रविवार, 31 जुलाई 2016

वर्तमान की सबसे बड़ी पारिवारिक समस्या व् चिंतन

                                                   




                                                     वर्तमान की सबसे बड़ी पारिवारिक समस्या व् चिंतन 

सफल विवाहित जीवन की समस्या हो या बड़े बुजर्ग को लेकर कोई समस्या पहली तकरार पति पत्नी में होती है इसके लिए पति-पत्नी दोनों में कुछ विशेषताएं होनी चाहिए। परिवार समाज की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण इकाई है। हमारे देश में परिवार का आधार विवाह है। विवाह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दो अपरिचित स्त्री-पुरुष सामाजिक विधानों के अनुसार संबंध स्थापित करते हैं तथा उनका शारीरिक एवं भावनात्मक मिलन होता है। पारिवारिक समायोजन न होने की स्थिति में भी द्वंद्व बना रहता है। विवाह के पश्चात स्त्री और पुरुष दोनों को ही नवीन भूमिकाओं से स्वयं को समायोजित करना होता है। पारिवारिक समायोजन में स्त्री जो वधू के रूप में ससुराल जाती है, विवाह के बाद उसका पहला समायोजन पति के साथ होता है और फिर ससुराल के अन्य सदस्यों के साथ समायोजन की समस्या उत्पन्न होती है। आज मेरे विचारो ने पारिवारिक समायोजन की समस्या को उठाया है। वधू को ससुराल में सबसे अधिक समायोजन की समस्या ससुराल की स्त्रियों के साथ होती है जो कि सास, ननद, जेठानी के रूप में होती है। बहुदा बहू और सास में परस्पर मनमुटाव होता रहता है। इस बात पर मेने बहुत शोध किया की सास बहू मे अनबन व आपस मे अनबन के किस्से ज्यादा क्यू होते है ! काफी संशोधन के बाद इस निर्णय पर पहुचा की सास बहू मे मुख्यतया 20 वर्ष का उम्र का फर्क होता ही है ! अब इन 20 वर्ष के फर्क मे सोच का काफी फर्क होता है वेसे आज के वर्तमान को देखते हुए मुख्यतया सास की पढ़ाई 12 या इसके समकक्ष या इससे भी कम होगी ! ओर आज की लडकीया कुछ ज्यादा पढ़ी लिखी ! स्वाभाविक है सोच व विचारधारा मे फर्क होगा ही ! अब यह 20 वर्षो का अंतर तो स्वाभाविक है ! फिर संतुलन की कमी को केसे पूरा किया जाए जब यह सोच का संतुलन पूरा नही हो पाता स्वाभाविक रूप से उनमे यह मनमुटाव होना ही है ! इसका समाधान क्या ? नव वधू के आगमन पर सास को प्रायः ‘‘असुरक्षा की भावना’’ अनुभव होती है। इसी के वशीभूत हो कर वह अपने मन के रोष, क्षोभ, आशा, स्पर्धा आदि भावों का शिकार हो जाती है। परिवार के पुरुष वर्ग का अधिकांश समय घर के बाहर व्यतीत होता है और प्रायः स्त्रियां सारा दिन घर में रहती हैं इसलिए समायोजन की आवश्यकता उनके साथ अधिक होती है। यद्यपि आज महिलाएं नौकरीशुदा भी हैं। एक अन्य मनोवैज्ञानिक कारण है- स्त्रियों में जाने अनजाने में एक दूसरे के रूप और गुण के प्रति ईर्श्या की भावना का होना। एक और स्थिति में जरा-सी चूक हो जाने पर समायेाजन की समस्या गंभीर होने के साथ-साथ असंभव भी हो जाती है, जहां वर अपने परिवार से बहुत अधिक जुड़ा रहता है। उसके अनुसार आदर्श नारी का रूप उनकी मां और बहनें ही होती हैं और वह उन्हीं की विशेषताओं को अपनी पत्नी में भी देखना चाहता है। वधू का अपना व्यक्तित्व और विशेषताएं होती हैं तथा जब वर के द्वारा अपनी पत्नी तथा परिवार की अन्य स्त्रियों में बहुत अधिक तुलना की जाने लगती है तो कई बार वधू के आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचती है और सहनशीलता की सीमा पार हो जाने पर परिवार टूट जाते हैं। ऐसा कभी-कभी वधू के द्वारा भी हो जाता है कि वह अपने पिता की छवि व विशेषताएं अपने पति में देखना चाहती है। यह भावना ग्रंथी होती है। स्त्री-पुरुष संबंधों में व परिवारों में जिन समस्याओं के कारण तनाव उत्पन्न हो, उन समस्याओं पर मिलकर विचार करना चाहिए। कौन सही है, इस पर नहीं अपितु क्या सही है इस पर विचार किया जाना चाहिये ! साथ में नयी पीढ़ी को लेकर भी सबसे बड़ी शिकायत रहती है बुजुर्गो को स्वाभाविक भी है उनकी शिकायत मगर उस पर चिंतन करना जरुरी है ! अक्सर सुनने को मिलता है की नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को स्वीकार्य नहीं होती, नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की दृष्टि में उद्दंडी,संस्कारहीन,और बेवफा होती है। नयी पीढ़ी से उनकी असंतुष्टि उनके लिए बहुत सारी परेशानियों का कारण बनती है, और दोनों पीढ़ी के मध्य कडुवाहट और दरार को बढाती है। जिसके कारण अनेक बार बुजुर्गो को गिरते स्वास्थ्य एवं असहाय स्थिति में भी एकाकी जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है, और वे अपनी इस दयनीय स्थिति के लिए नयी पीढ़ी को जिम्मेदार ठहराते हैं। नयी पीढ़ी का उपेक्षित व्यव्हार उन्हें अवसादग्रस्त कर देता है, अक्सर बुजुर्गों की दयनीय स्थिति के लिए नयी पीढ़ी को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है,कहीं न कहीं बुजुर्गों की पुरानी या पारम्परिक सोच भी जिम्मेदार होती है।हम इस ज्वलंत प्रश्न का उत्तर ढूंढ सकेंगे की नयी पीढ़ी से उनका सामंजस्य क्यों बन पा रहा है । ऐसी क्या वजह है जिस कारण पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी से तालमेल नहीं कर पाती। इसका कारण नयी पीढ़ी में दोष ढूँढने से नहीं मिलेगा,क्योंकि यह तो प्रत्येक पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी को कोसती आ रही है और कोसती भी रहेगी यह पीढ़ी के अंतर सदा बना रहेगा हमे इस समस्या के मूल तक जाकर समाधान खोजना होगा ।मुख्य कारण युवा पीढ़ी गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा,भौतिकवाद के कारण आने वाली नयी नयी चुनौतियों में उलझ कर रह जाती है,वह सभी परिवर्तनों को स्वीकार करने को तत्पर रहती है,वह शीघ्र से शीघ्र आधुनिकतम सुविधाओं को जुटाने के लिए, व्यस्ततम जीवन और कठोर परिश्रम करने को उद्यत रहती है। बदलती जीवन शैली का आकर्षण उन्हें भावनात्मक रूप से संवेदन हीन बना देता है !  
 उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है की हमेशा युवा पीढ़ी बुजुर्गों की उपेक्षा के लिए जिम्मेदार नहीं होती,यदि बुजर्ग बदलते परिवेश को समझते हुए युवा वर्ग की     परेशानियों,अपेक्षाओं,महत्वाकांक्षाओं को जाने और समझें,उनके चुनौती भरे जीवन में सहयोगी बनकर, नयी विकास धारा को अपनाने का प्रयास करें, तो वे अवश्य ही नयी पीढ़ी से सम्मान,प्यार एवं सहयोग पा सकते हैं। आजकल बड़े बुजुर्ग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि धर्म के रीति-रिवाज, क्रियाकांड में नई पीढ़ी को कोई दिलचस्पी नहीं है और पाश्चात्य संस्कृति हावी होती जा रही है। समाज दिशाहीन हो रहा है, युवाओं को अतीत के प्रति कोई सम्मान नहीं है। यह उन लोगों की दृष्टि है जो चीजों को गहरे पैठकर देख नहीं सकते। भारतीय संस्कृति या कोई भी संस्कृति जिसके आधार वास्तविक धर्म में हैं, कभी नष्ट नहीं हो सकती। हां, उसके रंग-रूप बदल सकते हैं, उसे पालन करने वालों की शैली बदल सकती है, प्राचीन सूत्रों की व्याख्याएं बदल सकती हैं लेकिन धर्म की जो बुनियाद है वह समय के पार है। पीढ़ियां आती हैं, जाती हैं, धर्म स्थिर रहता है। .....
उत्तम जैन (विद्रोही)

मो -८४६०७८३४०१  

शनिवार, 30 जुलाई 2016

मेरे धर्म की पीड़ा ...

  
              मेरे धर्म की पीड़ा ...



आज धर्म के नाम पर जो घिनौने काम किए जाते हैं, क्या उन्हें देखकर आपका दिल सहम जाता है? क्या ऐसे लोगों के बारे में सुनकर आपका खून खौल उठता है जो एक तरफ तो ईश्वर की भक्ति करने का दम भरते हैं, वहीं दूसरी तरफ वे युद्ध में हिस्सा लेते हैं, आतंकवादी हमले करते हैं और बड़े-बड़े घोटाले करते हैं या दंगा फसाद करते है मुझे तो यह सब देखकर ऐसा क्यों लगता है कि धर्म ही सारी समस्याओं की जड़ है? मगर दरअसल, सारी समस्याओं के लिए सभी धर्म नहीं, बल्कि ऐसे धर्म कसूरवार हैं जो बुरे कामों को बढ़ावा देते हैं। ऐसे धर्मों के बारे में मेरी सोच के मुताबिक जिसकी लोग इज़्ज़त करते हैं, कहा गया है कि “निकम्मा पेड़ बुरा फल लाता है। जी हाँ, ऐसे धर्म बुरे फल लाते हैं। मगर ये बुरे फल क्या हैं? अब आप मेरे विचारो पर मंथन करो मुझ जेसे अज्ञानी की बात आपको अगर पल्ले पड़ी तो में खुद को धन्य समझुगा नही तो विद्रोही की बकवास समझ कर भूल जाना .....इस समय, देश में धर्म की धूम है। उत्पात किए जाते हैं तो धर्म और ईमान के नाम पर और जि़द की जाती है तो धर्म और ईमान के नाम पर। केसी विडम्बना है की धर्म और धर्म के सिदान्तो को जानें या न जानें, परंतु उनके नाम पर उबल पड़ते हैं आग बबूले और जान लेने और जान देने के लिए तैयार हो जाते हैं। देश के सभी शहरों का यही हाल है। उबल पड़नेवाले साधारण आदमी का इसमें केवल इतना ही दोष है कि वह कुछ भी समझता-बूझता तो है नही और दूसरे लोग की भीड़ जिधर जा रही है उधर अपना रुख कर देते है। यथार्थ दोष है, कुछ चलते फिरते पुरज़े पढे़-लिखे लोगों का जो मूर्ख लोगों की शक्तियों और उत्साह का दुरुपयोग इसलिए कर रहे हैं कि इस प्रकार धर्म के बल के आधार पर उनका नेतृत्व और बड़प्पन कायम रहे। इसके लिए धर्म और ईमान की बुराइयों से काम लेना उन्हें सबसे सुगम मालूम पड़ता है। सुगम है भी। साधारण से साधारण आदमी तक के दिल में यह बात अच्छी तरह बैठी हुई है कि धर्म की रक्षा के लिए प्राण तक दे देना वाजि़ब है। धर्म को खानदानी विरासत समझकर उसकी जिम्मेदारी के बोझ तले दबा हुआ है बेचारा साधारण आदमी धर्म के तत्त्वों को क्या जाने? लकीर पीटते रहना ही वह अपना धर्म समझता है। उसकी इस अवस्था से चालाक लोग इस समय बहुत फ़ायदा उठा रहे हैं। चालाक लोग गरीबों की कमाई ही से वे मोटे हो रहे हैं, और उसी के बल से, वे सदा इस बात का प्रयत्न करते हैं कि गरीब व् अशिक्षित सदा चूसे जाते रहें। यह भयंकर अवस्था है! हमारे देश में, इस समय, धनपतियों का इतना ज़ोर नहीं है। यहाँ, धर्म के नाम पर, कुछ इने-गिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए, करोड़ों आदमियों की शक्ति का दुरुपयोग किया करते हैं। गरीबों का धनाढ्यों द्वारा चूसा जाना इतना बुरा नहीं है, जितना बुरा यह है कि वहाँ है धन की मार, यहाँ है बुद्धि पर मार। वहाँ धन दिखाकर करोड़ों को वश में किया जाता है, और फिर मन-माना धन पैदा करने के लिए जोत दिया जाता है। यहाँ है बुद्धि पर परदा डालकर पहले ईश्वर और आत्मा का स्थान अपने लिए लेना, और फिर धर्म, ईमान, ईश्वर और आत्मा के नाम पर अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए लोगों को लड़ाना-भिड़ाना। कई नेता आजकल धर्म की राजनीति भी करने लगे है, जो सही नहीं है ! इन नेताओ को किसी भी प्रकार की धर्म राजनीति नहीं करनी चाहिए. आजकल नेता जिन्हें में एक व्यवसायी भी कहू तो अतिश्योक्ति नही होगी कमबख्त इन नेताओ की बुद्धि को मानना पड़ेगा ! क्युकी मेरे व् आप जेसे बनिए से ज्यादा होंशियार है ये है आधुनिक नई विरासत के बनिए जो संतों का इस्तेमाल करते हैं और काम निकलते ही संतों को दरकिनार कर देते हैं!. ऐसे व्यवसायी ऐसे तथाकथित धर्मगुरु को पैसे देकर अपना धंधा चमकाना चाहते हैं. इसी वजह से वह ऐसे धर्मगुरुओं के पीछे भारी भरकम रुपये खर्च करते हैं.! देश में सरकार के नियंत्रण में हो या समाज के नियंत्रण में जितने भी मंदिरों का संचालन हो रहा है, वहां से प्राप्त आमदनी को विकास कार्य में अथवा सामाजिक कार्य में खर्च नहीं किया जाता.वरन इन पैसों को कर्मचारियों की तनख्वाह एवं राजनीतिक दलों के नेताओं के आवभगत में खर्च किया जाता है.! अब इसके मुख्य कारण की तरफ आपको ले चलता हु आज इस आधुनिक युग में शिक्षा तो बढ़ी है मगर इस शिक्षा का स्तर गिरा है, जिसकी वजह से धर्म के प्रति भी लोगों का भरोसा कम हुआ है.! पहले के जमाने में सनातन धर्म के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी. बच्चों के धर्म के प्रति संवेदनशील बनाया जाता था, लेकिन आज के जमाने में शिक्षा में आधुनिकता का समावेश हो गया है. आज शिक्षा से शिक्षा के व्यवसायी झोला भर भर कर रुपये ले जाते हैं, इसमें व्यवसायियों की भी अपनी हित छिपा होता है.शिक्षा का तो नाम मात्र है ! मूर्ख बेचारे धर्म की दुहाइयाँ देते और दीन-दीन चिल्लाते हैं, अपने प्राणों की बाजियाँ खेलते और थोड़े-से अनियंत्रित और धूर्त आदमियों का आसन ऊँचा करते और उनका बल बढ़ाते हैं। धर्म और ईमान के नाम पर किए जाने वाले इस भीषण व्यापार को रोकने के लिए, साहस और दृढ़ता के साथ हमे विचार व् मंथन करना चाहिए। व् शिक्षा के स्तर को सुधारना होगा !लोग शिक्षित नही होंगे धर्म के सिदान्त को नही समझेंगे और जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक भारतवर्ष में नित्य-प्रति बढ़ते जाने वाले झगड़े कम न होंगे राजनेता धर्म के नाम पर साधू संतो के सहारे हमे भ्रमित करके झगडाते रहेंगे ! जरुरत है धर्म की उपासना के मार्ग में कोई भी रुकावट न हो। जिसका मन जिस प्रकार चाहे, उसी प्रकार धर्म की भावना को अपने मन में जगावे। धर्म और ईमान, मन का सौदा हो, ईश्वर और आत्मा के बीच का संबंध हो, आत्मा को शुद्ध करने और ऊँचे उठाने का साधन हो। वह, किसी दशा में भी, किसी दूसरे व्यक्ति की स्वाधीनता को छीनने या कुचलने का साधन न बने। आपका मन चाहे, उस तरह का धर्म आप मानें, और दूसरों का मन चाहे उस प्रकार का धर्म वह माने। दो भिन्न धर्मो के मानने वालों के टकरा जाने के लिए कोई भी स्थान न हो। यदि किसी धर्म के मानने वाले कहीं ज़बरदस्ती टाँग अड़ाते हों, तो उनका इस प्रकार का कार्य देश की स्वाधीनता के विरुद्ध समझा जाए। शुद्धाचरण और सदाचार ही धर्म के स्पष्ट चिह्न हैं। दो घंटे तक बैठकर पूजा कीजिए और पांच वक्त नमाज़ भी अदा कीजिए, परंतु ईश्वर को इस प्रकार रिश्वत के दे चुकने के पश्चात्, यदि आप अपने को दिन-भर बेईमानी करने और दूसरों को तकलीफ पहुँचाने के लिए आज़ाद समझते हैं तो इस धर्म को, अब आगे आने वाला समय कदापि नहीं टिकने देगा। अब तो आपका पूजा-पाठ न देखा जाएगा, आपकी कसौटी केवल आपका आचरण होगी। सबके कल्याण की दृष्टि से आपको अपने आचरण को सुधारना पड़ेगा और यदि आप अपने आचरण को नहीं सुधारेंगे तो नमाज़ और रोज़े, पूजापाठ और आपको देश के अन्य लोगों की आज़ादी को रौंदने और देश-भर में उत्पातों का कीचड़ उछालने के लिए आज़ाद न छोड़ सकेगी। में समझता हु ऐसे धार्मिक आदमियों से तो नास्तिक आदमी कहीं अधिक अच्छे और ऊॅँचे हैं, जिनका आचरण अच्छा है, जो दूसरों के सुख-दुःख का ख़याल रखते हैं और जो मूर्खों को किसी स्वार्थ-सिद्धि के लिए उकसाना बहुत बुरा समझते हैं। ईश्वर इन नास्तिकों लोगों को अधिक प्यार करेगा, और वह अपने पवित्र नाम पर अपवित्र काम करने वालों से यही कहना पसंद करेगा, मुझे मानो या न मानो, तुम्हारे मानने ही से मेरा ईश्वरत्व कायम नहीं रहेगा, दया करके, मनुष्यत्व को मानो, पशु बनना छोड़ो और आदमी बनो!.....
नोट - उक्त मेरे विचार में मेरी कलम काफी विषयों से भटकते हुए चली है आप भावो को समझे मेरा अनुरोध अगर मेरे विचार आपको सही लगेया गलत तो मुझे व्हट्स अप न - 84607 83401 पर प्रतिक्रिया जरुर प्रदान करे !
उत्तम जैन (विद्रोही )
प्रधान संपादक
विद्रोही आवाज (साप्ताहिक )             

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

आध्यात्म, हम और संत


                                   आध्यात्म, हम और संत
कर्मकांड, आरती, पूजा, घंटी घड़ियाल… मेरे आध्यात्म का अंग नहीं थे | न ही कभी रहेंगे फिर आध्यात्म क्या है? यह सबसे बड़ा प्रश्न है | आध्यात्म की सरल परिभाषा यह सुपर साइंस है। जीवन का सरलीकरण है। इसके हर सिद्धांत वैज्ञानिक हैं। आध्यात्म का काफी सारा हिस्सा विज्ञान सिद्ध कर चुका है। मेरे लिए आध्यात्म का अर्थ किसी चीज का त्याग करना नहीं है। मैं जब ऑफिस में होता हूं तब भी आध्यात्म मेरे साथ होता है, जब परिवार के साथ होता हूं तब भी आध्यात्म मेरे साथ होता है। दरअसल यही परेशानी है हमारे यहां, आध्यात्म को जटिल और दुर्लभ बना दिया है जबकि सिर्फ इसे समझने और सहजता से जीवन शैली में अपनाने की जरूरत है।में यहाँ स्पष्ट कर दू आध्यात्म के लिए गुरु हो तो यह सर्वोत्तम है, ना हो तो प्रेरणा के लिए गुरुत्व किसी में भी प्राप्त किया जा सकता है। मुख्य बात है काम के प्रति समर्पण और एकाग्रता। हमारे देश की संस्कृति , संत समाज हमे सर्वर्था आध्यात्म का मार्ग की और प्रसस्त करते है ! आज पुरे विश्व से जिसने आध्यात्म के लिए अपने देश को छोड़कर भारत आना पसंद करते है ! क्युकी हिंदुस्तान ही एकमात्र इकलोता देश है जंहा आध्यात्म की और लगाव है ! हमारे देश में ऋषि व् संत परम्परा आज भी जिवंत है ! संत शब्द भारतीय आध्यात्मक गुरु के रूप में जाना जाता हैं. संत, ज्ञानी, महात्मा, ऋषि, धर्मात्मा, मुनि, धर्मात्मा मनुष्य, एकांतवासी, तपस्वी, संन्यासी, मुनि, , स्वामी. अर्थात आज का आध्यात्मक मनोविज्ञानी मेरा मानना हैं.व्यक्ति एक सामुदायिक प्राणी हैं, व्यक्ति एक सामुदायिकता का हिस्सा हैं. समाज में जीने के लिए परिवार का विस्तार और उस विस्तार में अर्थ की आवश्यकताओं की पूर्तिकर्ता के साथ पर्यावरण को संतुलन में कभी कभी मानसिक असंतुलन आ ही जाता हैं. जिससे व्यक्ति के कृति में विकृति का समावेश होता हैं. तब किसी संत महात्मा से सुझाव या सलाह की आवश्यकता होती हैं, मनुष्य की प्रकृति व प्रवृति और उसका अंतःकरण किसी परा-लौकिक शक्ति से उसके मानसिक, भावनात्मक एवं व्यावहारिक संबंध की मांग करता है। उसी शक्ति को इन्सान चेतन व ज्ञान के स्तर पर ईश्वर, अल्लाह, ख़ुदा, गॉड आदि कहता है। ‘ईश्वर में विश्वास’ अर्थात् ’ईश्वरवाद’ शाश्वत सत्य धर्म का मूलाधार रहा है।इन्सान की मूल प्रवृति उसे अशुद्ध, भ्रमित, मिलावटी, खोटी और प्रदूषित वस्तुओं के बजाए, विशुद्ध (Pure) और खरी चीज़ें हासिल करने तथा इसके लिए प्रयासरत होने का इच्छुक व प्रयत्नशील बनाती है। मनुष्य जब अपनी भौतिक व शारीरिक जीवन-सामग्री के प्रति इस दिशा में भरसक प्रयत्न करता है तो उसे आत्मिक व आध्यात्मिक जीवन-क्षेत्र में ‘विशुद्ध’ की प्राप्ति के लिए और अधिक प्रयत्नशील होना चाहिए, क्योंकि यही वह आयाम है जो मनुष्य को सृष्टि के अन्य जीवों से श्रेष्ठ व महान बनाता है। जिन सौभाग्यशाली लोगों को भौतिकता-ग्रस्त जीवन प्रणाली की चकाचौंध, हंगामों, भाग-दौड़ और आपाधापी से कुछ अलग होकर इस दिशा में प्रयासरत होने की फिक्र होती है, अक्सर ऐसा हुआ है कि वे अनेक व विभिन्न दर्शनों में उलझ कर, एक मानसिक व बौद्धिक चक्रव्यूह में खोकर, भटक कर रह जाते हैं। अगर यह तथ्य और शाश्वत सत्य सामने रहे कि अत्यंत दयावान ईश्वर अपने बन्दों को दिशाहीनता व भटकाव की ऐसी परिस्थिति में बेसहारा व बेबस नहीं छोड़ सकता यह मात्र एक कोरी कल्पना नहीं है हकीकतों से वास्ता देखा जाए तो आप को ज्ञात होगा की इनके शिष्यों को क्या फायदा या नुकसान हुआ से ज्यादा महत्वपूर्ण ये हैं की "लोग मनोदशा से, मनो दैहिक, मनो सामाजिक या मनो पारिवारिक समस्याओ से कितने पीड़ित है"
कुछ लोग आवेश से व्यक्ति की परेशानियों को समझे बिना अंध भक्त का नारा लगाते ! भक्त अंधे हो सकते परन्तु सभी नहीं, प्राय ठगा जाना जीवन में हर किसी से होता, फिर भी मनुष्य जीवन की अपनी समस्याओ के निवारणार्थ तो किसी से परामर्श लेना जरूरी होता और उस परामर्श से किसी विकृति में सुकृति या समस्या का समाधान होता तो सार्थक हैं. हकीकत तो आज के युग में मानसिक परेशानिया व्यक्ति को बहुत सता रही, आज का व्यक्ति मनोदशा से परेशान बहुत हैं, जब ये परेशानिया जो दूर कर देता तो इन्सान को जब अधेरा दिखाई देता और संत प्रकाश बता देता तो उस आराम मिल जाता.! गुरु की कृपा और मार्गदर्शन से आध्यात्मिक उन्नति संभव है। इसके बिना जीव 84 लक्ष्य योनियों में ही भटकता रहता है। संसार में मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है। वह अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए आध्यात्मिक प्रगति कर सकता है। इसके लिए गुरु का सानिध्य बेहद जरूरी होता है। मानव तन मात्र पेट भरने के लिए नहीं मिलता है। इसका उद्देश्य आत्म कल्याण हाेता है, लेकिन माया मोह के फंदे में उलझा मनुष्य पूरी उम्र भर यह मर्म नहीं समझ पाता है। ऐसी स्थिति में गुरु का सत्संग बडा सहायक होता हैं। आध्यात्म में कहा है आपका भोजन शुद्ध और
सात्विक होना चाहिए। आपका भोजन शाकाहार होना चाहिए, आपका भोजन
प्राणियों पर दया, करूणा करता हुआ होना चाहिए। अगर आप अपने मन की पवित्रता, जीवन की शुद्धता चाहते है तो मांसाहार से तौबा कर लीजिये और संकल्प करिए हम शाकाहारी बनकर रहेंगे। जिंदा रहने के लिए भोजन जरुरी है पर मांसाहार करना जरुरी नहीं है। हम मनुष्य है।हमारे दिल में करुणा है। हम
प्राणियों में सिरमौर है। इसलिए हमारा फ़र्ज़ है हम अपने से छोटे जीवों पर रहम करे हम उनके प्रति करुणा का परिचय दे, हम उनके दुःख को दूर करे। केवल अपने पेट को भरने के लिए किसी जानवर का पेट काटना ये ना इंसानियत है ना कोई धर्म इसकी अनुमति देता है। मेरा यह लेख (विचार ) लिखने पूरा लक्ष्य आध्यात्म को और गहराई से समझ कर अपने जीवन में उतारना है। आध्यात्म का लिखित शास्त्र है जो मानव मन, बुद्धि, शरीर , चित्त, अहंकार के बारे में बात करता है। मैं चाहता हूं कि आध्यात्म को समझ कर हर कोई सहज जीवन जीएं, हम जितने सरल होंगे जीवन के रास्ते भी उतने ही आसान होंगे।
उत्तम जैन विद्रोही

मेरे विचार -- प्रतिक्रिया आपकी जीवन की एक सलाह

मेरे विचार -- प्रतिक्रिया आपकी जीवन की एक सलाह
आज के परिवेश में किसी अन्य की बैसाखियों पर जीवन का निर्वाह करने की बजाय स्वयं के विवेक से जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। यह बैसाखियां संपूर्ण जीवन आपका साथ नहीं दे पाएगी। जिंदगी के अहम मोड़ पर इसने साथ छोड़ दिया तो जीवन के कोई मायने नहीं रह जाएंगे। आदमी स्वयं के जीवन के दीपक को हमेशा प्रज्वलित रखने का प्रयास करें। मन के भीतर का दीपक जब तक अपनी लौ बिखेरता रहेगा तब तक जिंदगी में भले ही कितने ही तूफान आ जाए, यह दीपक नहीं बुझेगा। हां यह बात अलग है कि दूसरों ने यदि मार्ग में प्रकाश के लिए आपके हाथ में दीपक दिया है तो इसकी कोई गारंटी नहीं है कि यह किसी आंधी अथवा तूफान का बचाव कर लें। इस तरह के दीपक का बुझना तो अवश्यभावी है।हमें इस बात का आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि हम किस दौर में जी रहे है। दूसरों के सहारे कब तक जीएंगे। हम प्रकृति के अनुरूप जीवन निर्वाह करने का प्रयास करें। इस दुनियां में हम आए है तो पूर्णत: निवस्त्र होकर और जाएंगे भी तो इसी परिवेश में। व्यक्ति के जीवन में तीन प्रकार की विशेषताओं का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। पहला वह जो संस्कृति के अनुकूल जीवन को जीता है, दूसरा वह जो विकृति में जीवन का निर्वाह करता है और तीसरा वह है जो दोनों के समावेश की जिंदगी का निर्वाह करता है।अब विषय को जीवन की तरफ लेकर जा रहा हु की जीवन में संगती साधू की हो या श्रावक की संगती कहते हैं कि व्यक्ति योगियों के साथ योगी और भोगियों के साथ भोगी बन जाता है। व्यक्ति को जीवन के अंतिम क्षणों में गति भी उसकी संगति के अनुसार ही मिलती है। संगति का जीवन में बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। संगति से मनुष्य जहां महान बनता है, वहीं बुरी संगति उसका पतन भी करती है। छत्रपति शिवाजी बहादुर बने। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनकी मां ने उन्हें वैसा वातावरण दिया। नेपोलियन जीवन भर बिल्ली से डरते रहे, क्योंकि बचपन में बिल्ली ने उन्हें डरा दिया था। माता-पिता के साथ-साथ बच्चे पर स्कूली शिक्षा का गहरा प्रभाव पड़ता है। कई बार व्यक्ति पढ़ाई-लिखाई करके उच्च पदों पर पहुंच तो जाता है, लेकिन संस्कारों के अभाव में, सही संगति न मिलने के कारण वह हिटलर जैसा तानाशाह बन जाता है। हमे गुरु का चयन भी सोच समझ कर करना चाहिए की हमारा गुरु सदाचारी हो भोगी नही , प्रशंसक नही क्यों की प्रशंसक गुरु सिर्फ अपने स्वार्थ का हितेषी होगा आपका मार्गदर्शक नही यह एक कटु सत्य है ! स्वार्थी गुरु सदाचरण के पालन से चाहे तो व्यक्ति ऐसा बहुत कुछ कर सकता है, जिससे उसका जीवन सार्थक हो सके, परंतु सदाचरण का पालन न करने से वह अंतत: खोखला हो जाता है। हो सकता है कि चोरी-बेईमानी आदि करके वह धन कमा ले, कुछ समय के लिए पद-प्रतिष्ठा अर्जित कर ले, लेकिन उसका अंत बुरा ही होता है। सत्संगति का, अच्छे विचारों का बीज बच्चे के मन में बचपन में ही बो देना चाहिए। व्यक्ति की अच्छी संगति से उसके स्वयं का परिवार तो अच्छा होता ही है, साथ ही उसका प्रभाव समाज व राष्ट्र पर भी गहरा पड़ता है। जहां अच्छी संगति व्यक्ति को कुछ नया करते रहने की समय-समय पर प्रेरणा देती है, वहीं बुरी संगति से व्यक्ति गहरे अंधकूप में गिर जाता है।भावार्थ गुरु शिक्षक व् मित्रो का चयन करते समय विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए ! ............
उत्तम विद्रोही
८४६०७८३४०१   

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

धर्म के नाम पर फेल् रहा व्याभिचार

धर्म के नाम पर फेल् रहा व्याभिचार
भव्य महलनुमा आश्रमों में धर्म की आड़ में व्याभिचार पनप रहा है और भोली-भाली जनता से ठगी की जा रही है ! यह आज का कटु सत्य है कुछ मामले मिडिया जागरूक होकर सामने ले आती है तो कुछ जागरूक स्त्री पुरुष खुद की छवि को नजर अंदाज करके ऐसे मामले जगजाहिर कर जनता को सन्देश देते है ! मगर ज्यादातर मामलो में नारी व्याभिचार मामले में डर के मारे चुप्पी साध लेती है ! क्या हम पढ़े-लिखे सभ्य व्यक्तियों को सचेत नहीं हो जाना चाहिए? जेसा मेने जाना समझा व् पढ़ा विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है हमारी। हमारे वैदिक साहित्य के चिंतन का केन्द्र है ! हिन्दू धर्म ऐसी जीवनशैली बनकर विकसित हुआ जो जनमानस के प्रत्येक क्रियाकलाप में परिलक्षित होता है, फिर चाहे वह चरणस्पर्श हो या तिलक लगाना। यहां किसी भी प्रकार की प्रतिद्वन्द्विता का प्रश्न ही निरर्थक है। हमारी इस महानतम संस्कृति की आज यह अधोगति कैसे? क्या हम पढ़े-लिखे सभ्य व्यक्तियों को सचेत नहीं हो चाहिए ?हर तरफ भाषण-प्रवचन हैं, स्त्री-शक्ति की स्तुतियां हैं, कविताई हैं, संकल्प हैं, बड़ी-बड़ी बातें हैं। आप यक़ीन मानिए यह सब सच नहीं, आपको बेवकूफ़ बनाने के सदियों पुराने नुस्खे है। आपने अपनी छवि ऐसी बना रखी है कि कोई भी आपकी प्रशंसा कर आपको अपने सांचे में ढाल ले जा सकता है। झूठी तारीफें कर हजारों सालों तक दुनिया के सभी धर्मों और संस्कृतियों ने इतने योजनाबद्ध तरीके से आपकी मानसिक कंडीशनिंग( ब्रेन वाश ) की हैं कि अपनी बेड़ियां और बेचारगी भी आपको आभूषण नज़र आने लगी हैं। आचरणहीन ही कलियुग में ज्ञानी व संन्यासी है, उनमें वैराग्य कहां रहा जो बहुत धन लगा कर अपने आश्रम सजाते हैं। यह क्या स्त्रियों को सचेत करने के लिए काफी नहीं? क्या हमें यह विचार नहीं करना चाहिए कि कैसे देखते ही देखते गुरु करोड़ों के मालिक बन जाते हैं? कैसे सैकड़ों एकड़ में फैले भव्य आश्रमों के कड़े पहरे में क्रियाकलाप, व्याभिचार की गतिविधियों की साधारण जनमानुस को भनक भी नहीं पड़ पाती? आज सबसे ज्यादा शिकार नारी समाज हो रहा है अफ़सोस बेइज्जती के डर की बेडियो में जकड़ी नारी आज इन महागुरु के शिकार होने के बाद भी चुप्पी साधे हुए रहती है ! नारी सुलभ सरलता व कोमलता का लाभ धर्म के कथित ठेकेदार कहू या महागुरु ने हमेशा से उठाया है! इसका दोष हम आसानी से परिस्थितियों पर थोप सकते हैं, कह सकते हैं कि हम हजारो साल से गुलाम रहे थे इसलिए आज पूजा अर्चना में इतने आडंबर व विविध पाखंड हैं। समय आ गया है कि स्त्रियां स्वयं से प्रश्न करें कि बड़ी-बड़ी गाडिय़ों व् आलिशान आश्रमों में रहने वाले व् देश-विदेश भ्रमण करते ये धर्मगुरु क्या वास्तव में जनसाधारण के निकट हैं, जिनके दर्शनमात्र के लिए भी टिकट हैं और कोंफ्रेंस रूम है ! क्यों स्त्रियां भावविभोर हो जिन गुरु महाराज के चरण रज को इतनी आतुर रहती हैं? आज स्वतंत्र भारत में पढ़ी-लिखी प्रबुद्ध महिलाएं यदि भावात्मक रूप से गुलाम रहें तो दोष किसका है? प्रचुर धनराशि के मालिक संतों को त्यागमयी वैरागी कहें तो क्या यह हास्यास्पद नहीं क्योंकि कबीर के ही शब्दों में 'साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि।धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहि। कहते हैं आस्था अंधी होती है लेकिन जब इस अंधेपन से बाहर निकलकर सच्चाई का सामना होता है तो अंधभक्तों का भरोसा अपने आराध्य से उठ जाता है। भारत में वैसे भी बाबाओं, स्वामियों और संन्यासियों के ढोंगी होने का लंबा इतिहास रहा है।
उत्तम विद्रोही
मो -८४६०७८३४०१ 

बुधवार, 27 जुलाई 2016

शक नामक बिमारी.. तबाह हो रहे इन्सान


शक नामक बिमारी.. तबाह हो रहे इन्सान



शक नामक बीमारी जो स्त्री, पुरूषों में प्रायः होती है लाइलाज है। ऊपर वाला न करे कि यह बीमारी किसी में हो। शक यानि संदेह जिसे अंग्रेजी में डाउट भीं कहते हैं एक ऐसी बीमारी है जो स्त्री-पुरूष के रिश्तों में दरार डालकर दोनों का जीवन दुःखद बनाती है। इसी शक पर पिछले दिनों मेरी एक लम्बी चौड़ी बहस पुराने मित्र से हुई। शक की बात चली तो उन्होंने कहा कि यह झूठ बोलने की वजह से होता है। झूठ तो सभीं बोलते हैं तो क्या सभीं पर शक किया जाए, इस पर वह बोले नहीं व्यापार में झूठ बोला जाता है। यदि सत्यवादी बन गए तो एक दिन कटोरा लेकर भीख मांगोगे। समय और परिस्थितियो के अनुसार ही झूठ-सच बोला जाता है। इस समय शक की बीमारी ने हर तरह की घातक बीमारियों को भीं काफी पीछे छोड़ दिया है। वो क्या है पति अपनी पत्नी पर, पत्नी अपने पति पर प्रेमी अपनी प्रेमिका और प्रेमिका अपने प्रेमी पर ‘शक’ करने लगे हैं। यार यह कोई नई बीमारी नहीं है सदियों से चलती आई रही है, और भविष्य (इन फ्यूचर) चलती रहेगी। देखो भाई जी लोग एक दूसरे को बेहद प्यार करते हैं वे नहीं चाहते कि उनके प्यार के बीच कोई दूसरा आए। वैसे तुमसे कुछ भीं अनजान नहीं है, ऐसा करो विषय वस्तु पर कुछ भी बोलने का ‘मूड’ नहीं हो रहा है। यार शक ‘डाउट’ संदेह आदि सब गुड़ गोबर कर देता है। इसका इलाज भीं नहीं है। कई लोग अपसेट हो चुके हैं। हमने देखा है कि शक्की मिजाज के कई स्वथ्य लोग और नवजवान स्त्री व पुरुष डिप्रेशन का शिकार होकर अच्छा खासा जीवन कष्टकारी बना डाला है। इन बेचारे कालीदासों को कौन कहे कि ‘शक’ करने की आदत को छोड़ दो मजे में रहोगे। रिश्ते वह भीं स्त्री-पुरूष के बहुत ही नाजुक होते हैं, इनको परखने के लिए मन की आंखे और दिमाग चाहिए। ‘शक’ की बीमारी से दूर रहकर ही प्रेम, प्यार का रिश्ता मजबूर रहेगा वर्ना.....।शक एक ऐसी मानसिक बीमारी व विकार है जो मात्र इंसानों पर को ही अपना शिकार बनती है | जानवरों में ऐसी बीमारियां देखने को नहीं मिलती | ये और बात है कि इस बीमारी के चलते मनुष्य में जानवरों से लक्षण दिखने लगते है | इसे कई अन्य नामों से भी पुकारा जाता है जैसे शंकालु , शक्की ,तुनुकमिजाजी आदि |यह बीमारी स्त्री और पुरुष दोनों पर अपना अलग-अलग प्रभाव दिखाती है | महिला या लड़की, शक की बीमारी से ग्रषित होने पर अत्यधिक कुढ़न ,जलन एवं मानसिक पागलपन महसूस करती है | गम्भीर अवस्था में वह स्वम् को भारी क्षति पहुचाने की कोशिश करती है | क्षति के रूप में कई दिनों तक भूखे पेट सोना ,पति या प्रेमी को प्रताड़ित करना ,बहसबाज़ी करना, खुद को मनोवैज्ञानिक रूप से परेशान करना ,झगडे के लिए हरवक्त उतारू रहना जैसी आदतें दृष्टिगोचर होती है | पर शक कि सीमा पार या बहुत गहरी होने पर महिला रोगी खुद की , पति एवं प्रेमी की जान कि प्यासी हो जाती हैं| इस बीमारी का अबतक कोई ईलाज उपलब्ध न होने के कारण पूरे चिकित्सा जगत में निराशा है | यह ऐसी खतरनाक और छुआछूत टाइप बीमारी है जो कभी भी किसी को भी किसी भी वक्त अपने शिकंजे में ले सकती है | में खुद की बात करू तो सबसे भाग्यशाली हु मेरी पत्नी मुझ पर कभी शक नही करती इसे में खुश किस्मती समझू या मेरा भी शक्की नही होना बस अब तो मेरा प्रवचन समाप्त नही तो शकी लोग बोेल उठेंगे नहीं डियर कलमघसीट विद्रोही यह साधारण बात नहीं है। तुम सीरियसली नहीं ले रहे हो, मेरी मानों औरइस विषय पर इतना ‘प्रवचन’ मत कहो। बी सीरियस, एण्ड टेक इट सीरियसली। वर्ना कहीं तुम्हारे (तुम-दोनों के) बीच ‘शक’ की बीमारी आ गई तब तो सब खेल चौपट, जिन्दगी तबाह, बरबाद।
डियर उपदेशक ऐसा नहीं है कि हमारे बीच ‘शक’ है। हम लोग रूठने-मनाने के लिए ड्रामा किया करते हैं और सच्चे प्यार को कसौटी पर कसकर उसकी मजबूती को देखते हैं। क्या समझे-यदि नहीं समझे तो हम क्या करें। तुम अपना काम कर रहे हो और हम हमारा। करते रहो, यही तो जिन्दगी है। बन्धु मगर यह मत सोचों कि हमारे प्यार के बीच किसी प्रकार के ‘शक’ की गुंजाइश है। बस ठण्ड रखो मजे करो हमे हमारे हाल पर रहने दो। .....
उत्तम जैन विद्रोही

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

राजनितिक पार्टिया और भ्रष्टाचार



राजनितिक पार्टिया और भ्रष्टाचार  



रंग बदलने की फितरत और उदाहरण भले ही गिरगिट के हिस्से में आते हैं, लेकिन मानव जाति में भी कम रंग बदलू लोग नहीं हैं। सबसे ज्यादा यह प्रजाति आपको लोकतंत्र के मंदिर में मिल जाएगी ! बल्कि ऐसे लोगों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। तो साहेबान, कदरदान, मेहरबान, पेश है भ्रष्टाचार में सर से पांव तक डूबे हमारे देश की दास्तान। बिना लिए-दिए तो बाबू के हाथ से फाईल आगे सरकती नहीं, अफसर के दस्तखत होते नहीं, भले ही चार के बजाय चालीस दिन और चार महीने बीत जाएं। आखिर परंपरा भी कोई चीज है भाई ! देश से अंग्रेज तो चले गए, पर अपनी कूटनीति का कुछ हिस्सा यहीं छोड़ गए। लिहाजा बचे हुए हिस्से को आजमाने का काम सरकारें करती रहती हैं, अफसर भी करते हैं कि फूट डालो, राज करो, सामने वाला तो अपने आप ही केकड़ा चाल में फंसकर खत्म हो जाएगा। समय की नजाकत देखते हुए जितनी बार कुछ नेताओं ने अपने रंग बदले हैं, उससे तो लगता है कि गिरगिट को किसी कोर्ट में ऐसे लोगों पर मानहानि का मुकदमा दायर कर देना चाहिए, आखिर उसके हक हिस्से का रंग बदलू काम किन्हीं और लोगों ने (नेताओ)  कैसे हथिया लिया। लेकिन यह गिरगिट की महानता ही है कि उन्होंने ऐसे लोगों को अदालती मामले में नहीं घसीटा और घसीट के करता भी क्या सलमान खान जेसे केस चलकर कुछ वर्षो में बाइज्जत बरी हो जाता ! उसे इस बात का फक्र भी है कि उसने अपना धर्म नहीं बदला, भले ही देश के आम लोगों का हक चूसकर मुटियाने वाले भ्रष्टाचारी अपना धर्म-ईमान बदलते रहें है !अब आप इसे मजाक में ले रहे हो मगर हमारे देश की सबसे गंभीर असाध्य समस्या है अब आम प्रजा को जागरूक होना होगा ! राजनीती का आज की सियासत ने क्या स्वरुप बना दिया ! साफ़ सुथरी सफ़ेद "खादी" को भी दागदार और कुरूप बना दिया जो नीति रची गयी थी देश और जनता के हित के लिए आज वही राजनीती तरस रही है अपने असली औचित्य के लिए राजनीती का असल औचित्य लौटना है, प्रजातंत्र में प्रजा का हित लौटाना है चेहरों की खोई दमक लौटाना है, खादी की खोई चमक लौटाना है ! वर्तमान में जिस प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियाँ देश में उत्पन्न की जा रही हैं उसमे साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता शब्द का बोलबाला है, अपने फायदे ले किये टोपी पहनने तथा पहनाने की बात अब पुरानी हो गयी है.! परम्परागत राजनीति में विशेष भाषा, परिधान और संस्कृति का दिखावी पोषण राजनीति शोषण का आधार बना. इसी के साथ-साथ सेक्युलरबनने की होड़ में अल्पसंख्यक राजनीतिका स्वरुप भी तैयार किया गया.! लेकिन तथ्यात्मक सामाजिक सत्य साबित करते हैं कि अब तक की जा रही इस राजनीति ने सामाजिक ताने-बाने को न सिर्फ गहरी चोट पहुचाई है बल्कि एक गहरी खाई बनाने का काम किया है. ये चार शब्द ... राजनीति का मूल स्तम्भ बन चूका है जिसके बिना आज की राजनीती अधूरी है जेसे शादी के लिए सात फेरे बिना शादी का कोई वजूद नही वेसे ही इन चार मुद्दों के बिना आज की राजनीती अधूरी है
1 शोषित, 2 पीड़ित ,3 वंचित  4 दलित..आज की राजनीती इन्ही मुद्दों के इर्दगिर्द घुमती हुई नजर आएगी ! क्युकी राजनेताओ के स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सिर्फ यही मुद्दे है ! भ्रष्टाचार (आचरण) की कई किस्में और डिग्रियाँ हो सकती हैं, लेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार समाज और व्यवस्था को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है। अगर उसे संयमित न किया जाए तो भ्रष्टाचार मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के मानस का अंग बन सकता है । मान लिया जाता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सभी को, किसी को कम तो किसी को ज़्यादा, लाभ पहुँचा रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार एक-दूसरे से अलग न हो कर परस्पर गठजोड़ से पनपते हैं। मौजूदा हालात में कोई भी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है.  
उत्तम जैन (विद्रोही )


सोमवार, 25 जुलाई 2016

बदलता बच्चो का परिवेश एक चिंतनीय



          बदलता बच्चो का परिवेश एक चिंतनीय 




मित्रों, आज बहुत दिनों से बच्चो के बदलते परिवेश को देखते हुए मानस पटल पर एक पीड़ा व् चिंतन उभर रहा है ! विचारों का प्रवाह किसी भंवर की तरह फिर मंथन कर रहा है शायद सारी बातें लिखना इतना आसान ना होगा फिर भी कोशिश है कि सम्पूर्ण विचारों का एक अंश मात्र ही लिख सकूँ तो बेहतर होगा आज इसी विषय पर लिखने बैठा हूँ मेरा लेखन व् पीड़ा तभी सार्थक होगी जब आप स्वय इस विषय पर चिंतन करेंगे अब मुख्य विषय पर ............!!
मैं और आप उस पीढ़ी है ! जिसने की कुछ स्वतंत्रता प्राप्ति के चंद वर्षो बाद में अपनी आँखें खोली और जो इस देश के साथ बड़े होते गए आज युवा से बुजुर्ग की और अग्रसर हो रहे है। मगर बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी व् आपकी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो चिमनी व् लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। हमारी पूर्व पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध्याय पढ़े हैं।और हमारी पीढ़ी ने भ्रष्ट नेताओ और राशन की पँक्तियों में खड़ी ग़रीबी देखी है और आज चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मगर आज के युवा के इस बदलते परिवेश को जब हम देखते है तो एक अलग अनुभूति होती है ! हमारे भारतीय सस्कृति में सयुंक्त परिवार प्रथा का प्रचलन प्राचीन काल से होता आया है ! जिसमे समस्त परिवार ,मुखिया के संचालन में ही संचलित होता था। परिवार के समस्त सदस्यों के कार्यो का विभाजन मुखिया के सहमत से ही होता था! परिवार के सभी सदस्य बिना किसी भेदभाव के एक ही छत के नीचे एक ही सांझे चूल्हे पर परिवार के वयोवृद्ध मुखिया की छत्र छाया में जीवनयापन करते थे। परन्तु आज के परिद्रश्य में हम उन्नत एवं प्रगति व विकास की दुहाई दे कर हम रिश्तों की उस खुशनुमा जिन्दगी को खोते जा रहे है और हम उस प्रथा को छोड़ने को मजबूर है। सयुंक्त परिवार मे अपने से बड़े व वृद्ध का मान ,सम्मान तथा उनकी भावनाओ को पूर्ण रूप से सम्मान दिया जाता था परन्तु आज के विकसित एकल परिवार में उक्त का विघटन होता जा रहा है एक दूसरे के प्रति प्रेम और सौहार्द तथा भाईचारे की भावना समाप्त होती जा रही है !यह एक चिंतनीय विषय है आज यदि अपने आसपास नज़र डाली जाये, आसपास ही क्यों यदि अपने घरों में भी झांका जाये तो साफ़ पता चल जाता है कि बच्चे अब बहुत बदल रहे हैं । हां ये ठीक है कि जब समाज बदल रहा है, समय बदल रहा है तो ऐसे में स्वाभाविक ही है कि बच्चे और उनसे जुडा उनका मनोविज्ञान, उनका स्वभाव, उनका व्यवहार सब कुछ बदलेगा ही। मगर सबसे बडी चिंता की बात ये है कि ये बदलाव बहुत ही गंभीर रूप से खतरनाक और नकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर है। आज नगरों , महानगरों में न तो बच्चों मे वो बाल सुलभ मासूमियत दिखती है न ही उनके उम्र के अनुसार उनका व्यवहार। कभी कभी तो लगता है कि बच्चे अपनी उम्र से कई गुना अधिक या कहू हमसे ज्यादा परिपक्व हो गये हैं। ये इस बात का ईशारा है कि आने वाले समय में जो नस्लें हमें मिलने वाली हैं..उनमें वो गुण और दोष ,,स्वाभाविक रूप से मिलने वाले हैं , जिनसे आज का समाज खुद जूझ रहा है।बदलते परिवेश के कारण आज न सिर्फ़ बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से अव्यवस्थित हो रहे हैं बल्कि आश्चर्यजनक रूप से जिद्दी , हिंसक और कुंठित भी हो रहे हैं। जिसका नतीजा सामने है पिछले एक दशक में ही ऐसे अपराध जिनमें बच्चों की भागीदारी में बढोत्तरी हुई है। इनमें गौर करने लायक एक और तथ्य ये है कि ये प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा,शहरी क्षेत्र में अधिक रहा है। बच्चे न सिर्फ़ आपसी झगडे, घरों से पैसे चुराने, जैसे छोटे मोटे अपराधों मे लिप्त हो रहे हैं..बल्कि चिंताजनक रूप से नशे, जुए, गलत यौन आचरण,फ़ूहड और फ़ैशन की दिखावटी जिंदगी आदि जैसी आदतों में भी पडते जा रहे हैं। बच्चों मे आने वाले इस बदलाव का कोई एक ही कारण नही है। इनमें पहला कारण है बच्चों के खानपान में बदलाव। आज समाज जिस तेजी से फ़ास्ट फ़ूड या जंक फ़ूड की आदत को अपनाता जा रहा है उसके प्रभाव से बच्चे भी अछूते नहीं हैं। बच्चों के प्रिय खाद्य पदार्थों में आज जहां, चाकलेट, चाऊमीन, तमाम तरह के चिप्स, स्नैक्स, बर्गर, ब्रेड आदि न जाने में तो नाम व् स्वाद भी नही जानता शामिल हो गये हैं ! परिणाम स्वरुप कहावत है "जेसा खाए अन्न वेसा होए मन" वहीं, फ़ल हरी सब्जी ,साग दूध, दालें जैसे भोज्य पदार्थों से दूरी बनती जा रही है। इसका परिणाम ये हो रहा है कि बच्चे कम उम्र में ही मोटापे, रक्तचाप, आखों की कमजोरी,हर्दयाघात और उदर से संबंधित कई रोगों व् सबसे भयानक मधुमेह का शिकार बनते जा रहे हैं। भारतीय बच्चों मे जो भी नैतिकता, व्यवहार कुशलता स्वाभाविक रूप से आती थी, उसके लिये उनकी पारिवारिक संरचना बहुत हद तक जिम्मेदार होती थी। पहले जब सम्मिलित परिवार हुआ करते थे., तो बच्चों में रिश्तो की समझ, बडों का आदर, छोटों को स्नेह, सुख दुख , की एक नैसर्गिक समझ हो जाया करती थी। उनमें परिवार को लेकर एक दायित्व और अपनापन अपने आप विकसित हो जाता था। साथ बैठ कर भोजन, साथ खडे हो पूजा प्रार्थना जो अभी दुर्लभ हो गयी है ! पूजा पाठ का स्थान आज व्हट्स अप , फेसबुक ने ले लिया है ! सभी पर्व त्योहारों मे मिल कर उत्साहित होना, कुल मिला कर जीवन का वो पाठ जिसे लोग दुनियादारी कहते हैं , वो सब सीख और समझ जाया करते थे। आज इस बात पर में मुख्य रूप से चिंता जाहिर करता हु कि आज जहां महानगरों मे मां-बाप दोनो के कामकाजी होने के कारण या पिता सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से दूर भागते हुए रुपयों के पीछे भाग रहा है ! बच्चे दूसरे माध्यमों के सहारे पाले पोसे जा रहे हैं या पथ से भ्रमित हो रहे है , वहीं दूसरे शहरों में भी परिवारों के छोटे हो जाने के कारण बच्चों का दायरा सिमट कर रह गया है । इसके अलावा बच्चों में अनावश्यक रूप से बढता पढाई का बोझ, माता पिता की जरूरत से ज्यादा अपेक्षा, और समाज के नकारात्मक बदलावों के कारण भी उनका पूरा चरित्र ही बदलता जा रहा है । यदि समय रहेते इसे न समझा और बदला गया तो इसके परिणाम निसंदेह ही समाज व् परिवार के लिये आत्मघाती साबित होंगे।
उत्तम जैन विद्रोही
मो- ८४६०७८३४०१ 

रविवार, 24 जुलाई 2016

भारतीय युवा भटकाव की राह पर ....



भारतीय युवा भटकाव की राह पर 
आज कल युवा वर्ग जो उच्च मध्यम वर्ग का है जो आज अपनी शिक्षा के बल पर उड़ना चाहता है । उसे परिवार से यही सीखने को मिल रहा है कि चार किताबें पढ़ कर अपने career (भविष्य ) को बनाओ, यह युवा अपनी सारी ऊर्जा केवल अपने स्वार्थ या उज्जवल भविष्य के लिए लगा देता है । आज के युवा वर्ग पर पश्चिम सभ्यता का अत्यधिक प्रभाव है। उनमें अपनी सभ्यता ,संस्कृती और मान्यताओं की कोई अहमियत नहीं रह गई है। युवा वर्ग का गलत रास्तों पर जाना भी पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते परिणाम का ही फल है। भारतीय समाज और युवा वर्ग पर यदि पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव इसी प्रकार बढ़ता रहा तो भारतीय सभ्यता व संस्कृति खतरे में पड़ सकती है। अभिभावको को चाहिए कि यदि वे भारतीय सभ्यता व संस्कृति को जीवंत रखने और सामाज से भ्रुण हत्या, दहेज प्रथा व अनपढ़ता जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए अपनी प्राचीन संस्कृति को ही अपनाएं और अपने बच्चों को भी इससे अवगत कराए ताकि युवा वर्ग को सही दिशा मिल सके। करना चाहता है इसके लिए पति-पत्नी दोनों पढ़े-लिखे होने के कारण नौकरी करना चाहते हैं और करते भी हैं जिसके कारण उनके पास समय नहीं होता की वे अपने बच्चो की पढाई पर पूरा ध्यान दे सकें। अपने बच्चो की पढाई के प्रति उदासीनता भी बच्चो को गलत राह पर ले जाती है। युवाओं में भटकाव के पीछे एकल परिवार भी महत्वपूर्ण कारक है। परिवार के नाम पर पति-पत्नी और बच्चे उनकी सोच-समझ अपने तक ही सीमित रहती है। आखिर परिवार ही बच्चों की प्रथम पाठशाला है।  यदि कभी भूले भटके उसका विचार देश या समाज की तरफ जाने लगता है तो घर परिवार और समाज उसे सब भूल कर अपने भविष्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर देता है । यह वर्ग भी अपने आप को देश और समाज से अलग ही अनुभव या यूं कहें की अपने आपको को समाज से श्रेष्ठ समझने लगता है और सामाजिक विषमता का होना उसके अहम को पुष्ट करता है ।ओर कभी आज के युवा हताशा में गलत कदम उठा लेते है ! युवा वर्ग की हताशा देश का दुर्भाग्य है क्योंकि न तो इस वर्ग मे हम उत्साह भर सके न ही समाज के प्रति संवेदनशीलता । एक प्रकार से यह वर्ग विद्रोही हो जाता है समाज के प्रति, परिवार के प्रति और अंत में राष्ट्र के प्रति । क्या हमने सोचा है कि ऐसा क्यों हो रहा है मुझे लगता है इसके पीछे कई वजह है , आज दुनिया भौतिकता वादी हो गयी है और लोगो की जरूरते उनकी हद से बाहर निकल रही है इसलिए उनके अंदर तनाव और फ़्रस्ट्रेशन बढ़ता जाता है , दूसरी बात पहले सयुंक्त परिवार थे तो अपनी कठिनाइया और तनाव घर में किसी ना किसी सदस्य के साथ बातचीत कर कम कर लेते थे घर में अगर कोई अकस्मात दुर्घटना हो जाती थी तो परिवार के बीच बच्चे बड़े हो जाते थे लेकिन आज न्यूक्लिअर फैमिली हो गयी है व्यक्ति को यही समझ में नहीं आता कि अपने दुःख-दर्द किसके साथ बांटे, पुरानी कहावत है कि पैर उतने ही पसारो जितनी बड़ी चादर हो लेकिन आज दूसरो की बराबरी करने के चक्कर में हम कर्ज लेकर भी अपनी हैसियत बढ़ाने की कोशिश करते है, आज के युवा वर्ग में जोश तो है पर आज के युवा को बहुत जल्दी बहुत सारा चाहिए और वो सब हासिल ना कर पाने पर डिप्रेशन में चले जाते है मेरा तो यही मानना है कि विपरीत समय और ख़राब हालात हमें जितना सिखाते है उतना हम अच्छे समय में नहीं सीख पाते इसलिए विपरीत समय को हमेशा ख़राब नहीं मानना चाहिए बल्कि विपरीत परिस्थितियों में हमें धैर्य रखना चाहिए और अच्छे समय का इंतज़ार करना चाहिए क्योंकि जिंदगी में अगर अँधेरा आया है तो उजाला भी आएगा अगर रात हुयी है तो सुबह भी होगी .....उत्तम जैन (विद्रोही)
 

शनिवार, 23 जुलाई 2016

ओरत...एक नजर मे

ओरत...एक नजर मे

औरत.. शब्द एक अनसुलझी व इश्वर की एक अनमोल रचना भी  है. वैसे तो इश्वर की हर रचना नायाब और अद्वितीय है पर इश्वर की यह रचना अतुलनीय है. बचपन से  मेरा मन इनकी और खिचता था. कुछ गलत मत सोचियेगाबस लगता था कुछ तो खास है इनमे जो हर तरफ इनका ही जलवा है हर तरफ इन्ही की चर्चा है. जैसे जैसे बड़ा होता गया बहुत कुछ जानने लगा इनके बारे में. जितना जाना मैंनेउतना ही उलझता चला गया. मेरा ज्यादा लेख व विचार इसी  प्रकृति पर लिखा गया है और हमेशा प्रयास रहता है इन्हें जानने का.पूरी तरह तो न जान पाया न जान पाऊँगा फिर भी कोशिश करता हु ! अकेला जब भी  बैठता हु  तो शायद ही कोई ऐसा दिन बीता होगा जिसमे मेरे मानस पटल पर  चर्चा का विषय नहीं रहा हो . सही बताऊ कभी कभी लगता था की अगर इश्वरने इनकी रचना नहीं की होती तो तबाही आ जाती. तबाही आती या नहीं आती हम बिलकुल खाली या यू कहे की बिना किसी मकसद के जीतेकम से कम अपना समय इनकी बातें कर के काट तो लेते थे.आज वक़्त इतना गन्दा आ गया है की हर दूसरा इंसान गन्दा बन गया है किसी न किसी लालच में. जब कोई मर्द महिलाओं के बारे में सोचता है तो वो ये क्यों भूल जाता है की उसके घर में भी महिला है और दुसरे भी उनको उसी नज़र से देख सकते है. वो क्यों भूल जाता है कि औरत का एक रूप सिर्फ वो औरत नहीं जिसे वो गन्दी नज़र से देख रहा है बल्कि माँबहन और पत्नी भी है जिनके बगैर मर्द एक कदम नहीं चल सकता.लोगो को याद है की महात्मा गाँधी ने देश के लिए बड़ी क़ुरबानी दी पर ये भूल जाते है मोहन दास करमचंद गाँधी को महात्मा कस्तूरबा ने बनाया लोग भूल जाते है गाँधी से ज्यादा बलिदान और त्याग कस्तूरबा ने किया जो न सिर्फ उनके घर को उनके अनुपस्थिति में संभाली वरन उनका हर नाजुक वक़्त पर साथ भी दी.ऐसे लोगो को क्यों याद नहीं रहता कि किसी से भी बढ़ कर औरतो ने समाज कल्याण का काम किया है उदहारण के तौर पर आप मदर टेरेसा, इन्दिरा गांधी  को ही ले लीजिये. उदहारण और मिल जायेंगे अगर पुरूष अपने अहम् से बहार निकल कर देखेगा तो.कुछ लोगो ने यहाँ तक कहा कि अरे भाई महापुरूष होते है पर महानारी सुना है? “औरतों की क्या औकात यार कि कोई बड़ा काम ये कर पाए”.मजाक में जीने वाले इंसान हर चीज का मजाक ही बनाते है पर अज्ञानी को ये पता नहीं होता सच मरता नहीं कभी ज्ञान के प्रकाश को कोई अँधेरा नहीं निगल सकता. जितने महापुरूष का नाम आप जानते है वो महापुरूष नहीं होते अगर इनसे जुडी महिलाओ ने इनसे बढ़ कर अपने स्वार्थो का त्याग नहीं किया होता तो. आखिर महापुरूष भी किसी महिला के कोख से ही पैदा होते है आम आदमी की तरह. हमे नहीं भूलना चाहिए नारी जननी है. आज भारतीय समाज जीवित है तो इसमें मर्दों से कई गुना ज्यादा श्रेय इन महिलाओं को जाता है जो हर जगह छोटे या बड़े स्वार्थो की पूर्ती के लिए उपयोग की जाती है. यही नहीं सारे अत्याचार इन्ही पर होते है और फिर भी इनकी सहनशीलता तो देखिये आज भी मुह बंद किये और नज़रे झुकाए जी रही है और राष्ट्र निर्माण का महान कार्य कर रही है. हे महिलाओं मैं अपनी हर भूल की माफ़ी तुमसे मांगता हूँ और तुम्हारे इन त्याग और निस्वार्थ जीवन को शत शत नमन करता हूँ. मैं तुमसे तुम्हारी औकात नहीं पूछूँगा क्युकी मैं जान गया हूँ तुम क्या होशांत रही तो तुम्ही लक्ष्मी तुम्ही रिधि सीधी हो और अशांत हुई तो तुम ही काली दुर्गा हो……
उत्तम जैन ( विद्रोही)

एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति




एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति



वर्तमान समय में और विशेषकर भारत के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक नेतागण, इस बात की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए. यह इस लिए प्रबल समस्या बन गई है कि राजनीति के काम में सब जगह धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को राजनीति से जोड़ने की कोशिश करते हैं. ऐसा करने से उनके धर्म को बल मिलता है. और शक्ति से लोगों को विवश किया जाता है कि उनके धर्मों में अधिक से अधिक लोग आएं ताकि उस धर्म के अनुयायी अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बना लें !भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है यहाँ विभिन्न प्रकार के धर्म पाये जाते है और उन धर्मों के अनुसार भारतीय समाज में नाना प्रकार की परम्पराएं और प्रथाऐं प्रचलित हैं, इन सबमें भारतीय समाज, भारतीय साहित्य, सभ्यता और संस्कृति, भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक बड़े पैमाने तक प्रभावित किया है। इस प्रभाव की विचित्रताओं, विशिष्टताओं और विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि यह कहा जाये कि भारत विभिन्न धर्मों का अजायबघर है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोकतान्त्रिक देश की राजनीती की और आपको लेकर चलू तो ‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं,और धर्म व् राजनीती का मूल सिद्दांत है - धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। अब क्युकी हमारे देश मे दो प्रकार के भ्रम फल-फूल रहे हैं। कुछ लोग धर्म को गलत अर्थ निकालते हुये उसे सिर्फ और सिर्फ उपासना पद्धति से जोड़ते हैं। कुछ लोग राजनीति को गंदे लोगों के लिए सुरक्षित छोड़ देते हैं। धर्म का गलत अर्थ लेने की वजह से राजनीति भी गलत अर्थों मे ली जाती है परिणाम यह है कि राजनीति भी ‘धर्म’ की ही भांति गलत लोगों के हाथों मे पहुँच गई है। देश-हित,समाज-हित की बातें न होकर कुछ लोगों के मात्र आर्थिक-हितों का संरक्षण ही आज की राजनीति का उद्देश्य बन गया है। नेता का अर्थ है जो समाज, देश या वर्ग समूह का नेतृत्व करता है वह नहीं जो खुद का नेतृत्व करता है और सत्ता की कुर्सी पर बैठकर अपनी महत्वकांक्षा साधता हो। देश का नेतृत्व किसके हाथ में हो अब जनता तय करती है भ्रष्ट्राचारी, अपराधी , विश्वासघाती लोग ही इस देश का नेतृत्व करे, यही जनता चाहती है तो इनका चुनाव करने के लिए वह स्वतन्त्र है।धर्म गुरूओं द्वारा धर्म का जो वर्तमान स्वरूप बदला जा रहा है या कहे तो शब्दों का ताना-बुना कर अनुयायी के मन मे धर्म का जो बीजारोपण किया जा रहा है उस पर शायद ही किसी सच्चे अनुयायी को गर्व होना चाहिए। रही सही कसर हमारे राजनेताओं ने पूरी कर दी है। परिणामतः धर्म का अस्तित्व खतरे में नहीं है, वस्तुतः धर्म के कारण मानव समुदाय का अस्तित्व ही खतरे में है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ धर्म के कारण अस्थिरता, अराजकता एवं भय का वातावरण नहीं हो फिर भी बहुत कम लोग इस संबंध में बोलने का दुस्साहस करता है।आज राजनीती की स्थिति को हर कोई जानता है । सब के मुंह से एक ही बात सुनने को मिलती है की , राजनीती बड़ी गन्दी हो गई है। आज कोई राजनीती की और जाना पसंद नही करता !अगर यह बात सत्य है तो हमारे देश की व्यवस्था को , हमारे समाज को इस गन्दी नीती से क्यो चलाया जाय ? इस नीति को साफ़ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनाया जाय या फ़िर देश की व्यवस्था को किसी दूसरी व्यवस्था से चलाया जाय। राजनीती को कोसने या नेताओ को गालिया देने से क्या होगा ? अगर बात राजनीती को साफ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनने की करे तो प्रश्न उपस्थित होता है की , यह शुभ कार्य करेगा कौन ? अगर कोई करेगा नहीं तो हमे यह साफ-सुंदर स्वच्छ लोकतांत्रिक परिकल्पना को भी भुला देने की जरूरत है और हमे यह कहने का भी अधिकार नहीं की राजनीत बहुत गंदी हो गयी है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था, ‘मेरे लिए धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है। मेरा धर्म सार्वभौम और सहनशील धर्म है, अंधविश्वासो और ढकोसलों का धर्म नहीं। वह धर्म भी नहीं, जो घृणा कराता है और लड़ाता है। नैतिकता से विरक्त राजनीति को त्याग देना चाहिए.’ उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है, पर उनके नाम का इस्तेमाल करके सत्ता-सुख भोगने वालों ने इसे बहुत पहले त्याग दिया था. आज उनकी राजनीति अनैतिकता से भरपूर है। गांधी जी का यह विचार अब अप्रासांगिक हो गया है आज का धर्म ने अपना मूल स्वरूप त्याग कर समाज मे गलत व्यसन, कुकृत्य और धर्म को अधर्म मे परिवर्तन करने का स्वरूप बन कर रह गया है। अब धर्म राजनीति और राजनीति समाज देश को दिशा तो नही देता परंतु दोनों चेले-गुरु का दामन थाम अपनी अपनी स्वार्थ की रोटियाँ जरूर पक्का रहे है।यह तो जनता का सरोकार है अधिकार है बोलने की आज़ादी है राजनेताओं को चुनने का हक़ है आख़िर बार-बार हर बार जनता एक मौक़ा और क्यों दे ताकि वह अपनी रही-सही महत्वकांक्षा भी पूर्ण कर सकें। अब तो अपने सरोकार के लिए, अपने आने वाले भविष्य के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी और कहना होगा, ‘अब यह नहीं चलेगा’ ।हम जिस दौर में जी रहे है, उस दौर मे हंस के टाल देने वाली बातो पर हमारा खून खौल उठता है और जिन बातो पर वाकई हमारा खून खौलना चाहिए, उन्हें हम बेशर्मी से हंस के टाल देते है।आज जरुरत है धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’ धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। तभी धर्म एवं राजनीति के विवेकपूर्ण मिलन से एक आदर्श व् उन्नत समाज और उज्जवल राष्ट्र का निर्माण होगा !
उत्तम जैन ( विद्रोही )
मो-८४६०७८३४०१ 

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

वर्तमान की शिक्षा प्रणाली - मेरा दर्द




वर्तमान की शिक्षा प्रणाली - मेरा दर्द
देश को बदलना है तो शिक्षा का प्रारूप बदलो
आज एक पुस्तक पर मेरी नजर पड़ी जिसमे लिखा था --जिस शिक्षा से हम अपने जीवन का निर्माण कर सके , मनुष्य बन सके , चरित्र गठन कर सके और विचारो का सामंजस्य कर सके वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है ... स्वामी विवेकानन्द की यह पंक्तिया आज मेने एक जब पढ़ी कुछ दिनों पूर्व की शिक्षा से जुडा मेरा मानसिक तनाव कहू या या मेरी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली पर मेरा चिंतनीय विषय ने मुझे लिखने को मजबूर कर दिया ! क्यों की चंद दिनों पूर्व ही मेरा पुत्र 12 वि में वाणिज्य संकाय में गुजरात बोर्ड में अपेक्षितअंको/ प्रतिशत से कम 51 प्रतिशत ही प्राप्त कर पाया ! मे व् मेरे पुत्र को मानसिक तनाव तो परिणाम आने के बाद बढ़ ही गया था क्यों की मेरा पुत्र B.B.A में दाखला लेना चाहता था मगर परिणाम के प्रतिशत को देखते हुए वीर नर्मद यूनिवर्सिटी से पहले व् दुसरे चक्र में उसका नाम किसी महाविद्यालय में नामित नही हुआ ! वर्तमान में आज के हताश विद्यार्थी के आत्महत्या के किस्से सुन में डर के मारे अपने पुत्र को प्रतिदिन होंसला देता रहता था चिंता न करो दाखला हो जायेगा ! पुत्र को चिंतित देख में खुद मानसिक तनाव में था ! खुद पहुच गया स्वयं निर्भर(सेल्फ फायनेंस ) महाविद्यालय में जहा दूसरी यूनिवर्सिटी से M.M.A नामक कोई कोर्स जिसे 5 वर्ष में पूर्ण करने पर B.B.A व् M.B.A की ऐसी ही कुछ डिग्री मिलेगी ! मरता क्या न करता दाखला लेने को तेयार हुआ और मुझे बताया गया 1 लाख डोनेशन प्रवेश के लिए व् प्रति सेमेस्टर (छह माह ) फीस ३१५०० /- भुगतान करना पड़ेगा ! मुझ जेसे साधारण व्यक्ति के सामने आँखों के आघे अँधेरा छा गया ! मुह लटकाकर बिना कुछ बोले जेहन में एक दर्द लेकर बाहर निकला ! अब मानस पटल पर मेरे विचार शिक्षा पर आये प्रेषित ----
शिक्षा का व्यवसायीकरण या बाजारीकरण आज देश के समक्ष बड़ी चुनौती हैं !
किसी भी समस्या का समाधान चाहते है तो उसकी जड़ में जाने की आवश्यकता होती है। शिक्षा में वर्तमान का व्यवसायीकरण का कारण क्या है? उसका समाधान क्या हो? कुछ लोग ऐसा भी तर्क देते है कि शिक्षा का विस्तार करना है या सर्वसुलभ कराना है तो मात्र सरकार के द्वारा संभव नहीं है, निजीकरण आवश्यक है और जो व्यक्ति शिक्षा संस्थान में पैसा लगायेगा वह बिना मुनाफे क्यों विद्यालय,महाविद्यालय खोलेगा?यह तर्क भी बिल्कुल सही है कुछ लोग इससे भी आगे बढ़कर कहते है कि देश की शिक्षा का विस्तार एवं विकास करने हेतु विदेशी शैक्षिक संस्थाओं के लिए द्वारा खोलने चाहिए। वैश्वीकरण के युग में इसको रोका नहीं जा सकता आदि प्रकार के विभिन्न तर्क दिये जा रहे है। यह सारे तर्क तथाकथित सभ्रांत वर्ग के द्वारा ही दिये जाते है। अगर मुख्य मुद्दे पर नजर डाली जाये तो पूर्व में शैक्षिक संस्थाए या तो सीधे तोर पर सरकार चलाती थी या सरकार के अनुदान से संस्थाएं चलती थी। विद्यार्थियों का निष्चित शुल्क शिक्षकों का निष्चित वेतन एवं संस्था चलाने हेतु अनुदान जैसी व्यवस्थाए बनी।
कुछ समय के बाद सरकारी शैक्षिक संस्थाओं के स्तर में लगातार गिरावट आती गई। इस कारण से निजी विद्यालयों का आकर्षण बढ़ा शुरू में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में वस्तुओं के रूप में दान लेना शुरू हुआ। आगे जाकर छात्र से बड़ी मात्रा में दान लेना, शिक्षकों की निुयक्ति में पैसा लेना और कम वेतन देना शुरू हुआ। विद्यालयों में शिक्षा के स्तर गिरने से ट्यूशन प्रथा प्रारम्भ हुई। क्रमशः शिक्षा का स्वरूप धन्धे जैसा बनने लगा।यह सब कार्य शासन-प्रशाासन एवं शिक्षा माफियाओं की मिलीभगत से होने लगे। जिसका आज इस प्रकार विभत्स स्वरूप बन गया कि शिक्षा यह सब्जी मंडी का बाजार जैसे हो गई है । आज अराजकता का माहौल है। शुल्क न भर सकने के कारण छात्र आत्महत्याएं कर रहे है। अभिभावक इस हेतु गलत कार्य करने को मजबूर है। एक प्रकार से व्यवसायिक उच्च-शिक्षा उच्च मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के बस की बात नही रही। प्रष्न उठता है इस प्रकार के लगभग 20 प्रतिशत वर्ग को छोड़कर 80 प्रतिशत वर्ग के बच्चे प्रतिभावन नहीं है क्या? इससे देश की प्रतिभाएं भी कुठित हो रही है। इन सारी परिस्थितियों के कारण वर्तमान में शिक्षा का मात्र बजारीकरण नहीं हुआ है। एक प्रकार से अतिभ्रष्ट व्यापार हो गया है। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र किस प्रकार के निर्माण होगे? और इस प्रकार के छात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करेंगे तब देश का चरित्र कैसा बनेगा? यह बड़ा प्रश्न है। देश में भ्रष्टाचार, अनाचार, चरित्र-हीनता बढ़ रही है उसकी चिंता करने से कुछ परिणाम नहीं होगा। जब तक शिक्षा का बाजारीकरण नहीं रूकेगा तब तक बाकी सारी गलत बातें बढ़ना स्वाभाविक है। देश की सभी समस्याओं की जड़ वर्तमान शिक्षा है। इसके लिए कुछ मेरे समाधान हेतु सुझाव की शिक्षा प्रणाली केसी हो -शिक्षा के व्यापारीकरण, बाजारीकरण को रोकने हेतु केन्द्र सरकार कानून बनाये।
1. शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार पर रोक लगे।
2 .विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत के शैक्षिक संस्थानों से भी कड़े कानून हो। उनका प्रत्ययायन एवं मूल्यांकन उस देश में तथा भारत में भी हो ।
अपने देश की विशेषकरके सरकारी शैक्षिक संस्थानों की गुणवत्ता सुधार हेतु ठोस योजना बनें।
३. उच्च शिक्षा विशेषकरके व्यवसायी उच्च शिक्षा को मात्र निजी भरोसे पर न छोड़ा जाए। सरकार के द्वारा भी नये शैक्षिक संस्थान शुरू करने की योजना बनें।
शिक्षा की भारतीय संकल्पना को पुनः स्थापित करने हेतु प्रयास किये जाएं।
शिक्षा मात्र सरकार का दायित्व न होकर समाज भी अपने दायित्व का निर्वाह करें।..... सुझाव तो बहुत है मगर सिर्फ ३ सुझाव पर भी ध्यान दे दिया जाये तो शिक्षा जगत में काफी परिवर्तन हो सकता है
उत्तम जैन (विद्रोही )
मो- ८४६०७८३४०१ 

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

कन्या भ्रूण हत्या एक अभिशाप

                 कन्या भ्रूण हत्या एक अभिशाप


                     
                                 मेरी हत्या न करो माँ
                                 मैं तेरा ही अंश हूँ माँ
                                पिताजी को समझा दो माँ
                                पिताजी को मना लो माँ






कन्या भ्रूण हत्या के रूप में हम अपनी जल्लाद मानसिकता के साथ सांस्कृतिक पतन की सूचना संसार को दे रहे हैं। यह महापाप है। अक्सर इसके लिए स्त्रियों को जिम्मेदार ठहराकर "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है" वाला रटा रटाया फार्मूला सुनते है। सच तो यह है कि हम पुरुषो ने भ्रूणहत्या में अपने दोष को कभी देखा ही नही या देखकर खुद को नजर अंदाज कर दिया है ! पुरुष प्रधान भारतीय समाज में सक्षम स्त्री भी हर फैसले के लिए पुरुष का मुंह ताकती हैं। वह प्रणय क्रीड़ा में सहभागी होना चाहती है या नहीं, गर्भ निरोधक इस्तेमाल करे या ना करे, कितने बच्चों को कब जन्म दे, वे लड़के होंगे या लड़कियां, उन्हें शिक्षा कहां और कितनी देनी हैं- ये सब पुरुष तय करता है। जहां स्त्री का अपनी देह पर अधिकार नहीं होगा वहां कन्या भ्रूण हत्या तो होगी ही। अधिकांश मामलों में स्त्री विवश कर दी जाती है और न करने की स्थिति में उसका जीना हराम कर दिया जाता है। कन्या भ्रूण हत्या के लिए पुरुष ही पूर्णत: जिम्मेदार हैं। मरने के मुखाग्नि देने, तर्पण करने, वंशवृद्धि और संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए कुलदीपक" अर्थात् पुत्र की चाह होती है। चाहे उसके कारनामे कुल-काजल क्यों न हों। पुरुष, पुत्रजन्म को अपनी मर्दांनगी से जोड़ते हैं। कन्या भ्रूण हत्या 21वीं सदी के माथे पर कलंक है। स्त्री के अस्तित्व को गर्भ में ही नष्ट करने का कुकृत्य हो रहा है। "प्राइवेट क्लिनिक" कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं जो समाज की इस रुग्ण मानसिकता को अपने हक में भुनाकर चांदी काट रहे हैं। मुख्यतया सभी समाज में तो दुल्हनें अन्य समाज से "आयात" करनी पड़ रही हैं। कही परिवार तो ऐसे जहां राखी बांधने के लिए बहनें ही नहीं हैं।
स्त्री पुरुषों का अनुपात, खतरनाक रूप से असन्तुलित हो चुका है। प्रकृति के साथ यह क्रूर मजाक समाज पर ही भारी पड़ रहा है। जिस समाज की नैतिक चेतना सदियों से कुभकर्णी नींद में हो, उसे जगाने के लिए आज पुन: ढोल-नगाड़ों की जरूरत है। केवल कानून बनाना जरूरी नहीं, उसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। गैरसरकारी सामाजिक संगठनों से भी सन्देश पहुंचना चाहिए। शिक्षक ही नहीं, धर्म गुरु भी इसमें अपनी भूमिका तय करें, शास्त्रों में ईश्वर को "त्वं स्त्री" कहकर नारी रूप में आराधना की गई हैं, क्योंकि नारी अपनी सीमाओं में संपूर्णता की वाहक है।सामाजिक रूढ़ियां, पूर्वाग्रह, दहेज, शिक्षा-ब्याह पर होने वाला खर्च (क्योंकि लड़की को दूसरे घर जाना होता है) और असामाजिक आचरण से उसकी रक्षा, ऐसे कई कारण हैं जो कन्या भ्रूण हत्या के गर्भ में हैं। कन्या को मार दो और जिन्दगी भर के लिए बिंदास हो जाओ- पर इस नीच वृत्ति के लोग यह नहीं सोचते कि उनकी अगली पीढ़ी को शादी के लिए लड़कियां कहां से मिलेंगी। वे स्वयं भी तो किसी स्त्री से जन्मे हैं। कन्या भ्रूण हत्या के रूप में वे आत्मघात ही कर रहे हैं।
हमें बेटी को पराया धन और बेटे को कुल दीपक की मानसिकता से ऊपर उठने की जरूरत है। यह सोचा जाना भी आवश्यक है कि भ्रूण हत्या करके हम किसी को अस्तित्व में आने से पहले ही खत्म कर देते हैं। आज के दौर में बेटीयां बेटे से कमतर नहीं है। इस गलत परम्परा को रोकने के लिये हम सभी को मिलकर तेजी से अभियान चलाना होगा। सरकारी सहयोग की अपेक्षा हमें नही करनी चाहिये। इस मामले में कानून भी लाचार सा ही दिखता है। जाँच सेन्टरों के बाहर बोर्ड पर लिख देने से कि "भ्रूण जाँच किया जाना कानूनी अपराध है।" उन्हें इसका भी लाभ मिला है। जाँच की रकम कई गुणा बढ़ गई। रोजाना गर्भपात के आंकड़े चौकाने वाले बनते जा रहे हैं, चुकिं भारत में गर्भपात को तो कानूनी मान्यता है, परन्तु गर्भाधारण के बाद गर्भ के लिंक जाँच को कानूनी अपराध माना गया है। यह एक बड़ी विडम्बना ही मानी जायेगी कि इस कानून ने प्रचार का ही काम किया। जो लोग नहीं जानते थे, वे भी अब गर्भधारण करते वक्त इस बात की जानकारी कर लेते हैं कि किस स्थान पर उन्हें इस बात की जानकारी मिल जायेगी कि होने वाली संतान नर है या मादा। धीरे-धीरे लिंगानुपात का आंकड़ा बिगड़ता जा रहा है। यदि समय रहते ही हम नहीं चेते तो इस बेटे की चाहत में हर इंसान जानवर बन जायेगा। भले ही हम सभ्य समाज के पहरेदार कहलाते हों, पर हमारी सोच में भी बदलाव लाने की जरूरत है !
उत्तम जैन(विद्रोही)
uttamvidrohi121@gmail.com
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नोट - मेरे इन विचारो से आप अगर प्रभावित है ! और इन विचारो से आप सहमत है तो बिना कांट छांट किये व् लेखक का नाम हटाये बिना श्योसल मिडिया ( व्ह्ट्स अप , फेसबुक , ट्विटर , अपने समाचार पत्रों में जरुर स्थान दे / फोरवर्ड करे ! अगर कुछ दो चार महानुभाव भी भ्रूण हत्या नही करेगे तो मेरा लेखन सफल हो जायेगा !