सामाजिक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सामाजिक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 25 जुलाई 2016

बदलता बच्चो का परिवेश एक चिंतनीय



          बदलता बच्चो का परिवेश एक चिंतनीय 




मित्रों, आज बहुत दिनों से बच्चो के बदलते परिवेश को देखते हुए मानस पटल पर एक पीड़ा व् चिंतन उभर रहा है ! विचारों का प्रवाह किसी भंवर की तरह फिर मंथन कर रहा है शायद सारी बातें लिखना इतना आसान ना होगा फिर भी कोशिश है कि सम्पूर्ण विचारों का एक अंश मात्र ही लिख सकूँ तो बेहतर होगा आज इसी विषय पर लिखने बैठा हूँ मेरा लेखन व् पीड़ा तभी सार्थक होगी जब आप स्वय इस विषय पर चिंतन करेंगे अब मुख्य विषय पर ............!!
मैं और आप उस पीढ़ी है ! जिसने की कुछ स्वतंत्रता प्राप्ति के चंद वर्षो बाद में अपनी आँखें खोली और जो इस देश के साथ बड़े होते गए आज युवा से बुजुर्ग की और अग्रसर हो रहे है। मगर बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी व् आपकी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो चिमनी व् लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। हमारी पूर्व पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध्याय पढ़े हैं।और हमारी पीढ़ी ने भ्रष्ट नेताओ और राशन की पँक्तियों में खड़ी ग़रीबी देखी है और आज चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मगर आज के युवा के इस बदलते परिवेश को जब हम देखते है तो एक अलग अनुभूति होती है ! हमारे भारतीय सस्कृति में सयुंक्त परिवार प्रथा का प्रचलन प्राचीन काल से होता आया है ! जिसमे समस्त परिवार ,मुखिया के संचालन में ही संचलित होता था। परिवार के समस्त सदस्यों के कार्यो का विभाजन मुखिया के सहमत से ही होता था! परिवार के सभी सदस्य बिना किसी भेदभाव के एक ही छत के नीचे एक ही सांझे चूल्हे पर परिवार के वयोवृद्ध मुखिया की छत्र छाया में जीवनयापन करते थे। परन्तु आज के परिद्रश्य में हम उन्नत एवं प्रगति व विकास की दुहाई दे कर हम रिश्तों की उस खुशनुमा जिन्दगी को खोते जा रहे है और हम उस प्रथा को छोड़ने को मजबूर है। सयुंक्त परिवार मे अपने से बड़े व वृद्ध का मान ,सम्मान तथा उनकी भावनाओ को पूर्ण रूप से सम्मान दिया जाता था परन्तु आज के विकसित एकल परिवार में उक्त का विघटन होता जा रहा है एक दूसरे के प्रति प्रेम और सौहार्द तथा भाईचारे की भावना समाप्त होती जा रही है !यह एक चिंतनीय विषय है आज यदि अपने आसपास नज़र डाली जाये, आसपास ही क्यों यदि अपने घरों में भी झांका जाये तो साफ़ पता चल जाता है कि बच्चे अब बहुत बदल रहे हैं । हां ये ठीक है कि जब समाज बदल रहा है, समय बदल रहा है तो ऐसे में स्वाभाविक ही है कि बच्चे और उनसे जुडा उनका मनोविज्ञान, उनका स्वभाव, उनका व्यवहार सब कुछ बदलेगा ही। मगर सबसे बडी चिंता की बात ये है कि ये बदलाव बहुत ही गंभीर रूप से खतरनाक और नकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर है। आज नगरों , महानगरों में न तो बच्चों मे वो बाल सुलभ मासूमियत दिखती है न ही उनके उम्र के अनुसार उनका व्यवहार। कभी कभी तो लगता है कि बच्चे अपनी उम्र से कई गुना अधिक या कहू हमसे ज्यादा परिपक्व हो गये हैं। ये इस बात का ईशारा है कि आने वाले समय में जो नस्लें हमें मिलने वाली हैं..उनमें वो गुण और दोष ,,स्वाभाविक रूप से मिलने वाले हैं , जिनसे आज का समाज खुद जूझ रहा है।बदलते परिवेश के कारण आज न सिर्फ़ बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से अव्यवस्थित हो रहे हैं बल्कि आश्चर्यजनक रूप से जिद्दी , हिंसक और कुंठित भी हो रहे हैं। जिसका नतीजा सामने है पिछले एक दशक में ही ऐसे अपराध जिनमें बच्चों की भागीदारी में बढोत्तरी हुई है। इनमें गौर करने लायक एक और तथ्य ये है कि ये प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा,शहरी क्षेत्र में अधिक रहा है। बच्चे न सिर्फ़ आपसी झगडे, घरों से पैसे चुराने, जैसे छोटे मोटे अपराधों मे लिप्त हो रहे हैं..बल्कि चिंताजनक रूप से नशे, जुए, गलत यौन आचरण,फ़ूहड और फ़ैशन की दिखावटी जिंदगी आदि जैसी आदतों में भी पडते जा रहे हैं। बच्चों मे आने वाले इस बदलाव का कोई एक ही कारण नही है। इनमें पहला कारण है बच्चों के खानपान में बदलाव। आज समाज जिस तेजी से फ़ास्ट फ़ूड या जंक फ़ूड की आदत को अपनाता जा रहा है उसके प्रभाव से बच्चे भी अछूते नहीं हैं। बच्चों के प्रिय खाद्य पदार्थों में आज जहां, चाकलेट, चाऊमीन, तमाम तरह के चिप्स, स्नैक्स, बर्गर, ब्रेड आदि न जाने में तो नाम व् स्वाद भी नही जानता शामिल हो गये हैं ! परिणाम स्वरुप कहावत है "जेसा खाए अन्न वेसा होए मन" वहीं, फ़ल हरी सब्जी ,साग दूध, दालें जैसे भोज्य पदार्थों से दूरी बनती जा रही है। इसका परिणाम ये हो रहा है कि बच्चे कम उम्र में ही मोटापे, रक्तचाप, आखों की कमजोरी,हर्दयाघात और उदर से संबंधित कई रोगों व् सबसे भयानक मधुमेह का शिकार बनते जा रहे हैं। भारतीय बच्चों मे जो भी नैतिकता, व्यवहार कुशलता स्वाभाविक रूप से आती थी, उसके लिये उनकी पारिवारिक संरचना बहुत हद तक जिम्मेदार होती थी। पहले जब सम्मिलित परिवार हुआ करते थे., तो बच्चों में रिश्तो की समझ, बडों का आदर, छोटों को स्नेह, सुख दुख , की एक नैसर्गिक समझ हो जाया करती थी। उनमें परिवार को लेकर एक दायित्व और अपनापन अपने आप विकसित हो जाता था। साथ बैठ कर भोजन, साथ खडे हो पूजा प्रार्थना जो अभी दुर्लभ हो गयी है ! पूजा पाठ का स्थान आज व्हट्स अप , फेसबुक ने ले लिया है ! सभी पर्व त्योहारों मे मिल कर उत्साहित होना, कुल मिला कर जीवन का वो पाठ जिसे लोग दुनियादारी कहते हैं , वो सब सीख और समझ जाया करते थे। आज इस बात पर में मुख्य रूप से चिंता जाहिर करता हु कि आज जहां महानगरों मे मां-बाप दोनो के कामकाजी होने के कारण या पिता सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से दूर भागते हुए रुपयों के पीछे भाग रहा है ! बच्चे दूसरे माध्यमों के सहारे पाले पोसे जा रहे हैं या पथ से भ्रमित हो रहे है , वहीं दूसरे शहरों में भी परिवारों के छोटे हो जाने के कारण बच्चों का दायरा सिमट कर रह गया है । इसके अलावा बच्चों में अनावश्यक रूप से बढता पढाई का बोझ, माता पिता की जरूरत से ज्यादा अपेक्षा, और समाज के नकारात्मक बदलावों के कारण भी उनका पूरा चरित्र ही बदलता जा रहा है । यदि समय रहेते इसे न समझा और बदला गया तो इसके परिणाम निसंदेह ही समाज व् परिवार के लिये आत्मघाती साबित होंगे।
उत्तम जैन विद्रोही
मो- ८४६०७८३४०१ 

शनिवार, 23 जुलाई 2016

एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति




एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति



वर्तमान समय में और विशेषकर भारत के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक नेतागण, इस बात की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए. यह इस लिए प्रबल समस्या बन गई है कि राजनीति के काम में सब जगह धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को राजनीति से जोड़ने की कोशिश करते हैं. ऐसा करने से उनके धर्म को बल मिलता है. और शक्ति से लोगों को विवश किया जाता है कि उनके धर्मों में अधिक से अधिक लोग आएं ताकि उस धर्म के अनुयायी अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बना लें !भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है यहाँ विभिन्न प्रकार के धर्म पाये जाते है और उन धर्मों के अनुसार भारतीय समाज में नाना प्रकार की परम्पराएं और प्रथाऐं प्रचलित हैं, इन सबमें भारतीय समाज, भारतीय साहित्य, सभ्यता और संस्कृति, भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक बड़े पैमाने तक प्रभावित किया है। इस प्रभाव की विचित्रताओं, विशिष्टताओं और विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि यह कहा जाये कि भारत विभिन्न धर्मों का अजायबघर है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोकतान्त्रिक देश की राजनीती की और आपको लेकर चलू तो ‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं,और धर्म व् राजनीती का मूल सिद्दांत है - धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। अब क्युकी हमारे देश मे दो प्रकार के भ्रम फल-फूल रहे हैं। कुछ लोग धर्म को गलत अर्थ निकालते हुये उसे सिर्फ और सिर्फ उपासना पद्धति से जोड़ते हैं। कुछ लोग राजनीति को गंदे लोगों के लिए सुरक्षित छोड़ देते हैं। धर्म का गलत अर्थ लेने की वजह से राजनीति भी गलत अर्थों मे ली जाती है परिणाम यह है कि राजनीति भी ‘धर्म’ की ही भांति गलत लोगों के हाथों मे पहुँच गई है। देश-हित,समाज-हित की बातें न होकर कुछ लोगों के मात्र आर्थिक-हितों का संरक्षण ही आज की राजनीति का उद्देश्य बन गया है। नेता का अर्थ है जो समाज, देश या वर्ग समूह का नेतृत्व करता है वह नहीं जो खुद का नेतृत्व करता है और सत्ता की कुर्सी पर बैठकर अपनी महत्वकांक्षा साधता हो। देश का नेतृत्व किसके हाथ में हो अब जनता तय करती है भ्रष्ट्राचारी, अपराधी , विश्वासघाती लोग ही इस देश का नेतृत्व करे, यही जनता चाहती है तो इनका चुनाव करने के लिए वह स्वतन्त्र है।धर्म गुरूओं द्वारा धर्म का जो वर्तमान स्वरूप बदला जा रहा है या कहे तो शब्दों का ताना-बुना कर अनुयायी के मन मे धर्म का जो बीजारोपण किया जा रहा है उस पर शायद ही किसी सच्चे अनुयायी को गर्व होना चाहिए। रही सही कसर हमारे राजनेताओं ने पूरी कर दी है। परिणामतः धर्म का अस्तित्व खतरे में नहीं है, वस्तुतः धर्म के कारण मानव समुदाय का अस्तित्व ही खतरे में है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ धर्म के कारण अस्थिरता, अराजकता एवं भय का वातावरण नहीं हो फिर भी बहुत कम लोग इस संबंध में बोलने का दुस्साहस करता है।आज राजनीती की स्थिति को हर कोई जानता है । सब के मुंह से एक ही बात सुनने को मिलती है की , राजनीती बड़ी गन्दी हो गई है। आज कोई राजनीती की और जाना पसंद नही करता !अगर यह बात सत्य है तो हमारे देश की व्यवस्था को , हमारे समाज को इस गन्दी नीती से क्यो चलाया जाय ? इस नीति को साफ़ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनाया जाय या फ़िर देश की व्यवस्था को किसी दूसरी व्यवस्था से चलाया जाय। राजनीती को कोसने या नेताओ को गालिया देने से क्या होगा ? अगर बात राजनीती को साफ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनने की करे तो प्रश्न उपस्थित होता है की , यह शुभ कार्य करेगा कौन ? अगर कोई करेगा नहीं तो हमे यह साफ-सुंदर स्वच्छ लोकतांत्रिक परिकल्पना को भी भुला देने की जरूरत है और हमे यह कहने का भी अधिकार नहीं की राजनीत बहुत गंदी हो गयी है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था, ‘मेरे लिए धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है। मेरा धर्म सार्वभौम और सहनशील धर्म है, अंधविश्वासो और ढकोसलों का धर्म नहीं। वह धर्म भी नहीं, जो घृणा कराता है और लड़ाता है। नैतिकता से विरक्त राजनीति को त्याग देना चाहिए.’ उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है, पर उनके नाम का इस्तेमाल करके सत्ता-सुख भोगने वालों ने इसे बहुत पहले त्याग दिया था. आज उनकी राजनीति अनैतिकता से भरपूर है। गांधी जी का यह विचार अब अप्रासांगिक हो गया है आज का धर्म ने अपना मूल स्वरूप त्याग कर समाज मे गलत व्यसन, कुकृत्य और धर्म को अधर्म मे परिवर्तन करने का स्वरूप बन कर रह गया है। अब धर्म राजनीति और राजनीति समाज देश को दिशा तो नही देता परंतु दोनों चेले-गुरु का दामन थाम अपनी अपनी स्वार्थ की रोटियाँ जरूर पक्का रहे है।यह तो जनता का सरोकार है अधिकार है बोलने की आज़ादी है राजनेताओं को चुनने का हक़ है आख़िर बार-बार हर बार जनता एक मौक़ा और क्यों दे ताकि वह अपनी रही-सही महत्वकांक्षा भी पूर्ण कर सकें। अब तो अपने सरोकार के लिए, अपने आने वाले भविष्य के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी और कहना होगा, ‘अब यह नहीं चलेगा’ ।हम जिस दौर में जी रहे है, उस दौर मे हंस के टाल देने वाली बातो पर हमारा खून खौल उठता है और जिन बातो पर वाकई हमारा खून खौलना चाहिए, उन्हें हम बेशर्मी से हंस के टाल देते है।आज जरुरत है धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’ धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। तभी धर्म एवं राजनीति के विवेकपूर्ण मिलन से एक आदर्श व् उन्नत समाज और उज्जवल राष्ट्र का निर्माण होगा !
उत्तम जैन ( विद्रोही )
मो-८४६०७८३४०१ 

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

कन्या भ्रूण हत्या एक अभिशाप

                 कन्या भ्रूण हत्या एक अभिशाप


                     
                                 मेरी हत्या न करो माँ
                                 मैं तेरा ही अंश हूँ माँ
                                पिताजी को समझा दो माँ
                                पिताजी को मना लो माँ






कन्या भ्रूण हत्या के रूप में हम अपनी जल्लाद मानसिकता के साथ सांस्कृतिक पतन की सूचना संसार को दे रहे हैं। यह महापाप है। अक्सर इसके लिए स्त्रियों को जिम्मेदार ठहराकर "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है" वाला रटा रटाया फार्मूला सुनते है। सच तो यह है कि हम पुरुषो ने भ्रूणहत्या में अपने दोष को कभी देखा ही नही या देखकर खुद को नजर अंदाज कर दिया है ! पुरुष प्रधान भारतीय समाज में सक्षम स्त्री भी हर फैसले के लिए पुरुष का मुंह ताकती हैं। वह प्रणय क्रीड़ा में सहभागी होना चाहती है या नहीं, गर्भ निरोधक इस्तेमाल करे या ना करे, कितने बच्चों को कब जन्म दे, वे लड़के होंगे या लड़कियां, उन्हें शिक्षा कहां और कितनी देनी हैं- ये सब पुरुष तय करता है। जहां स्त्री का अपनी देह पर अधिकार नहीं होगा वहां कन्या भ्रूण हत्या तो होगी ही। अधिकांश मामलों में स्त्री विवश कर दी जाती है और न करने की स्थिति में उसका जीना हराम कर दिया जाता है। कन्या भ्रूण हत्या के लिए पुरुष ही पूर्णत: जिम्मेदार हैं। मरने के मुखाग्नि देने, तर्पण करने, वंशवृद्धि और संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए कुलदीपक" अर्थात् पुत्र की चाह होती है। चाहे उसके कारनामे कुल-काजल क्यों न हों। पुरुष, पुत्रजन्म को अपनी मर्दांनगी से जोड़ते हैं। कन्या भ्रूण हत्या 21वीं सदी के माथे पर कलंक है। स्त्री के अस्तित्व को गर्भ में ही नष्ट करने का कुकृत्य हो रहा है। "प्राइवेट क्लिनिक" कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं जो समाज की इस रुग्ण मानसिकता को अपने हक में भुनाकर चांदी काट रहे हैं। मुख्यतया सभी समाज में तो दुल्हनें अन्य समाज से "आयात" करनी पड़ रही हैं। कही परिवार तो ऐसे जहां राखी बांधने के लिए बहनें ही नहीं हैं।
स्त्री पुरुषों का अनुपात, खतरनाक रूप से असन्तुलित हो चुका है। प्रकृति के साथ यह क्रूर मजाक समाज पर ही भारी पड़ रहा है। जिस समाज की नैतिक चेतना सदियों से कुभकर्णी नींद में हो, उसे जगाने के लिए आज पुन: ढोल-नगाड़ों की जरूरत है। केवल कानून बनाना जरूरी नहीं, उसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। गैरसरकारी सामाजिक संगठनों से भी सन्देश पहुंचना चाहिए। शिक्षक ही नहीं, धर्म गुरु भी इसमें अपनी भूमिका तय करें, शास्त्रों में ईश्वर को "त्वं स्त्री" कहकर नारी रूप में आराधना की गई हैं, क्योंकि नारी अपनी सीमाओं में संपूर्णता की वाहक है।सामाजिक रूढ़ियां, पूर्वाग्रह, दहेज, शिक्षा-ब्याह पर होने वाला खर्च (क्योंकि लड़की को दूसरे घर जाना होता है) और असामाजिक आचरण से उसकी रक्षा, ऐसे कई कारण हैं जो कन्या भ्रूण हत्या के गर्भ में हैं। कन्या को मार दो और जिन्दगी भर के लिए बिंदास हो जाओ- पर इस नीच वृत्ति के लोग यह नहीं सोचते कि उनकी अगली पीढ़ी को शादी के लिए लड़कियां कहां से मिलेंगी। वे स्वयं भी तो किसी स्त्री से जन्मे हैं। कन्या भ्रूण हत्या के रूप में वे आत्मघात ही कर रहे हैं।
हमें बेटी को पराया धन और बेटे को कुल दीपक की मानसिकता से ऊपर उठने की जरूरत है। यह सोचा जाना भी आवश्यक है कि भ्रूण हत्या करके हम किसी को अस्तित्व में आने से पहले ही खत्म कर देते हैं। आज के दौर में बेटीयां बेटे से कमतर नहीं है। इस गलत परम्परा को रोकने के लिये हम सभी को मिलकर तेजी से अभियान चलाना होगा। सरकारी सहयोग की अपेक्षा हमें नही करनी चाहिये। इस मामले में कानून भी लाचार सा ही दिखता है। जाँच सेन्टरों के बाहर बोर्ड पर लिख देने से कि "भ्रूण जाँच किया जाना कानूनी अपराध है।" उन्हें इसका भी लाभ मिला है। जाँच की रकम कई गुणा बढ़ गई। रोजाना गर्भपात के आंकड़े चौकाने वाले बनते जा रहे हैं, चुकिं भारत में गर्भपात को तो कानूनी मान्यता है, परन्तु गर्भाधारण के बाद गर्भ के लिंक जाँच को कानूनी अपराध माना गया है। यह एक बड़ी विडम्बना ही मानी जायेगी कि इस कानून ने प्रचार का ही काम किया। जो लोग नहीं जानते थे, वे भी अब गर्भधारण करते वक्त इस बात की जानकारी कर लेते हैं कि किस स्थान पर उन्हें इस बात की जानकारी मिल जायेगी कि होने वाली संतान नर है या मादा। धीरे-धीरे लिंगानुपात का आंकड़ा बिगड़ता जा रहा है। यदि समय रहते ही हम नहीं चेते तो इस बेटे की चाहत में हर इंसान जानवर बन जायेगा। भले ही हम सभ्य समाज के पहरेदार कहलाते हों, पर हमारी सोच में भी बदलाव लाने की जरूरत है !
उत्तम जैन(विद्रोही)
uttamvidrohi121@gmail.com
mo-8460783401
नोट - मेरे इन विचारो से आप अगर प्रभावित है ! और इन विचारो से आप सहमत है तो बिना कांट छांट किये व् लेखक का नाम हटाये बिना श्योसल मिडिया ( व्ह्ट्स अप , फेसबुक , ट्विटर , अपने समाचार पत्रों में जरुर स्थान दे / फोरवर्ड करे ! अगर कुछ दो चार महानुभाव भी भ्रूण हत्या नही करेगे तो मेरा लेखन सफल हो जायेगा !     

बुधवार, 20 जुलाई 2016

धर्म व राजनीति


                                   धर्म व राजनीति
वर्तमान मे धर्म व राजनीति पर नजर डाली जायी तो हर धर्म मे राजनीतिक दखल हो रहा है ! धर्म का उपयोग राजनीति में नहीं होना चाहिए यह बात देश में सभी को पता है और वर्षों से पता है बावजूद इसके वर्तमान हालात कुछ अलग ही बात कहते हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल के कारण विचित्र परिस्थितियाँ निर्मित होते जा रही हैं। फलस्वरूप धार्मिक मुद्दो पर राजनीतिज्ञ बड़ी चतुराई से अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते है या यू कहा जाए धार्मिक मुद्दा बनाकर मीडिया मे छाए रहना इन राजनीतिज्ञ लोगो की सोची समझी चाल है ! ओर धर्म के नाम पर भोले भाले धार्मिक लोग इनके झांसे मे आकर हो हल्ला मचाते है ! ओर कुछ धर्म के ठेकेदार बनकर खुद की राजनीतिक घुसपेठ बनाने के लिए मीडिया मे अपने तर्क वितर्क प्रस्तुत करते है ! जिसका कोई सारांश नही निकलता जिसमें जितने प्रश्न हैं उतने जवाब नहीं हैं। धर्म और राजनीति का घालमेल सदियों से होता आ रहा है पर वर्तमान स्वरूप काफी व्यथित करने वाला है। धर्म के बारे में सामान्य रूप से कहा जाता है कि यह जीवन जीने का रास्ता बताता है। सभी धर्मों में इसी बात को लेकर अलग-अलग व्याख्या है। मैं विभिन्न धर्मों व पंथों के बारे में व उनके मतों के बारे में गहराई में नहीं जाना चाहता। पर मेरा मानना है कि धर्म के नाम पर गुमराह करना और लुटना बंद होना चाहिए। धर्म के नाम पर आडंबर नहीं होना चाहिए। व्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर धर्म के प्रति उसकी आसक्ति, अनासक्ति भाव सब कुछ आ जाता है। धर्म केवल नियम कानूनों में बँधना नहीं बल्कि धर्म इंसान को दूसरे इंसान के साथ इंसानियत का भाव बनाए रखने में मदद करता है। आज के परिप्रेक्ष्य में यही जरूरी है। हम न केवल धर्म को बल्कि साधारण सी समस्याओं का भी राजनीतिकरण करने से नहीं चूकते। जिसका परिणाम हम सभी देख रहे हैं। कला, संस्कृति से लेकर भगवान भी राजनीति के कटघरे में खड़ा नजर आ रहा है। यह स्थिति क्यों बनी और क्या ऐसी ही स्थिति बनी रहेगी? मैं इसका हल शिक्षा में ढूँढता हूँ। हम धर्म का सही मायने में अर्थ ही समझ नहीं पाएँगे तब निश्चित रूप से इसका गलत उपयोग ही करेंगे। हमें अपने व्यवहार व आचरण को लेकर सोचना होगा और इस बात को ध्यान में लाना होगा कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है। हमारा प्रथम धर्म मानव धर्म है हम भले ही किसी भी ओहदे पर बैठे हों और किसी भी प्रकार का काम कर रहे हों, अगर हम इंसानियत के धर्म को अपना पहला धर्म समझेंगे तब बाकी सभी कुछ आसान हो जाएगा और यह केवल शिक्षा से ही आ सकता है। धर्म के कई ठेकेदार व धनिक लोग कहु या अग्रिम पंक्ति मे बेठे हुए कुछ लोग अपने प्रभाव से अशिक्षित व साधारण लोगों को बरगलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। वे लोग शिक्षित लोगों पर अपनी दादागिरी से यह आदेश नहीं देते, क्योंकि उन्हें पता है कि शिक्षित व्यक्ति रुढ़िवादी और ढोंग में भरोसा नहीं करता, केवल अच्छे कर्म व इंसानियत को ही मानता है। मेरा ऐसा व्यक्तिगत मत है कि धर्म की सही व्याख्या बच्चों को घरों में दिए जाने वाले संस्कारों में छिपी है। हम बच्चों को संस्कार देते समय सावधानी बरतते हैं और उन्हें भलाई, ईमानदारी के साथ जीवनयापन करने की बातें करते हैं पर स्वयं की बारी आने पर हम कायर, कपटी, झूठे, बेईमान बनने में किसी भी प्रकार की शर्म नहीं पालते ! भौतिकवादी जीवनशैली के चलते हम संस्कारों से लेकर धर्म को अपने अनुसार बदलने पर तुले हैं पर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह बदलाव हमारे लिए भविष्य में सकारात्मक होगा या नकारात्मक। निश्चित रूप से अब तक जो स्वरूप सामने आया है वह नकारात्मक है। इस कारण अब हमें धर्म की व्याख्या करते समय इस बात का ध्यान आवश्यक रूप से रखना होगा कि हम राजनीति को अलग रखें और धर्म को अलग तभी इंसानियत धर्म के संस्कारों का बीजारोपण आगे आने वाली पीढ़ी में कर पाएँगे।

लेखक – उत्तम जैन (विद्रोही )

अरे मानव! तू क्यों हर पल दानव बनता जा रहा हैं,


ईश्वर ने तुझे बहुत सोच समझकर प्यार और विश्वास के साथ बनाया था,--मनुष्य बन रहा है दानव 

मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही जितने भी विनाश हुए है, इनके समाज में जितने भी जुल्मों सितम हुए है ; जितने भी युद्ध हुए है और आज हमारा समाज, हमारा परिवार जितनी भी कलह, त्रासदी, दंगे-फसाद, अपराध से प्रताड़ित हो रहा है! नैतिक शिक्षा ही मानव को ‘मानव’ बनाती है क्योंकि नैतिक गुणों के बल पर ही मनुष्य वंदनीय बनता है। सारी दुनिया में नैतिकता व् चरित्र के बल पर ही धन-दौलत, सुख और वैभव की नींव खड़ी है। नैतिकता के अंग हैं – सच बोलना, चोरी न करना, अहिंसा, दूसरों के प्रति उदारता, शिष्टता, विनम्रता, सुशीलता आदि। परन्तु आज ये शिक्षा ना तो बालक के माता-पिता, जिन्हें बालक की प्रथम पाठशाला कहा जाता है, ना ही विद्यालय दे पा रहा है। नैतिक शिक्षा के अभाव के कारण ही आज जगत में अनुशासनहीनता का बोल-बाला है। आज का छात्र कहाँ जानता है, बड़ों का आदर-सत्कार, छोटों से शिष्ठता-प्यार, स्त्री जाति की सुरक्षा-सम्मान सत्कार। रही-सही कसर पूरी कर देता है हमारा फिल्मजगत और टेलिविजन प्रसारण। जो अश्लीलता की हर हदें पार कर चुका है और उसका मूल्य चुकाना पड़ता है समाज को, क्योंकि मनुष्य का स्वभाव है अनुकरण करना। वह अनुकरण से ही सीखता है। आज नायिकाओं में नग्नता परोसने की होड़ लगी है कि कौन कितने कपड़े उतारता है तथा कौन कितना बोल्ड सीन दे सकता है? पैसे की चकाचौंध ने इतना अंधा बना दिया कि वह यह भूल गई हैं कि इसका दुष्परिणाम भुगत रही हैं हमारी नवयुवतियाँ, बच्चियाँ, स्त्रियाँ। यह कथन कितना चरितार्थ होता है – कि ‘स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है’। दर्शक टेलीविजन चैनलों पर, सिनेमा में पेश नग्नता, उनके नग्नता भरे दृश्यों से कितना विचलित हो रहा है, उसकी भड़ास का शिकार, उसके घरों के आस-पास में जहाँ कहीं मौका मिलता है, मासूम बच्चियाँ, महिलायें बन रही हैं। पिता के साथ बेटी सुरक्षित नहीं, भाई के साथ बहन, पति के साथ पत्नी भी असुरक्षित हैं। समाज में एक ज्वाला जली है हवस की। चारों तरफ, जहाँ पढ़ो, सुनो व देखने को मिलता है देश में महिलाओं के खिलाफ असामाजिक घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं ! समाज का दायित्व हो जाता है कि हम अपने नैतिक मूल्यों का पुर्नस्थापन करें। मगर अफसोस समाज अपने कर्तव्य से विमुख होता नजर आरहा है ! आज हम अपने पूर्वजों के दिखायें, बताये मार्ग को भूल गये हैं। पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति को अपनाते-अपनाते, ना तो हम खुद को ही पहचान पा रहे हैं, ना ही पाश्चात्य को। कुछ नवयुवतियाँ भी आजादी मिलने का अर्थ कुछ और ही ले रही हैं। माँ-बाप की खुली छूट का गलत फायदा उठा रही हैं। आये दिन अखबारों, पेपरों में छप रहा है कि शराब पीकर लड़कियों ने हंगामा किया। देर रात तक लड़कों के साथ क्लबों में, होटलों में पार्टी करना आज आम हो रहा है। ऐसा इसलिये हो रहा है कि हमारे नैतिक जीवन मूल्यों का पतन हो रहा है। नारी का ऐसा घृणित व्यवहार, घटिया मानसिकता और निकृष्ठ सोच का परिणाम है। ‘‘किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर वहाँ की महिलाओं की स्थिति है। जो राष्ट्र समाज में स्त्रियों का आदर नहीं करना चाहते व कभी महान बन ही नहीं पायेंगे। देश के वर्तमान पतन का मुख्य कारण यही है कि हमने शक्ति की इन सजीव प्रतिमाओं के प्रति आदरभाव नहीं रखा। स्त्रियों के प्रति घृणित दृष्टि निन्दनीय है। माँ के रूप में, बहन-बेटी के रूप में महिलाओं को सुरक्षा, सुविधा, स्नेह व दुलार देना समाज का कर्तव्य है। नैतिकता और सदाचार ही राष्ट्रीय जीवन का आधार है। आज समाज में इन्हीं नैतिक मूल्यों की स्थापना की सबसे अधिक जरूरत है। प्रत्येक बच्चे को सही मार्ग दर्शन मिले, यह उचित शिक्षा ही कर सकती है। नैतिकता का पाठ पढ़ाया नहीं जा सकता, वरन् उसे चरित्र में उतारना है। वरना मानव दानव का रूप धर चुका है तथा उसका रूकना कठिन ही नहीं नामुमकिन हो जायेगा।
उतम जैन (विद्रोही ) 

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

गुरुपूर्णिमा व् गुरु का चयन





   

     गुरुपूर्णिमा व् गुरु का चयन

माता पिता की सेवा करना सन्तान का धर्म है। उसकी महिमा शास्त्रों में विस्तार पूर्वक कही गई है पर गुरु की महत्ता उनसे भी बड़ी है क्योंकि माता पिता केवल शरीर को जन्म देते, शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं पर गुरु द्वारा आत्मा का विकास, कल्याण एवं बन्धन मुक्ति का जो महान कार्य सम्पन्न किया जाता है, उसकी महत्ता शरीर पोषण की अपेक्षा असंख्यों गुनी अधिक है !लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवश्यकता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। फिर भी गुरु द्वारा प्रदत ज्ञान भी अपेक्षित है ! आज गुरुपूर्णिमा का पावन पर्व हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। हमारे अध्यात्म दर्शन में गुरु का बहुत महत्व है! गुरुजनों की सेवा को धर्म का एक भाग माना गया है। शायद यही कारण है कि भारतीय जनमानस में गुरु भक्ति का भाव की इतने गहरे में पैठ है कि हर कोई अपने गुरु को भगवान के तुल्य मानता है। हम ढोंगियों और लालची गुरु को स्वीकार न करें तथा किसी को गुरु बनाने से पहले उसकी पहचान कर लेना चाहिए। भारतीय जनमानस की भलमानस का लाभ उठाकर हमेशा ही ऐसे ढोंगियों ने अपने घर भरे हैं जो ज्ञान से अधिक चमत्कारों के सहारे लोगों को मूर्ख बनाते हैं। ऐसे अनेक कथित गुरु आज अधिक सक्रिय हैं जो नाम से तो बहुत बड़े होते है मगर ज्ञान के बारे में पैदल होते हैं। ऐसा सदियों से हो रहा है यही कारण है कि किसी संत ने बरसों पहले कहा था ---
‘‘गुरु लोभी शिष लालची दोनों खेलें दांव।
दोनों बूड़े बापुरै, चढ़ि पाथर की नांव।।
गुरु और शिष्य लालच में आकर दांव खेलते हैं और पत्थर की नाव पर चढ़कर पानी में डूब जाते हैं। संत को हमारे अध्यात्म दर्शन का एक स्तंभ माना जाता है आजकल के गुरु निरंकार की उपासना करने का ज्ञान देने की बजाय पत्थरों की अपनी ही प्रतिमाऐं बनवाकर अपने शिष्यों से पुजवाते हैं। देखा जाये तो हमारे यहां समाधियां पूजने की कभी परंपरा नहीं रही पर गुरु परंपरा को पोषक लोग अपने ही गुरु के स्वर्गवास के बाद उनकी गद्दी पर बैठते हैं और फिर दिवंगत आत्मा के सम्मान में समाधि बनाकर अपने आश्रमों में शिष्यों के आने का क्रम बनाये रखने के लिये करते हैं। आजकल तत्वज्ञान से परिपूर्ण तो शायद ही कोई गुरु दिखता है। अगर ऐसा होता तो वह फाईव स्टार आश्रम नहीं बनवाते।
‘जा गुरु से भ्रम न मिटै, भ्रान्ति न जिवकी जाय।
सौ गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय।।’’
जिस गुरु की शरण में जाकर भ्रम न मिटै तथा मनुष्य को लगे कि उसकी भ्रांतियां अभी भी बनी हुई है तब उसे यह समझ लेना चाहिए कि उसका गुरु झूठा है और उसका त्याग कर देना चाहिए। दरअसल गुरु की जरूरत ज्ञान के लिये ही है पर भक्ति के लिये केवल स्वयं के संकल्प की आवश्यकता पड़ती है। भक्ति करने पर स्वतः ज्ञान आ जाता है। ऐसे में जिनको ज्ञान पाने की ललक है गुरु का चुनाव अच्छी तरह परख कर करे ! तभी आप हम व् सभी देशवासियों के लिए गुरुपूर्णिमा मनाना सार्थक होगा !
उत्तम जैन (विद्रोही )
uttamvidrohi@gmail.com
mo-8460783401

शनिवार, 16 जुलाई 2016

सामाजिक जीवन और बदलती पारिवारिक संरचना व संस्कार

सामाजिक जीवन और बदलती पारिवारिक संरचना व संस्कार

मनुष्य जीवन ईश्वर का दिया एक अनमोल उपहार है। इसे व्यर्थ न जाने देने की हमेशा नसीहतें दी जाती हैं। अफसोस आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में मनुष्य के लिए नसीहतों का कोई मूल्य नहीं रहा। अर्थ प्रधान युग में जीवन पर अर्थ इस कदर हावी हो गया है कि एक पढ़ा-लिखा, शिक्षित-समझदार, स्वावलम्बी हर तरह की सुविधाओं से पूर्ण होने के बाद भी संस्कारो से परिपूर्ण नही है ! आज इंसान की तुलना गेंडे से करूंगा । जिस तरह गेंडे की मोटी खाल पर किसी तरह का प्रभाव नहीं होता है, वो दलदल में पड़ा रहता है। उसी तरह इंसान को भी स्वार्थ के दलदल में रहने की आदत सी पड़ गयी है ! आज संतान संस्कारहिन हो गयी है !बुजुर्ग आज उस परिस्थिति मे आ गए है न जी सकते न मर सकते ! बुजुर्गो की जिंदगी को कठिन बना दिया है। जिन मां-बाप ने संतान को कभी जीवन मेंअंगुली पकड़कर चलना सिखाया हो,आखिर क्या कारण हैं कि जब उन्हें सहारेकी जरूरत होती हैउनके पास कोई नहीं होता है?जिसकी हर मांग को मां-बाप ने अपनी जरूरतों में कमी कर पूरा किया आखिर वे बुढ़ापे में क्यों बेगाने हो जाते हैं? सामाजिक मूल्यों में दिनोंदिन आ रहे इन बदलावों के पीछे क्या हैं कारण, जानिए स्पॉट लाइट में...भारत में बुजुर्गो के सम्मानकी परंपरा रही है ! और हम हमेशा इसी बात पर नाज करते रहे हैं कि हमारे यहां नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की उपेक्षा नहीं करती बल्कि उन्हें पूरा सम्मान देती है! और उनके अनुभवों की कद्र करती है। लेकिन बढते औद्योगिकरण, उदार अर्थव्यवस्था और पश्चिमी सभ्यता ने कुछ हद तक हमारी संस्कृति में सेंध लगा दी है। आज जिंदगी इतनी तेज हो गई है कि इस भाग-दौड़ में क्या पीछे छूट रहा है,किसी को चिंता नहीं है।कभी समाज की एकता का प्रतीक कहे जाने वाले संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। अब तो एकल परिवार भी नहीं बचा है। इस स्पर्घा के दौर में बस तरक्की चाहिए, भले ही इसके लिए रिश्ते तोड़ने पडे।आप जब दोहरा जीवन जीते हैं तो परम्पराएं तो टूटेंगी। हमारे बुजुर्ग अपनी समझबूझ और तजुर्बो से हमारे जीवन को एक सार्थक दिशा देने का माद्दा रखते हैं, परंतु आज व्यक्ति अपने में इतना खो गया है कि उसे अपने बुजुगों से मार्ग दर्शन प्राप्त करने का समय ही नहीं है।वृद्धाश्रमों में बढ़ती गई संख्या दुनिया के किसी भी देश,भाषा, संस्कृति में भारत को छोड़कर बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए बड़े-बुजुर्गो द्वारा "जुगजुग जीयो"का आशीर्वाद नहीं दिया जाता है। केवल भारत ही एक ऎसा देश है जहां यह शब्द इस्तेमाल किया जाता है। अब आप समझ सकते हैं कि हमारे यहां बुजुर्गो और बच्चों के बीच का रिश्ता कितना समृद्ध रहा है। लेकिन आज परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। बेटा चारदिवारी के अंदर अपने मां-बाप से बात नहीं करता है लेकिन समाज के सामने यह दिखाता है कि वह सबसे आज्ञाकारी पुत्र है। यह हमारे दोहरे जीवन का सही उदाहरण है। हम घर के बाहर पड़ोसी के सामने झुककर नमस्कार तो करते हैं लेकिन अपने मां-बाप की इज्जत नहीं करते हैं। लोगों के व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार अलग-अलग हो गए हैं। वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस बात का साफ सबूत है कि वृद्धों को उपेक्षित किया जा रहा है। हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजरअंदाज किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे जो इनके पास है। भारत को अभी इसकी आदत नहीं आज दुनिया के सबसे युवा देश में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगो की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वर्ष 2026 तक देश में बुजुर्गो की आबादी 17 करोड़ से भी ज्यादा होने का अनुमान है। वर्तमान में भारत की लगभग 10 प्रतिशत आबादी बुजुर्गो की है। सात साल बाद भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे ज्यादा बुजुर्गो की आबादी वाला देश हो जाएगा। भारत में रोजाना लगभग 17 हजार लोग 60 साल के हो जाते हैं। हमारे देश में ऎसी स्थिति पहले नहीं थी। इसने पिछले कुछ सालों में तेजी पकड़ी है। लिहाजा, भारत ऎसी स्थिति से पहले रूबरू नहीं हुआ था। पश्चिमी देशों में तो बजुर्गो की संख्या पहले से ही ज्यादा रही है, इसलिए वहां के लोगों को इनकी आदत है। अब भारत के सामने जब ऎसी स्थिति आई है! तो लोगों को पहली या दूसरी पीढ़ी के बाद इसकी आदत पड़ जाएगी। खुद पहल करनी होगी आज भारतीय संस्कारों के नाम पर हम दोहरा जीवन जी रहे हैं। दोहरे मापदंड बन गए हैं। विदेशों में तो संस्कार की बात ही नहीं होती है। वहां तो अधिकांश लोग  को पहले से ही मालूम होता है कि उन्हें रिटायर होने के बाद अकेला रहना है। यह बदलाव का दौर है।समाज आज जिस तेजी से बदल रहा है, ऎसे में संस्कारों में परिवर्तन तो दिखेगा ही। बदलती शिक्षा प्रणाली ने भी काफी असर डाला है। पहले हम बचपन में गाय पर निबंध लिखते थे। नैतिक शिक्षा की पढ़ाई पर ज्यादा जोर होता था। बड़ों और बुजुर्गो की इज्जत करना सिखाया जाता था। लेकिन आजकाफी बदलाव देखने को मिल रहा है। किसी भी कोर्स में यह नहीं कहा जाता है कि आप बुजुर्गो के महत्व के बारे में लिखें। ऎसे में आज जरूरत है कि हम स्वयं इसका पहल करते हुए बच्चे को इन सब के बारे में बताएं। वैसे भी बच्चे को सबसे पहला ज्ञान परिवार से ही मिलता है। अगर हम अभी भी नहीं संभले तो आने वाला समय बहुत ही दुखदायी होगा। बाजारवाद ने परिवार को बिखेरा, संस्कार छूट गए है ! भारतीय समाज की व्यवस्था का आधार है परिवार और परिवार का केंद्र है, उस घर की मां। समाज की व्यवस्था परिवार पर आधारित होती है और उस परिवार में बचपन से सांस्कृतिक आदर, संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था पहले पांच साल मां के जिम्मे होती है, पांच से आठ की आयु तक पिता शिक्षक होता है, आठ वर्ष के बाद गुरू ही शिक्षक होता है। शुरू से ही.......
मातृ देवोभव:, पितृ देवो भव:,आचार्य देवो भव: और अतिथि देवो भव: के संस्कार पहले मां द्वारा ही दिए जाते हैं। इस दौर में बाजारवादी अर्थनीति के कारण परिवार नामक संस्था को बड़ा झटका लगा है। घर में मातृ शक्ति की अवमानना हुई तो संस्कार ढीले पड़ते चले गए। बाजारवाद के कारण अब उपयोगिता महत्वपूर्णहो गई है और उपयोगिता में आर्थिक पक्ष ही मजबूत हुआ है। इसके कारण माता-पिता का अवमूल्यन हुआ और उन्हें बोझ समझा जाने लगा। संस्कारों के अभाव में माता-पिता का घर में जो आदरयुक्त स्थान होता था, वह नहीं रहा। जिसके चलते बाल संस्कार में भारी कमी आ गई है। संस्कारहीनता की वजह से उम्रदराज लोगों की घर में ही इज्जत कम हो गई। अब अपनाम और अवहेलना के कारण वृद्धाआश्रमो की पूछ बढ़ गई है। जैसे गाय का स्वाभाविक घर किसान का घर होता है, वैसे ही वृद्धों का स्वाभाविक स्थान पौत्र-पौत्रियों के बीच घर में होता है। अब संस्कार हीनता के कारण गाय गौशाला की ओर भेजी जाने लगी है ! और उपयोगिता न रहने पर वृद्ध पिता वृदाआश्रम भेजे जाने लगे हैं। ये समाज की कमजोरी का लक्षण है। इसलिए समाज की स्वाभाविक स्थिति प्राप्त करने के लिए नई पीढ़ी में उचित संस्कार लाकर घर का वातावरण और शिक्षा के लिए स्कूल का वातावरण सुधारना दोनों निर्णायक रूप से महत्वूपर्ण हैं। विकास की भागदौड़, अमीर और बड़ा बनने की चाह सरासर नासमझी है। ऎसा व्यक्ति जब उम्र की ढलान पर क्या खोया और क्या पाया का हिसाब लगाता है तो उसे घाटा ही घाटा दिखाई पड़ता है। बुढ़ापे में वह अकेलापन पालता है, उम्र उसे खलने लगती है। एक तरफ तो औसत उम्र में इजाफा हुआ है लेकिन दूसरी ओर बढ़ी हुई उम्र बोझ महसूस होने लगी है। इसलिए संयुक्त परिवार की व्यवस्था पर बल देना और गृहणी का सम्मान होना और बाल संगोपन को महत्वपूर्ण माना जाना, ये सब समाज के वातावरण को फिर से ठीक करने के लिए आवश्यक तत्व हैं। वृद्धों का अपमान, संस्कारहीनता और भटकती युवा पीढ़ी की समस्या का यही समाधान है। तरक्की की चाह ने अपनों को छुड़ाया डॉ. गिरधर प्रसाद भगत, समाजसेवी आधुनिकता के इस दौर में बुजुर्गाें की अनदेखी के लिए काफी हद तक वे स्वयं जिम्मेदार हैं। उन्होंने अपने बच्चों को विद्वान और धनवान तो बना दिया लेकिन एक अच्छा इंसान नहीं बना सके। आज सभी को सफलता चाहिए चाहे वह किसी भी कीमत पर हो। नई पीढ़ी को यह नहीं मालूम कि सबसे बड़ी सफलता तो मां-बाप की सेवा करना है। इसमें उसका भी दोष नहीं है। जब हमने उसे ऎसा सिखाया ही नहीं तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं। आज आपको ऎसी भी संतानें मिल जाएंगी जो माता-पिता के वृद्ध होते ही उन्हें या तो सड़कों पर छोड़ देते हैं या फिर वृद्धाश्रम में अकेले रहने को मजबूर कर देते हैं। आप कभी अपने शहर के वृद्धाश्रम में जाकर देखे कितने बुजुर्ग हैं और अधिकतर आपको लावारिस रूप में बुजुर्ग मिल ही जाएंगे ! इनमें से अधिकांश तो अपना खुद का ख्याल नहीं रख सकते हैं। यह प्रवृत्ति पिछले दस सालों में ज्यादा बढ़ी है। संयुक्त परिवार हाशिए पर चले गए हैं। आज ग्लोबलॉइजेशन और औद्योगिकरण का युग है। इसने शिक्षा पर सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है। नैतिक शिक्षा की पढ़ाई से बच्चे दूर गए जिसका असर उनके संस्कारों पर पड़ा है। हिन्दी मीडियमहो या अंग्रेजी,सभी में नैतिकशिक्षा की पढ़ाई एक तरह से खत्म हो गई है। अब जब हम बच्चों को यह सीखाएंगे !ही नहीं कि बड़ों का सम्मान किया जाता है तो हम उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे बड़े होकर बुजुर्गो का सम्मान करें। सरकार को भी बुजुर्गो की दशा पर ध्यान देने की जरूरत है। केवल समारोह और गोष्ठियां व मन की बात व सेल्फी , विदेशी दोरे व स्थिति नहीं बदलने वाली है। व हर परिवार को अपने माता पिता की देखभाल का दायित्व हर संतान को समझने की आवश्यकता है ताकि भारत अपने जिन मूल्यों के लिए पूरे विश्व में पहचाना जाता है वे कहीं अतीत की बात बनकर न रह जाएं।
उत्तम जैन (विद्रोही )
uttamvidrohi121@gmail.com
mo-8460783401