बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

भुवनेश्वर की हृदयविदारक घटना

एक हृदयविदारक ख़बर कल जब सुनी जिसने सिर्फ मुझे ही नही पूरी देश को झकझोर दिया. इस ख़बर ने सत्ता और शासन को सोचने पर मज़बूर किया या नही मे नही जानता पर मुझे लिखने को जरूर साहस दिया ! कल भुवनेश्वर में जो हृदयविदारक घटना हुई। इलाज कराने आए मरीजों को निजी अस्पताल में मौत मिली। एक दिन पहले सोमवार शाम इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड एसयूएम हॉस्पिटल के आईसीयू वार्ड में भयंकर आग लगी। लगभग दो दर्जन लोग इसकी भेंट चढ़े। उससे कई गुना ज्यादा घायल हुए। ज्यादातर मौतें दम घुटने के कारण हुई। आरंभिक जानकारियों के मुताबिक आग ऑक्सीजन चैंबर में शॉर्ट सर्किट के चलते लगी। शुरुआत डायलिसिस वार्ड से हुई। क्या ये सूचनाएं इसका संकेत नहीं हैं कि अस्पताल में सबसे संवेदनशील जगहों पर भी सुरक्षा इंतजामों की पर्याप्त निगरानी नहीं होती थी? शॉर्ट सर्किट भी अक्सर निरंतर निगरानी के अभाव का ही सूचक माना जाता है। उस अस्पताल में 1200 बेड हैं। जब हादसा हुआ, तब तकरीबन 500 मरीज वहां भर्ती थे। जाहिर है, यह एक बड़ा अस्पताल है। मगर अग्निकांड जैसे हादसे के वक्त लोगों को सुरक्षित निकालने का इंतजाम वहां कितना लचर था, यह मरीजों के अनुभव से साफ है। आग लगने के बाद अस्पताल में अफरातफरी मच गई। इसी बीच घबराहट में मरीजों और उनके तीमारदारों ने खिड़कियां, दरवाजे तोड़ दिए। चादरों में लपेटकर लोगों को नीचे उतारा गया। कई तीमारदार तो मरीजों को अपने कंधों पर बेड समेत लेकर बाहर की ओर भागे। यानी आग लगने पर बचाव के इंतजाम वहां या तो थे नहीं, या वे फेल हो गए।
क्या इसकी जिम्मेदारी अस्पताल प्रशासन पर नहीं आती? इसीलिए इस घटना को महज हादसा समझकर नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए। बल्कि अस्पताल प्रशासन से संबंधित और अग्नि-सुरक्षा के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों की पहचान कर उनकी व्यक्तिगत जवाबदेही तय की जानी चाहिए। 2011 में कोलकाता के एएमआरआई अस्पताल में आग लगी थी। तब अस्पताल संचालक मंडल के छह सदस्य गिरफ्तार किए गए थे। लेकिन बात धीरे-धीरे चर्चा से बाहर हो गई। जिम्मेदार लोगों को कोई ऐसी सजा मिली जो भविष्य के लिए मिसाल बनती, इस बारे में आम तौर पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इससे पहले 1997 में दिल्ली में हुए उपहार सिनेमाघर अग्निकांड के बाद सार्वजनिक उपयोग वाले भवनों में सुरक्षा उपायों को लेकर काफी चर्चा हुई थी। ऐसी घटनाओं की जवाबदेही तय करने के मुद्दे पर न्यायपालिका ने भी विचार किया। लेकिन उससे भी कोई बड़ा संदेश सारे देश में गया, यह नहीं लगता। इसीलिए भुवनेश्वर कांड में नेताओं का शोक जताना और मुआवजे का एलान करना काफी नहीं है। असली सवाल उत्तरदायित्व का है। ऐसे मामलों में भवन मालिकों की आपराधिक जिम्मेदारी तय होने के वैधानिक प्रावधान होने चाहिए। साथ ही मुआवजे की देनदारी भी उन पर ही आनी चाहिए। इस दिशा में अविलंब पहल होनी चाहिए। भुवनेश्वर में जिन निर्दोष लोगों की जान गई, उनके परिजनों को तात्कालिक राहत पहुंचाना अनिवार्य है। मगर बात वहीं तक सीमित रही, तो यह मृत या जख्मी लोगों को संपूर्ण न्याय से वंचित रखना होगा।
लेखक -उत्तम जैन (विद्रोही )

आम आदमी पार्टी की वास्तविकता – पथ से भ्रमित एक नजर मे

आम आदमी पार्टी का बनना, चुनाव लड़ना, सरकार बनाना, जिस आशा के साथ इस पार्टी का निर्माण हुआ, उतनी ही निराशा इसके काम से है | इस पार्टी का उदय होने का मुख्य कारण में सामान्यजन की पीड़ा मुख्य है | इस पीड़ा का मूल शासन-प्रशासन में व्याप्त रिश्वतखोरी है | जिसके कारण नियम, व्यवस्था सब कुछ निरर्थक हो गई है| इस घूसखोरी के कारण सामान्य मनुष्य का जीवन कठिनाई में पड गया है | जिसका काम नियम से होना चाहिए उसका काम नहीं होता | जिसका काम होने योग्य नहीं है, उसका काम पैसे देकर हो जाता है | इस कुचक्र में सामान्यजन फंस कर रह गया है, इस विवशता को उसने नियति मान लिया था | ऐसे समय में उसकी पीड़ा को छूने का काम इन वर्षों में हुआ है | आप पार्टी ने भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर जनता से समर्थन माँगा, परन्तु आज सरकार में बैठकर आदर्श की बात को व्यवहार के धरातल पर लाने में असफल हो गई | इसके कारण पर विचार करने पर एक बार स्पष्ट होती है की भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सरकार बनाने वाले स्वयं भ्रष्टाचार के दोषी है | आए दिन विधायकों पर तरह तरह आरोप लग रहे है वेसे धुआ वही से निकलता है जहा आग लगी हो ! आप पार्टी की जड़ों तक जाने पर आपको पता लगता है की ये उन विचारों का प्रतिनिधित्व करते है, जो इस देश के आचार-विचार और परम्परा से सहमति नहीं रखते | इनके सामने संकट भ्रष्टाचार नहीं है, भ्रष्टाचार को तो इन्होने लड़ाई के साधन के रूप में काम में लिया है | आप पार्टी के नेता केजरीवाल जहाँ खड़े होकर लड़ रहे हैं वह स्थान ही भ्रष्टाचार का उद्गम स्थल है | वेसे मेरी समझ से भ्रष्टाचार केवल पैसे से नहीं होता, आचरण एक व्यापक शब्द है अर्थात भ्रष्ट – आचरण | इसका सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है | भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘आप’ का आन्दोलन एक नारे से आगे नहीं बढ़ सका है | झूठ बोलना, दूसरों पर दोषारोपण करना भी तो भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है | सीएम अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से किए वादों को पूरा करने की बजाय ‘पंगे की राजनीति’ की राह चुनी।
उपराज्यपाल नजीब जंग से पंगा, दिल्ली पुलिस से पंगा। केंद्रीय गृह मंत्रालय से टकराव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बेबुनियाद आरोपों की झड़ी तो कभी सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रश्न चिन्ह ! केजरीवाल के इस रूप की उम्मीद दिल्ली की जनता को कतई नहीं रही होगी। लेकिन जनता अब केजरी के गढ़े हुए राजनीति झूठ को समझ रही होगी। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को समझना चाहिए कि ‘पंगे की राजनीति’ से किसी पार्टी की साख नहीं बनती है। अभी भी राजनीतिक व नैतिक ईमानदारी के बल ही पार्टी की साख बनी रहती है। अब गुजरात पर नजर टिकी है कल सूरत की आम सभा मे काफी भीड़ तो जुटी इसका अर्थ ये नही की सभी का समर्थन मिलेगा ! हार्दिक पटेल की तारीफ़ों के कसीदे कशकर तालिया बटोर लेना कोई समर्थन की उम्मीद के सपने सँजो लिए तो यह सपने सिर्फ सपने ही है ! अभी एक ओर आरोप लग गया आम आदमी पार्टी (आप) के निलंबित विधायक देवेन्द्र सहरावत ने पार्टी के उच्च नेतृत्व पर 16 करोड़ रुपए से अधिक राशि के चंदे के घोटाले का आरोप लगाया है।
आम आदमी पार्टी को नई राजनीति और नई गवर्नेंस, दोनों का आविष्कार करना था. यह पार्टी भारतीय राजनीति की क्षेत्रीय, जातीय और वैचारिक टकसालों से नहीं निकली. इसे गवर्नेंस में बदलाव के आंदोलन ने गढ़ा था. संयोग से इस पार्टी को देश की राजधानी में सत्ता चलाने का भव्य जनादेश मिल गया था, इसलिए नई सियासत और नई सरकार की उम्मीदें लाजिमी हैं. दिल्ली सरकार के पास सीमित अधिकार हैं, यह बात नई नहीं है लेकिन इन्हीं सीमाओं के बीच केजरीवाल को सकारात्मक गवर्नेंस की राजनीति करनी थी !
दिल्ली की सत्ता में आप की राजनैतिक शुरुआत बिखराव से हुई और गवर्नेंस की शुरुआत टकराव से. सत्ता में आते ही पार्टी का भीतरी लोकतंत्र ध्वस्त हो गया. इसलिए वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदें जड़ नहीं पकड़ सकीं. सच यह है कि सीधे टकराव के अलावा आप, केंद्र की गवर्नेंस और नीतियों की धारदार और तथ्यसंगत समालोचना विकसित नहीं कर पाई. आर्थिक, नीति, विदेश नीति, सामाजिक सेवाओं से लेकर रोजगार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था तक सभी पर, आधुनिक और भविष्योपरक संवादों की जरूरत है, जिसे शुरू करने का मौका आप के पास था !
ऐसे संवादों को तैयार करने के लिए दिल्ली में आप को नई गवर्नेंस भी दिखानी थी. लेकिन 49 दिन के पिछले प्रयोग की नसीहतों के बावजूद अरविंद केजरीवाल अपनी सरकार को प्रशासन के ऐसे अभिनव तौर-तरीकों की प्रयोगशाला नहीं बना सके, जो उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं का आधार बन सकते थे. यही वजह है कि आप राजनीति व गवर्नेंस के सकारात्मक और गुणात्मक संवादों में कोई जगह नहीं बना सकी, सिर्फ केंद्र से टकराव की सुर्खियां बटोरने में लगी रही है
सत्ता में आने के बाद कई महीनों तक मोदी सरकार के नेता भी पिछली सभी मुसीबतों के लिए कांग्रेस को कोसते रहे थे. यह एक किस्म का विपक्षी संवाद था, जिसकी अपेक्षा सरकार से नहीं की जाती. डेढ़ साल बाद मोदी सरकार ने अपने संवाद बदले, क्रियान्वयन पर ध्यान दिया और विपक्ष से सहमति बनाई, तो गवर्नेंस में भी सक्रियता नजर आई. इसी तरह हर समस्या के लिए केंद्र से टकराव वाला केजरीवाल जी का धारावाहिक कुछ ज्यादा लंबा खिंच गया जिसके कारण गवर्नेंस सक्रिय नहीं हो सकी और दिल्ली सरकार वह काम भी करती नहीं दिखी !
राष्ट्रीय राजधानी में आप की सरकार के तजुर्बे पूरे देश में गंभीरता से परखे जा रहे हैं. पंजाब या गोवा के चुनावों में मतदाताओं के पास पुराने दलों को आजमाने का विकल्प मौजूद है. इसलिए यदि आप खुद को विकल्प मानती है तो उसे ध्यान रखना होगा कि इन चुनावों में दिल्ली की गवर्नेंस का संदर्भ जरूर आएगा. फिलहाल पार्टी के चुनावी संवादों में पंजाब या गोवा के भविष्य को संबोधित करने वाली नीतियां नहीं दिखतीं ! मच्छर मारने में चूक और राजनीति पर सुप्रीम कोर्ट से लताड़ खाना किसी भी सरकार की साख पर भारी पड़ेगा क्योंकि इस तरह के काम तो बुनियादी गवर्नेंस का हिस्सा हैं. आप के लिए यह गफलत गंभीर है क्योंकि केजरीवाल (दिल्ली की संवैधानिक सीमाओं के बीच) नई व्यवस्थाएं देने की उम्मीद के साथ उभरे थे. अब उन्हें सबसे पहले दिल्ली में अपनी सरकार का इलाज करना चाहिए और टकरावों से निकलकर सकारात्मक बदलावों के प्रमाण सामने लाने चाहिए. !
आप का जनादेश कमजोर जमीन पर टिका है. उसके पास विचाराधारा, परिवार व भौगोलिक विस्तार जैसा कुछ नहीं है, जिसके बूते पुराने दल बार-बार उग आते हैं. आप उम्मीदों की तपिश और मजबूत प्रतिस्पर्धी राजनीति से एक साथ मुकाबिल है. इसलिए असफलता का जोखिम किसी भी पुराने दल की तुलना में कई गुना ज्यादा है. केजरीवाल को यह डर वाकई महसूस होना चाहिये गवर्नेंस की एक दो बड़ी चूक उनकी राजनीति को चुक जाने की चर्चाओं में बदल सकती है
लेखक – उत्तम जैन (विद्रोही )
यह विचार लेखक के स्वतंत्र विचार है !

शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

रिश्ते दाम्पत्य जीवन के.....

                                                                 रिश्ते दाम्पत्य जीवन के ...
 ऐसा माना जाता है कि पति और पत्नी का रिश्ता सात जन्मों का होता है। कई विपरित परिस्थितियों में भी पति-पत्नी एक-दूसरे का साथ निभाते हैं। यदि पत्नी सर्वगुण संपन्न है तो तब तो दोनों का जीवन सुखी बना रहता है लेकिन पत्नी हमेशा क्रोधित रहने वाली है तो दोनों के जीवन में हमेशा ही मानसिक तनाव बना रहता है। ऐसे बहुत सारे परिवार हैं जिनमें पति-पत्नी के बीच अधिकतर तनाव रहता है ! इस तरह की समस्याएं न उत्पन्न हों, पति-पत्नी व संतानों का जीवन नरक न बने इसके लिए प्रारम्भ से ही ध्यान रखा जाना चाहिए। पति पत्नी विचारधारा में समानता हो पूरी कोसिश करनी चाहिए । आजकल समाज में धन और जाति बस दो ही बात देखी जाती हैं विचारधारा की समानता की ओर कम ही ध्यान दिया जाता है जबकि सफल गृहस्थ जीवन के लिए विचारधारा में समानता होना अति महत्वपूर्ण है। दाम्पत्य कहते किसे हैं? क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों के मिलन से ही अधूरापन भरता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आनंद पूर्ण हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात हैं। रामायण में राम सीता के दाम्पत्य में ये सात बातें देखने को मिलती हैं- संयम : यानि समय-समय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना। राम-सीता ने अपना संपूर्ण दाम्पत्य बहुत ही संयम और प्रेम से जीया। वे कहीं भी मानसिक या शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए। संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना। दोनों एक दूसरे से पूर्णत: संतुष्ट थे। कभी राम ने सीता में या सीता ने राम में कोई कमी नहीं देखी। संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका रहती है। राम और सीता के बीच वनवास को खत्म करने और सीता को पवित्र साबित करने में उनके बच्चों लव और कुश ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना। राम और सीता के बीच संवेदनाओं का गहरा रिश्ता था। दोनों बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते थे। संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना। सक्षम : सामर्थ्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है। समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है। पति-पत्नी किसी भी गृहस्थी की धुरी होते हैं। इनकी सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार होती है। अगर पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ा भी दुराव या अलगाव है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता। परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है। पति-पत्नी का संबंध तभी सार्थक है जबकि उनके बीच का प्रेम सदा तरोताजा बना रहे। तभी तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण कहा जाता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है! मे कहना चाहूँगा मात्र पत्नी से ही सारी अपेक्षाएं करना और पति को सारी मर्यादाओं और नियम-कायदों से छूट दे देना बिल्कुल भी निष्पक्ष और न्यायसंगत नहीं है। स्त्री में ऐसे कई श्रेष्ठ गुण होते हैं जो पुरुष को अपना लेना चाहिए। प्रेम, सेवा, उदारता, समर्पण और क्षमा की भावना स्त्रियों में ऐसे गुण हैं, जो उन्हें देवी के समान सम्मान और गौरव प्रदान करते हैं। जिस प्रकार पतिव्रत की बात हर कहीं की जाती है, उसी प्रकार पत्नी व्रत भी उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। जबकि गहराई से सोचें तो यही बात जाहिर होती है कि पत्नी के लिये पति व्रत का पालन करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा आवश्यक है पति का पत्नी व्रत का पालन करना। दोनों का महत्व समान है। कर्तव्य और अधिकारों की दृष्टि से भी दोनों से एक समान ही हैं। जो नियम और कायदे-कानून पत्नी पर लागू होते हैं वही पति पर भी लागू होते हैं। ईमानदारी और निष्पक्ष होकर यदि सोचें तो यही साबित होता है कि स्त्री पुरुष की बजाय अधिक महम्वपूर्ण और सम्मान की हकदार है मगर सन्मान देना उसका कर्तव्य भी है ! पति जब कर्तव्य निष्ठ हो पत्नी के प्रति वफादार हो उसे पूर्ण सन्मान देना चाहिए !जब पति को सन्मान नही मिलेगा तो पति पथ से भ्रमित होता है उसकी पूरी ज़िम्मेदारी पत्नी की होती है यानि दोषी पत्नी ही होती है इंसान को जो कुछ भी मिलता है, उसके लिए वह खुद जिम्मेदार होता है। जीवन में प्राप्त हर चीज उसकी खुद की ही कमाई है। जन्म के साथ ही भाग्य का खेल शुरू हो जाता है। हम अक्सर अपने व्यक्तिगत जीवन की असफलताओं को भाग्य के माथे मढ़ देते हैं। कुछ भी हो तो सीधा सा जवाब होता है, मेरी तो किस्मत ही ऐसी है। हम अपने कर्मों से ही भाग्य बनाते हैं या बिगाड़ते हैं। कर्म से भाग्य और भाग्य से कर्म आपस में जुड़े हुए हैं। किस्मत के नाम से सब परिचित है लेकिन उसके गर्भ में क्या छिपा है कोई नहीं जानता। भाग्य कभी एक सा नहीं होता। वो भी बदला जा सकता है लेकिन उसके लिए तीन चीजें जरूरी हैं। आस्था, विश्वास और इच्छाशक्ति। आस्था परमात्मा में, विश्वास खुद में और इच्छाशक्ति हमारे कर्म में। जब इन तीन को मिलाया जाए तो फिर किस्मत को भी बदलना पड़ता है। वास्तव में किस्मत को बदलना सिर्फ हमारी सोच को बदलने जैसा है। अपनी वर्तमान दशा को यदि स्वीकार कर लिया जाए तो बदलाव के सारे रास्ते ही बंद हो जाएगे। भाग्य या किस्मत वो है जिसने तुम्हारे ही पिछले कर्मो के आधार पर तुम्हारे हाथों में कुछ रख दिया है। अब आगे यह तुम पर निर्भर है कि तुम उस पिछली कमाई को घटाओ, बढ़ाओ, अपने कर्मो से बदलो या हाथ पर हाथ धर कर बेठे रहो और रोते-गाते रहो कि मेरे हिस्से में दूसरों से कम या खराब आया है। भाग्यवाद और कुछ नहीं सिर्फ पुरुषार्थ से बचने का एक बहाना या आलस्य है जो खुद अपने ही मन द्वारा गढ़ा जाता है। यदि हालात ठीक नहीं या दु:खदायक हैं तो उनके प्रति स्वीकार का भाव होना ही नहीं चाहिये। यदि इन दुखद हालातों के साथ आप आसानी से गुजर कर सकते हैं तो इनके बदलने की संभावना उतनी ही कम रहेगी। अंत मे यही कहूँगा विकट परिस्थिति मे भी परिवार के प्रति समर्पण , स्वभाव परिवर्तन , अहंकार का त्याग आपके जीवन को दुख से सुख मे परिवर्तित कर सकता है इस दुख की घड़ी मे आपका आवेश मे लिया निर्णय आपका पतन ही करेगा .... मेरे हर शब्द पर मंथन करे जीवन को सकारात्मक रूप से देखे ..... नकारात्मक उर्झा को त्यागे ................. 
लेखक विद्रोही आवाज के संपादक 
उत्तम जैन ( विद्रोही ) 
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

सुख ओर दुख के दिन

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
कटते हैं दुख में ये दिन, पहलू बदल बदल के
रहते हैं दिल के दिल में, अरमाँ मचल मचल के
कटते हैं ...!
तड़पाएगा कहाँ तक, ऐ ददर्\-ए\-दिल बता
रुसवा कहीं न कर दें, आँसू निकल निकल के
कटते हैं ...!
ये ख्वाब पर जो चमके, ?
फेंका गया है दिल का, गुँचा कुचल कुचल के
कटते हैं ...!
उल्फ़त की ठोकरों से, आखिर न बच सका दिल
आखिर न बच सका दिल
जितने कदम उठाए, हमने सम्भल सम्भल के
कटते हैं ...!
 आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वही व्यक्ति समझदार और सफल है, जिसे इस प्रश्न का उत्तर हमेशा मालूम रहता है। समझदार व्यक्ति जानता है कि वर्तमान समय कैसा चल रहा है। अभी सुख के दिन हैं या दुख के। इसी के आधार पर वह कार्य करता हैं। यदि सुख के दिन हैं तो अच्छे कार्य करते रहना चाहिए और यदि दुख के दिन हैं तो अच्छे कामों के साथ धैर्य बनाए रखना चाहिए। दुख के दिनों में धैर्य नही खोना चाहिए ! दुख के बाद सुख आना ही है अगर आपने दुख के दिनो मे धेर्य बनाए रखा ! एक कहानी के माध्यम से आपको कहना चाहूँगा ..
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यह कहानी है दो पानी के दो पात्र "घडे" की, एक घड़े का नाम सुखिया और दूसरे घड़े का नाम दुखिया था, दोनों घड़े एक ऋषि के आश्रम मे पानी भरने के काम आते थे, और आश्रम के ऋषि दोनों घड़ो को रोज़ साफ करते और नदी पे जा कर उसमे पानी भर के लाते, भगवान की आराधना करने वाले महात्मा ऋषि मुनि ओ के काम आने से दोनों ही घड़े काफी गर्व महेसूस करते थे, और अपना कर्तव्य यानि के पानी को अपने मे समा कर रखना, बड़े लगन से करते थे, कुछ समय बीतने के बाद सुखिया और दुखिया मे से दुखिया नाम का घड़ा थोड़ा टूटफूट जाता है, और उसमे से थोड़ा थोड़ा पानी टपक ने लगता है, अपनी इस हालत से दुखिया काफी दुखी हो जाता है, पर फिर भी अपना काम पूरी ईमानदारी से जारी रखता है, रोज़ नदी पे दोनों घड़े ले जाए जाते एक घड़ा पूरा भरा हुआ आश्रम मे लौटता जबकि दूसरा घड़ा दुखिया आधा टपक जाता, और आधा ही भरा हुआ आश्रम लौट पाता, ऋषि ने दुखिया नाम के घड़े का उपचार भी किया पर एक दो दिनो मे फिर से वो टपकने लगता, अपनी इस हालत से उदास हो कर दुखिया घड़ा रोने लग जाता है, और खुद को बेकार और कमजोर महेसूस करने लगता है, पास मे बैठा सुखिया घड़ा भी दुखिये घड़े को सांत्वना देता है, पर फिर भी दुखिया घड़ा विलाप करता रहेता है, एक दिन रात को आश्रम के ऋषि पानी पीने को उठते है, तो देखते है के दुखिया घड़ा फुट फुट के रो रहा होता है, यह देख कर ऋषि उस घड़े को दुखी होने का कारण पूछते है, तब दुखिया घड़ा अपने मन की पूरी व्यथा सुना देता है, और खुद को तोड़ कर फेक देने के लिये ऋषि को कहेता है, ऋषि दुखिये घड़े की पूरी बात सुन कर मुस्कुरा देते है, और उसे अपने साथ आश्रम के बाहर ले आते है, और गुरु ज्ञान देते है, ऋषि कहेते है, के तुम अपने अंदर पूरा पानी नहीं समा पाते इस लिए दुखी नहीं हो, पर तुम्हारा साथी घड़ा सुखिया अब भी पूरा घड़ा पानी ला सकता है और तुम नहीं ये दुख तुम्हें ज़्यादा सता रहा है शायद, इस लिए दूसरों की बराबरी कर के खुद को कोसना छोड़ देना चाहिये तुम्हें, दूसरी बात यह के तुम ने अपनी नाकामियाबी और कमी तो देख ली, पर कामयाबी और खासियत नहीं देखि, जेसे के नदी से आते वक्त जहा जहा तुम मे से पानी गिरा वहा वहा छोटे छोटे पौधे उग आये है, और ये पोधे कल पैड बन कर पर्यावरण को सुद्ध रखेगे, और एक पौधे या पैड से लाखो करोड़ो नन्हें जीव जन्तु अपना भोजन पाते है, और उसमे अपना घरौंदा बनाते है, और तुम्हारा गिरा हुआ पानी ज़मीन पर या ज़मीन के अंदर रेंग ने वाले जीवो को भी तो ठंडक दे गया, या उसकी प्यास बुजाने के काम आ गया, इस लिए हे दुखिये घड़े शोक का त्याग करो और अपनी शक्ति अनसार कर्म अच्छा कर्म कर के अपना जीवन-काल बिताओ,
उत्तम जैन (विद्रोही )

रविवार, 25 सितंबर 2016

परिवार की खुशिया – समर्पण


परिवार की खुशिया – समर्पण-------
अहंकार है सर्वनाश का द्वारा -----
आज तक मेरे मुताबिक परिवार हर ख़ुशी और गम बाँटने , अच्छे और बुरे की पहचान कराने वाला होता था ! लेकिन अब विचार पूरी तरह बदल चुके है । कहते थे परिवार सुशिक्षित हो ओर परिवार पढ़ा लिखा हो तो हर परेशानी से मुक्त हुआ जा सकता है ! लेकिन अब समय बदल गया है अब तो परिवार ही परेशानी बन जाता है । ओर उसमे सबसे अहम रोल अदा करता अहंकार ! जब अहंकार परवाने चढता है! तब सोचने की शक्ति क्षीण हो जाती है ! जब सब सिर्फ अपने बारे में सोचते है किसी को मुझसे कोई लेना देना नहीं है बस सबको अपनी पड़ी है । जब स्वयं अपने खुशियो के लिए जीना चाहता है लेकिन परिवार की खुशियो को नही चाहते है कहते है क्या मेरी यही ज़िंदगी है ? असली वजह तो कुछ और ही है वो है उनकी सामंतवादी मानसिकता है , मै सोचता हु हर काम घरवालो की मर्जी से सबके सन्मान के साथ और ईमानदारी से करना चाहिए ! लेकिन उनकी सामंतवादी मानसिकता और स्वार्थ की वजह से लेकिन पत्थर तो पत्थर ही होता ! आज परिवार के सदस्यो को ख़ुशी और भविष्य से कोई लेना देना नहीं है उन्हें तो बस अपनी पड़ी है !अपने घमंड व अहंकार रूपी चादर को कोई हटाना नही चाहता ! स्वयं के अहंकार को कम करना जेसे खुद को बोना समझते है ! स्वयं की खुशिया सर्वोपरि समझने लगते है लगता है की कैसे भी मुझे इनसे आजादी मिल जाए ताकि मै जिन्दगी में कुछ कर सकूं आगे बढ़ सकूं जितना आगे बढ़ने के प्रयास करता/ करती हूँ उतना ही मेरा परिवार मुझे पीछे की और धकेलता जाता है । अब तो परिवार से और इस शब्द से ही नफरत हो गई है। पता नहीं कब मुझे आजादी मिलेगी या फिर इनकी कैद में मेरा भविष्य यूँ ही बर्बाद हो जाएगा। यही संकीर्ण मानसिकता आज हर व्यक्ति के जेहन मे बस चुकी है ! यही है पारिवारिक विनाश का मुख्य कारण ! लेकिन किस्मत भी मेरा साथ नहीं देती ओर कटु सत्य है परिवार दूर होकर जीवन मे न खुशी मिल सकती है ओर न ही उन्नति ओर न ही सपने साकार हो सकते है किस्मत का साथ तो दूर की बात है ! चंद वर्षो की ज़िंदगी यूंही बिखर जाती है मिलता है सिर्फ अफसोस जब समय निकल जाता है ! अपने भीतर मौजूद सीमाओं को समझने के लिए परिवार एक अच्छी जगह है। परिवार में रहकर आप अपनी ट्रेनिंग कर सकते हैं। परिवार के साथ रह कर आप कुछ लोगों के साथ हमेशा जुड़े रहते हैं, जिसका मतलब है, आप जो कुछ भी करते हैं, उसका एक दूसरे पर असर जरुर पड़ता है। ऐसा हो सकता है कि उनके कुछ काम या आदतें आपको पसंद न हो, फिर भी आपको उनके साथ रहना पड़ता है। यह आपके फेसबुक परिवार की तरह नहीं है जिसमें आपने 10,000 लोगों को जोड़ तो रखा है, लेकिन अगर आप किसी को पसंद नहीं करते, तो आप एक क्लिक से उसे बाहर कर सकते हैं। या व्हट्स अप नही की जब चाहा आपको आचरण अच्छा नही लगा ब्लॉक कर दिया अपनी पसंद-नापसंद से ऊपर उठने के लिए परिवार बहुत ही कारगार साबित हो सकता है। परिवार के सामंजस्य के लिए त्याग करना बहुत जरूरी है ! अपने विचारो को परिवार के साथ तालमेल बैठने के लिए महात्वाकांशा बलिदान करने की जरूरत है ! हो सकता है अपनी कुछ खुशियो , अपने कुछ सपनों का त्याग करना पड़े वही त्याग आपके सुंदर भविष्य का निर्माण करेगा ! सिद्घि समर्पण से सहज ही मिल सकती है ! मगर समर्पण आपको करना ही पड़ेगा आपको स्वय हित को त्याग परिवार के बारे मे गहन चिंतन करना होगा वह दिन दूर नही जब आपके सामने खुशिया झोली फेलाकर खड़ी होगी ! हमें अपनी मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है ! तभी हमारी ओर परिवार की खुशिया है ! तो आज ही हम प्रण ले परिवार के लिए जीना है ओर परिवार रूपी वटवृक्ष को हमे सींचना है तभी हमे अच्छी व शीतल छाँव मिलेगी !
उत्तम जैन ( विद्रोही )http://www.vidrohiawaz.com/
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शनिवार, 24 सितंबर 2016

जीवन के कडवे अनुभव - एक सफर

जीवन के कडवे अनुभव - एक सफर
सफ़र दुनिया की नजर में इस शब्द का मतलब यात्रा करने से है पर वास्तविक अर्थ तो कुछ और ही है । इसका अर्थ तो उन कड़े अनुभवों और संघर्षो से है जो इस जीवन में हमें मिलते है यहाँ हमें नए नए और कडवे अनुभव हर दिन मिलते है जो बहुत कुछ सिखा देते है सब कुछ सहना और किसी से कुछ न कहना हम जीवन के इस सफ़र में ही सीखते है , कभी अच्छा और कभी बुरा अनुभव आपको परिपक्व बनाने में और तपाने में मदद करता है जो कुछ करने के लिए हिम्मत देता है, लोगो की पहचान कराता है और जीवन के इस कठिन डगर में चलना सिखाता है संभलना सिखाता है । इस सफ़र में तो हमेशा ऐसे लोगों से मिलना जुलना लगा रहता है जो बिना कुछ जाने अपना ज्ञान बांटते रहते है ! ये वो ही लोग होते जिन्होंने सही मायने में तो सफर किया ही नहीं होता ये सिर्फ यात्रा करते है जो हमेशा सुखद होती है ये लोग जिन्दगी को कभी समझ ही नहीं पाते बस हमेशा बिना कुछ सोचे अपनी सलाह दूसरों को देते रहते और ये सोचते है की उनकी ये सलाह दूसरे बिना कुछ कहे मान भी ले लेकिन इन्हें क्या मालूम की ऐसा नहीं होता ।लोग बिना किसी के बारे में जाने या अधूरी बाते जानकर ही अपना किसी के प्रति नजरिया बना लेते है और उसी के अनुरूप अपना ज्ञान और अपनी सलाह देते रहते है और जब सामनेवाला उनकी बात न माने तो उसे दुनिया का सबसे बुरा इंसान करार देते है । ये दुनिया का रिवाज है जो आज से नहीं सदियों से चला आ रहा है और उसे चाहकर भी कोई नहीं बदल पाया है ।
इस दुनिया में बड़े अजीब लोग है जो लोग आपके अन्दर दिनभर कमिया ढूँढते रहते है वही आपसे मदद लेने में भी जरा सा भी नहीं हिचकते है जब आपको उनकी जरुरत थी तो बड़ी आसानी और चतुरता के साथ अपना हाथ आपकी मदद करने से खींच लिया लेकिन जब उन्हें जरुरत पड़ी तो बड़े आराम से बिना कुछ सोचे मुंह उठा कर आपसे मदद लेने चले आये ये है दुनिया का दस्तूर ।
जिन्हें कभी लगता था की आप किसी काबिल नहीं हो आज जब आपको सफलता मिली , धन -दौलत और शोहरत जब आपके क़दमों है तो खुद को आपका करीबी और शुभचिंतक बताने लगे लेकिन जैसे ही ये सब कुछ आपसे दूर हुआ तो आपके शुभचिंतक भी उसी पल दूर हो गए ये होता है सफ़र का मजा और अर्थ ।
यहाँ बहुत से बुरे अनुभव मिलते है और आपको अपने और पराये , सही और गलत में फर्क करना सब सहज ही समझ आने लगता हैं । इसके अपने सुख भी है और दुःख भी है जो जीवन के सफ़र को तय करने वाले और इसे समझने वालो को इस पथ में आगे चलने और बढ़ने पर मिलेंगे ।
" मेरी मंजिल की बड़ी कठिन डगर है
जिसमें मेरे बड़े कठिन हमसफर हैं
इस सफर में बहुतों ने तोडा है दम मगर
जीता वहीँ है जिसने सफर में गिर कर भी खुद को संभाला अगर है , दम तोडना भी इतना गर होता आसान तो करते ही क्यों ये सफर हम मगर है।"
अपने सपने और अपनी मंजिल का पता तो हर इंसान को खुद ही लगाना होता है और इनके बारे में बहुत सोचकर ही किसी से कहना चाहिए क्योकि यहां तो अनुभवी भी आपका मजाक बनाने से बाज नहीं आते । ये बात मै इतनी आसानी से इसलिए कह पा रहा हूँ क्योकि इस सफ़र को मैंने जिया हैं महसूस किया है लेकिन अभी दम नहीं तोडा है जब तक रहेंगी इस शरीर में सांसे ये सफ़र कभी नहीं थमेगा चाहे कितने ही बुरे और कडवे अनुभवों से क्यों न गुजरना पड़े हमें । हम तो इस पर चलते ही रहेंगे क्योकि ------
हम है राही प्यार के चलना अपना काम हौसला न छोड़ेंगे हारी बाजी जीतेंगे।"
ये खुद से वादा है और चाहे जितने आलोचक क्यों न हो खुद को हम साबित करेंगे ।
उत्तम जैन (विद्रोही )----- 

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गुरुवार, 22 सितंबर 2016

वर्तमान की सबसे बड़ी पारिवारिक समस्या सास बहू व पति के मतभेद

वर्तमान की सबसे बड़ी पारिवारिक समस्या सास बहू व पति के मतभेद
ससफल विवाहित जीवन के लिए पति-पत्नी दोनों में कुछ विशेषताएं होनी चाहिए। परिवार समाज की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण इकाई है। हमारे देश में परिवार का आधार विवाह है। विवाह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दो अपरिचित स्त्री-पुरुष सामाजिक विधानों के अनुसार संबंध स्थापित करते हैं तथा उनका शारीरिक एवं भावनात्मक मिलन होता है। पारिवारिक समायोजन न होने की स्थिति में भी द्वंद्व बना रहता है। विवाह के पश्चात स्त्री और पुरुष दोनों को ही नवीन भूमिकाओं से स्वयं को समायोजित करना होता है। पारिवारिक समायोजन में स्त्री जो वधू के रूप में ससुराल जाती है, विवाह के बाद उसका पहला समायोजन पति के साथ होता है और फिर ससुराल के अन्य सदस्यों के साथ समायोजन की समस्या उत्पन्न होती है। आज मेरे विचारो ने पारिवारिक समायोजन की समस्या को उठाया है। वधू को ससुराल में सबसे अधिक समायोजन की समस्या ससुराल की स्त्रियों के साथ होती है जो कि सास, ननद, जेठानी के रूप में होती है। बहुदा बहू और सास में परस्पर मनमुटाव होता रहता है। इस बात पर मेने बहुत शोध किया की सास बहू मे अनबन व आपस मे अनबन के किस्से ज्यादा क्यू होते है ! काफी संशोधन के बाद इस निर्णय पर पहुचा की सास बहू मे मुख्यतया 20 वर्ष का उम्र का फर्क होता ही है ! अब इन 20 वर्ष के फर्क मे सोच का काफी फर्क होता है ! मुख्यतया सास की पढ़ाई 12 या इसके समकक्ष या इससे भी कम होगी ! ओर आज की लडकीया कुछ ज्यादा पढ़ी लिखी ! स्वाभाविक है सोच व विचारधारा मे फर्क होगा ही ! अब यह 20 वर्षो का अंतर तो स्वाभाविक है ! फिर संतुलन की कमी को केसे पूरा किया जाए जब यह सोच का संतुलन पूरा नही हो पाता स्वाभाविक रूप से उनमे यह मनमुटाव होना ही है ! इसका समाधान क्या ?
नव वधू के आगमन पर सास को प्रायः ‘‘असुरक्षा की भावना’’ अनुभव होती है। इसी के वशीभूत हो कर वह अपने मन के रोष, क्षोभ, आशा, स्पर्धा आदि भावों का शिकार हो जाती है। परिवार के पुरुष वर्ग का अधिकांश समय घर के बाहर व्यतीत होता है और प्रायः स्त्रियां सारा दिन घर में रहती हैं इसलिए समायोजन की आवश्यकता उनके साथ अधिक होती है। यद्यपि आज महिलाएं नौकरीशुदा भी हैं। एक अन्य मनोवैज्ञानिक कारण है- स्त्रियों में जाने अनजाने में एक दूसरे के रूप और गुण के प्रति ईर्श्या की भावना का होना। एक और स्थिति में जरा-सी चूक हो जाने पर समायेाजन की समस्या गंभीर होने के साथ-साथ असंभव भी हो जाती है, जहां वर अपने परिवार से बहुत अधिक जुड़ा रहता है। उसके अनुसार आदर्श नारी का रूप उनकी मां और बहनें ही होती हैं और वह उन्हीं की विशेषताओं को अपनी पत्नी में भी देखना चाहता है। वधू का अपना व्यक्तित्व और विशेषताएं होती हैं तथा जब वर के द्वारा अपनी पत्नी तथा परिवार की अन्य स्त्रियों में बहुत अधिक तुलना की जाने लगती है तो कई बार वधू के आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचती है और सहनशीलता की सीमा पार हो जाने पर परिवार टूट जाते हैं। ऐसा कभी-कभी वधू के द्वारा भी हो जाता है कि वह अपने पिता की छवि व विशेषताएं अपने पति में देखना चाहती है। यह भावना ग्रंथी होती है। स्त्री-पुरुष संबंधों में व परिवारों में जिन समस्याओं के कारण तनाव उत्पन्न हो, उन समस्याओं पर मिलकर विचार करना चाहिए। कौन सही है, इस पर नहीं अपितु क्या सही है इस पर विचार किया जाना चाहिये !.....
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अकसर छोटी.छोटी बातों को लेकर पति.पत्नी इस हद तक झगड़ पड़ते हैं कि उनकी जिंदगी में सिर्फ तनाव ही रह जाता है जो उन पर इस हद तक हावी हो जाता है कि दोनों का एक छत के नीचे जीवन बसर करना मुश्किल हो जाता है और नौबत तलाक तक पहुंच जाती है। आम जिंदगी में यदि पति.पत्नी कुछ बातों को ध्यान में रखें तो तनाव से बच कर अपने घरेलू जीवन को खुशियों से भर सकते हैं। यदि पति.पत्नी के बीच कभी झगड़ा हो तो दोनों में से एक को शांत हो जाना चाहिए जिससे बात आगे न बढ़े और फिर पति.पत्नी का झगड़ा तो पानी के बुलबुलों की तरह होता है जो पल भर में ही खत्म हो जाता है। युगो से नर-नारी समानता का एक मूल तथ्य परिचालित किया जाता रहा है कि पुरूष स्त्री की अपेक्षा साधारणतया ज्यादा बड़ा और शक्तिशाली होते हैं और सामान्यतः भौतिक हिंसा में जीत उन्हीं की होती है । मानव सभ्यता के शुरू से ही स्त्रियों को पुरूषों के भौतिक हमलों से स्वयं की रक्षा करनी पडी है । यहां तक कि जब वह क्रोधित नर के सामने अपने आप को असहाय महसूस करती है कई पत्नियां अपनी पति की बातों को लेकर काफी कंफ्यूज रहती है कि आखिर उनके पति अपने मन की बात उनसे शेयर क्यों नहीं करते और उनके पति मन ही मन परेशान क्यों रहते है और खुद ही अपनी सारी मुश्किलों को सुलझाने के लिए प्रयत्न करते रहते है और उनसे कोई भी बात शेयर क्यों नहीं करते । इन्ही कारणों से कभी-कभी पति-पत्नी के बीच में मन मुटाव पैदा हो जाता है और कई पत्नियां जो अपने पति के मन की बातों को समझ लेती है उनके पति उनसे खुश हो जाते है परंतु कई बार पत्नी कंफ्यूज हो जाती है कि आखिर उनके पति की खुशी किस बात में है । इन टिप्स की मदद से आप जान सकती है कि एक पति अपनी पत्नी से क्या चाहता है ।
कुछ टिप्स –
हर पति अपनी पत्नी से यह अपेक्षा करता है कि उसकी पत्नी उसके अच्छे कार्य करने पर उसकी तारीफ करें और एसा करने से आपके पति आपसे खुश हो जाएंगे। पति को ये बात सबसे ज्यादा अच्छी लगती है कि जब वो घर पर रहे तो उसकी पत्नी उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करें और जितना भी समय उसके साथ व्यतीत करें वो लम्हें हंसी मजाक से भरे होने चाहिए और लड़ाई झगड़े न हो जिससे रिश्तों में तनाव पैदा हो सकता है ।पति को ये बात सबसे अच्छी लगती है जब उसकी पत्नी घर के छोटे- छोटे कामों में अपने पति की मदद मांगे और काम करने के साथ- साथ आपस में ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत हो सकता है । हर पति यही चाहता है कि उसकी पत्नी सिर्फ उसी से प्यार करें और किसी और उसी को अपनी लाइफ का हीरो मानें ...................
उत्तम जैन (विद्रोही )

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

पल का उपयोग – सकारात्मक सोच

हम जब भी बाजार से कोई खाने पिने या दवा खरीदते है उस पर लिखी उत्त्पाद तिथी व् अवसान तिथी पहले देखते है !क्युकी हम पहले से अधिक जागरूक हो गए है ! साथ में हम यह भी देखते है की इस वस्तु में कोई हानिकारक तत्व तो मौजूद नही ! इसी प्रकार से हम सभी के जीवनों पर प्रयोग हो सकने वाली तिथि लिखी हुई है – बस हम में से कोई उस तिथि को जानता नहीं है; हमें पता नहीं है कि हमारा हृदय किस तिथि तक ही कार्य करेगा और फिर सदा के लिए बैठ जाएगा, या हमारी अन्तिम श्वास किस पल ली जाएगी और फिर किस रीति से सदा के लिए थम जाएगी। जब यह सत्य सभी के जीवनों के लिए अवश्यंभावी है, तो क्या हम सब को उन पलों का जो हमें दिए गए हैं, मन लगा कर सदुपयोग नहीं करना चाहिए? पलों के उपयोग से मेरा तात्पर्य है हम और गहराई तथा अर्थपूर्ण रीति से सच्चा प्रेम दिखाएं, औरों को क्षमा करने में तत्पर रहें, दूसरों की सुनने वाले बनें, खराई किंतु मृदुभाव से बोलने वाले बनें, इत्यादि। क्योंकि हम में से कोई भी अपने उपयोगी रहने की अन्तिम तिथि नहीं जानता, इसलिए प्रत्येक पल को बहुमूल्य जानकर, हर पल का उपयोग त्याग ,संयम, साधना , सतकर्म , प्रेम से प्रसार कर संसार को और अधिक उज्जवल तथा सुन्दर बनाने के लिए करने वाले बन जाएं। जब हम अपने परिवेश व दिनचर्या को देखते हैं तो पाते हैं कि हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण और आस-पास गणित ही गणित है। ये खुशियां हमें यूं ही सौगात में कोई नहीं दे देगा। उन्हें हमें पथरीले जीवन, कांटोंभरी जिंदगी के बीच से फूलों के समान चुनना होगा। जीवन में परेशानियां सभी को आती हैं, लेकिन जीवन सफल उसका है, जो परेशानियों का हिम्मत से सामना करते हुए जीवन में खुशियां ढूंढ लेते हैं ! …..आज के जमाने में खुशियां हासिल करना कांटों के बीच से फूल ......
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गुरुवार, 15 सितंबर 2016

क्षमा वाणी - दिगंबर संप्रदाय का एक विशेष पर्व

क्षमा वाणी - दिगंबर संप्रदाय का एक विशेष पर्व
हे भगवान! मैंने पर्युषण पर्व मनाते हुए दसलक्षण को अपने जीवन में अपनाया है। मेरे अंदर ऐसी भावना जागृत कर दो कि मेरे जीवन की सारी मलिनताएं समाप्त हो जाएं। आत्मा की शुद्धता सभी धर्मों का आधार होता है। आत्मा की शुद्धता के लिए सभी धर्मों में कोई न कोई विधान है। जैन धर्म में पर्यूषण पर्व ऐसा ही विधान है जिसका उद्देश्य जीवन को सार्थक बनाने के लिए मन, क्रम और वचन पर नियंत्रण रखते हुए आत्मा में स्थिर वास करना है। पर्यूषण का अर्थ भी स्थिर वास करना ही है। इस पूर्व के दौरान जैन अनुयायी व्रत, ध्यान, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और समाधि जैसी साधनाओं से अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करते हैं।जैन दर्शन में पर्यूषण या दशलक्षण पर्व के दिनों में आध्यात्मिक तत्वों की हम आराधना करके अपना और अपने जीवन मूल्यों का स्पर्श करते हैं। इसकी समाप्ति के ठीक एक दिन बाद विशेष पर्व मनाया जाता है और वह है क्षमावाणी पर्व। दिगंबर परंपरा के अनुयायी इसे क्षमापर्व या क्षमावाणी पर्व कहकर पुकारते हैं। यह पर्व बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।दुनिया में यह अपने तरह का अलग पर्व है, जिसमें क्षमा या माफी मांगी जाती है। इस दिन प्रत्येक जीव से अपने जाने या अनजाने में किए गए अपराधों के प्रति क्षमा-याचना की जाती है। बधाइयों के पर्व बहुत होते हैं, जिनमें शुभकामनाएं दी जाती हैं, लेकिन जीवन में एक ऐसा दिन भी आना चाहिए, जब हम अपनी आत्मा के बोझ को कुछ हल्का कर सकें। अपनी भूलों का प्रायश्चित करना तथा यह प्रतिज्ञा करना कि दूसरी भूल नहीं करेंगे, यह हमारे आत्मविकास में सहयोगी होता है। पर्वो के इतिहास में यह पर्व एक अनूठी मिसाल है।हम अपने जीवन में कितने ही बुरे कर्म जान-बूझकर करते हैं और कितने ही हमसे अनजाने में हो जाते हैं। हमारे कुकर्मो या गलतियों की वजह से दूसरों का मन आहत हो जाता है। हमें वर्ष में कम से कम एक बार इस पर विचार जरूर करना चाहिए कि हमने कितनों को दुख पहुंचाया? सदियों से चली आ रही दुश्मनी, बैर-भाव की गांठ को बांधकर आखिर हम कहां जाएंगे? जब हम किसी से क्षमा मांगते हैं तो दरअसल अपने ऊपर ही उपकार करते हैं। अच्छाई की ओर प्रवृत्त होने की भावना जब हर मानव के चित्त में समा जाएगी, तब मानव जीवन की तस्वीर ही कुछ और होगी।क्षमा शब्द क्षम से बना है, जिससे क्षमता शब्द भी बनता है। क्षमता का मतलब होता है साम‌र्थ्य। क्षमा का वास्तविक मतलब यह होता है किसी की गलती या अपराध का प्रतिकार नहीं करना। सहन कर जाने की साम‌र्थ्य होना यानी माफ कर देना। दरअसल, क्षमा का अर्थ सहनशीलता भी है। क्षमा कर देना, माफ कर देना बहुत बड़ी क्षमता का परिचायक होता है। इसलिए नीति में कहा गया है-क्षमा वीरस्य भूषणम् अर्थात क्षमा वीरों का आभूषण है, कायरों का नहीं। कायर तो प्रतिकार करता है। प्रतिकार करना आम बात है, लेकिन क्षमा करना सबसे हिम्मत वाली बात है। क्षमा भाव अंतस का भाव है। जो अंतस की शुद्धि के आकांक्षी हैं, वे सभी इस पर्व को मना सकते हैं। इस शाश्वत आत्मिक पर्व को जैन परंपरा ने जीवित रखा हुआ है। क्षमा तो हमारे देश की संस्कृति का पारंपरिक गुण हैं। यहां तो दुश्मनों तक को क्षमा कर दिया जाता है। हमारी संस्कृति कहती है -मित्ती में सव्व भूयेसु, वैर मज्झं ण केणवि। प्राकृत भाषा की इस सूक्ति का अर्थ है सभी जीवों में मैत्री-भाव रहे, कोई किसी से बैर-भाव न रखे। जैन संस्कृति ने इस सूक्ति को हमेशा दोहराया है।ईसा मसीह का वाक्य है- हे पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं? वहीं कुरान ने क्षमा को साहसिक मानते हुए कहा - जो धैर्य रखे और क्षमा कर दे, तो यह उसके लिए निश्चय ही बड़े साहस के कामों में से है। बाणभट्ट ने हर्षचरित में क्षमा को सभी तपस्याओं का मूल कहा है-क्षमा हि मूलं सर्वतपसाम्। महाभारत में कहा है, क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थ मनुष्यों का भूषण है। बौद्धधर्म के ग्रंथ संयुक्त निकाय में लिखा है- दो प्रकार के मूर्ख होते हैं-एक वे जो अपने बुरे कृत्यों को अपराध के तौर पर नहीं देखते और दूसरे वे जो दूसरों के अपराध स्वीकार कर लेने पर भी क्षमा नहीं करते। गुरु ग्रंथ साहिब का वचन है कि क्षमाशील को न रोग सताता है और न यमराज डराता है।
अनेक धर्मो और दार्शनिकों ने क्षमा की महिमा को निरूपित किया है। अत: क्षमा दिवस आध्यात्मिक पर्व है। अंतस के मूलगुण किसी धर्म-संप्रदाय से बंधे नहीं होते, इसीलिए क्षमापर्व सर्वधर्म समन्वय का आधार है।आप सभी से क्षमा याचना
उत्तम जैन (विद्रोही )

बुधवार, 7 सितंबर 2016

जैन चातुर्मास का केंद्रीय पर्व ‘पर्यूषण” व दशलक्षण पर्व

चातुर्मास का केंद्रीय पर्व ‘पर्यूषण” व दशलक्षण पर्व
जैन परंपरा में चातुर्मास के साधनाकाल के बीच पर्यूषण (पज्जोसवना) पर्व आता है| इसे संवत्सरी भी कहते हैं| श्‍वेतांबर जैनों का ८ या १६ दिवसीय पूर्यषण पर्व भाद्र पद शुक्ल पक्ष की पंचमी को संपन्न होता है जो पूर्ण हो चुका है न अंतिम दिन को ‘संवत्सरी’ या ‘संवत्सरी प्रतिक्रमण’ कहा जाता है| इसे क्षमावणी पर्व भी कहते हैं| ‘प्रतिक्रमण’ (सामयिक) जैनों के अनुसार उनकी आध्यात्मिक यात्रा के नवीकरण (उसकी तरफ पुनः वापसी) का पर्व है| जैन श्रावकों के लिए वर्ष में एक बार ‘प्रतिक्रमण’ आवश्यक है| ‘संवत्सरी’ और ‘पर्यूषण’ दोनों वस्तुतः एक ही हैं| जैन विश्‍वास है कि पर्यूषण के आठ दिनों में देवतागण तीर्थंकरों की अष्टप्रकारी (आठ प्रकार की) पूजा करते हैं| इसलिए अष्टाहनिक महोत्सव भी कहते हैं|
दिगंबरों में इस १० दिन के पर्व महोत्सव को ‘दशलक्षण पर्व’ कहते हैं| इसका प्रारंभ और अंत के बारे में दिगंबरों और श्‍वेतांबरों में थोड़ा मतभेद है| श्‍वेतांबरों का पर्यूषण पर्व या ‘अष्टाहनिक महोत्सव’ जहॉं भाद्र शुक्ल पक्ष पंचमी को समाप्त होता है, वहीं दिगंबरों का ‘दश लक्षण पर्व’ (या १० दिन का उत्सव) इस तिथि को प्रारंभ होता है और चतुर्दशी (अनंत चतुर्दशी) तक चलता है| श्‍वेतांबरों में इस दौरान कल्पसूत्र का पाठ किया जाता है, जिसमें पॉंचवें दिन भगवान महावीर की जन्मकथा कही जाती है| दिगंबर इस अवधि में उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र का पाठ करते हैं| दिगंबर दशमी को ‘सुगंध दशमी व्रत’ करते है| तथा अनंत चतुर्दशी का उत्सव मनाते हैं| क्षमावणी के दिन सभी जैन मतानुयायी अपने सभी संबंधियों मित्रों से ही नहीं, सभी प्राणियों से क्षमा का आदान-प्रदान करते है॥
‘खमेमि सव्वेजीव, सव्वेजीवा खमन्तु में
मित्ती में सव्ब भूएषु, वेरम मझ्झम न केनवी
मिच्छमि दुक्कड़म् (मिथ्या मे दुष्कृतम)’......