रिया को रूपायित करते हैं, जिसका प्रारंभ ग्रन्थि विमोचन होता है तथा अन्त में मुक्ति। क्रोध चार कषाय यों में एक है। वह वैराणुबद्ध करता है। क्रोध के पीछे मान खड़ा है, लोभ खड़ा है, माया भी खड़ी है, चारों परस्पर सम्बद्ध हैं। क्षमा और मैत्री-क्रोध, मान, माया और लोभ की ग्रन्थि मोचन करने का राजपथ है। फिर ग्रन्थि हमारी अपनी ही हैं। दूसरा कोई हमें बाँधने वाला भी नहीं है, अतः खोलने वाला भी नहीं है। यह ग्रन्थि कषायों के कारण होती है तथा क्षमा और मैत्री से ही कषायों को जीता जा सकता है। बिलकुल यही बात प्रभु ईसा मसीह ने अपने प्रख्यात गिरी-प्रवचन में कही है ! उन्होंने कहा अगर तुम प्रभु की पूजा के लिए थाल सजाकर मंदिर जा रहे हो और रास्ते में तुम्हें याद आ जाए कि तुम्हारे प्रति किसी के मन में कोई ग्रन्थि है, तो लौटो, सर्वप्रथम उसके पास जाकर उससे क्षमा याचना करो। उस ग्रन्थि को समूल नष्ट करो, उसके बाद जाकर पूजा करो। अगर तुम मनुष्यों के साथ शांति स्थापित नहीं कर सकते तो प्रभु के साथ शांति और समन्वय कैसे कर पाओगे। एक ओर भगवान श्रीकृष्ण और ईसा मसीह की समर्पण एवं प्रेममयी साधना, दूसरी ओर भगवान महावीर की क्षमा और मैत्रीमयी साधना-दोनों अपने आप में स्वतंत्र मार्ग हैं। ऋजु चित्त से जिस पर भी चला जो, वह मंजिल तक पहुँचती ही है। क्योंकि उस बिन्दु पर जाकर दोनों एक हो जाती हैं। दिगंबर सम्प्रदाय में जैन धर्म में पयुर्षण पर्व के दौरान दसलक्षण धर्म का महत्व बतलाया गया है। वे दस धर्म क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आंकिचन और ब्रह्मचर्य बतलाए गए हैं। यह वही धर्म के दस लक्षण हैं, जो पर्युषण .......
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गुरुवार, 1 सितंबर 2016

एक सच्ची एवं निष्कपट- क्षमा याचना

क्षमा मांगना एक यान्त्रिक कर्म नहीं है बल्कि अपनी गलतियों को महसूस कर उस पर पश्चाताप करना है । पश्चाताप में स्वयं को भाव होता है । ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा आगे बढ़ा सकें । भूल करना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है; हम सभी भूल करते हैं। परंतु उन्हें दोहराने का यह औचित्य नहीं हो सकता। हमे अपनी भूल का अहसास हो गया है यह दिखाने की केवल दो विधियाँ हैं। पहली विधि है कि भूल को ना दोहराएं और दूसरी एक सच्ची क्षमा याचना द्वारा।सही ढंग से क्षमा मांगना कोई विशेष कला या ज्ञान नहीं। यह तो केवल इस पर निर्भर है कि आप स्पष्ट रूप से सत्य बोल पाते हैं कि नहीं। जब हमे वास्तव में अपने कार्य पर पछतावा होता है, तो सही शब्द स्वत: ही बाहर आने लगते हैं और क्षमा मांगना अत्यंत सरल हो जाता है।वास्तव में क्षमा याचना विश्वास का एक पुनःस्थापन है। इस के द्वारा आप यह कह रहे हैं कि मैं ने एक बार आप का विश्वास तोड़ा है किंतु अब आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं और मैं ऐसा फिर कभी नहीं होने दूँगा। जब हम एक भूल करते हैं, तो दूसरे व्यक्ति के विश्वास को झटका लगता है। अधिकतर सकारात्मक भावनाओं की नींव विश्वास ही होती है।जब आप किसी से प्रेम करते हैं, तो आप उन पर विश्वास करते हैं कि वे वास्तव में वैसे ही हैं जैसा वे स्वयं को दर्शाते हैं। किंतु जब वे उसके विपरीत कार्य करते हैं, तो आप का विश्वास टूट जाता है। इस विश्वासघात से आप को बहुत कष्ट होता है और यह दूसरे व्यक्ति के प्रति आप की भावनाओं को भी प्रभावित करता है।यदि आप अपराध को दोहराने का विचार कर रहें हैं, तो ऐसी क्षमा याचना विश्वसनीय नहीं है।इसी प्रकार यदि आप किसी के विश्वास को तोड़ते हैं संभवत: वह आप को एक बार क्षमा कर सकते हैं। परंतु यदि आप ऐसा फिर से करते हैं तो आप उनसे क्षमा की आशा नहीं कर सकते। इसलिए, एक निष्ठाहीन क्षमा याचना सम्पूर्ण रूप से व्यर्थ है। तो आप पूछेंगे कि एक निष्कपट क्षमा याचना क्या है?एक सच्ची क्षमा याचना में “यदि” और “परंतु” जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं होता। यह कहना कि आप ने ऐसा क्यों किया इसका भी कोई अर्थ नहीं। सर्वश्रेष्ठ क्षमा याचना वह है जहाँ आप यह पूर्ण रूप से समझें, महसूस करें तथा स्वीकार करें कि आप के कार्यों ने अन्य व्यक्ति को ठेस पहुँचाया है। एक कारण या औचित्य दे कर अपनी क्षमा याचना को दूषित न करें। यदि आप सच्चे दिल से क्षमा नहीं मांगते हैं तो आप अपनी क्षमा प्रार्थना का नाश कर रहे हैं। इस से दूसरे व्यक्ति को और अधिक कष्ट होगा। आप एक क्षमा याचना अथवा एक बहाने में से केवल एक को ही चुन सकते हैं, दोनों को नहीं।क्षमा याचना विश्वसनीय तभी होती है जब आप यह ठान लें कि आप अपने अपराध को दोहरायेंगे नहीं और जब आप कोई बहाना या औचित्य नहीं देते हैं। आप अपने कार्य का पूरा उत्तरदायित्व लेते हैं और सच्चे दिल से आप क्षमा मांगते हैं। पश्चाताप की भावना से रहित क्षमा याचना व्यर्थ है। वास्तव में, इस से दूसरे व्यक्ति को और अधिक कष्ट होगा। अक्सर लोग कहते हैं, “मुझे क्षमा करें परंतु मैं ने ऐसा सोच कर यह काम किया था…”, अथवा “मुझे क्षमा करें परंतु मैं ने यह कार्य इस कारण किया था…” अथवा “मुझे क्षमा करें यदि मेरे कारण आप को कोई चोट पहुँची हो”। ये क्षमायाचना नहीं केवल बहाने हैं।जैन दर्शन के अनुसार वास्तव में क्षमावाणी के पीछे अपनी कमियां, कमजोरी व मतलब के कारण दूसरों को हानि पंहुचाने की वृति को बदलना है । हम इस तरह की गलतियां बार-बार किन कारणों से करते आये हैं । उनको पहचान कर अपनी आदतों को बदलना है । यह एक तरह से स्वयं का परीक्षण करना है । अर्थात क्षमा मांगने से पूर्व अपने दोषों का ज्ञान होना आवश्यक है ।मुझे गलती का ज्ञान नही है यानि.....
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