शनिवार, 16 जुलाई 2016

सामाजिक जीवन और बदलती पारिवारिक संरचना व संस्कार

सामाजिक जीवन और बदलती पारिवारिक संरचना व संस्कार

मनुष्य जीवन ईश्वर का दिया एक अनमोल उपहार है। इसे व्यर्थ न जाने देने की हमेशा नसीहतें दी जाती हैं। अफसोस आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में मनुष्य के लिए नसीहतों का कोई मूल्य नहीं रहा। अर्थ प्रधान युग में जीवन पर अर्थ इस कदर हावी हो गया है कि एक पढ़ा-लिखा, शिक्षित-समझदार, स्वावलम्बी हर तरह की सुविधाओं से पूर्ण होने के बाद भी संस्कारो से परिपूर्ण नही है ! आज इंसान की तुलना गेंडे से करूंगा । जिस तरह गेंडे की मोटी खाल पर किसी तरह का प्रभाव नहीं होता है, वो दलदल में पड़ा रहता है। उसी तरह इंसान को भी स्वार्थ के दलदल में रहने की आदत सी पड़ गयी है ! आज संतान संस्कारहिन हो गयी है !बुजुर्ग आज उस परिस्थिति मे आ गए है न जी सकते न मर सकते ! बुजुर्गो की जिंदगी को कठिन बना दिया है। जिन मां-बाप ने संतान को कभी जीवन मेंअंगुली पकड़कर चलना सिखाया हो,आखिर क्या कारण हैं कि जब उन्हें सहारेकी जरूरत होती हैउनके पास कोई नहीं होता है?जिसकी हर मांग को मां-बाप ने अपनी जरूरतों में कमी कर पूरा किया आखिर वे बुढ़ापे में क्यों बेगाने हो जाते हैं? सामाजिक मूल्यों में दिनोंदिन आ रहे इन बदलावों के पीछे क्या हैं कारण, जानिए स्पॉट लाइट में...भारत में बुजुर्गो के सम्मानकी परंपरा रही है ! और हम हमेशा इसी बात पर नाज करते रहे हैं कि हमारे यहां नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की उपेक्षा नहीं करती बल्कि उन्हें पूरा सम्मान देती है! और उनके अनुभवों की कद्र करती है। लेकिन बढते औद्योगिकरण, उदार अर्थव्यवस्था और पश्चिमी सभ्यता ने कुछ हद तक हमारी संस्कृति में सेंध लगा दी है। आज जिंदगी इतनी तेज हो गई है कि इस भाग-दौड़ में क्या पीछे छूट रहा है,किसी को चिंता नहीं है।कभी समाज की एकता का प्रतीक कहे जाने वाले संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। अब तो एकल परिवार भी नहीं बचा है। इस स्पर्घा के दौर में बस तरक्की चाहिए, भले ही इसके लिए रिश्ते तोड़ने पडे।आप जब दोहरा जीवन जीते हैं तो परम्पराएं तो टूटेंगी। हमारे बुजुर्ग अपनी समझबूझ और तजुर्बो से हमारे जीवन को एक सार्थक दिशा देने का माद्दा रखते हैं, परंतु आज व्यक्ति अपने में इतना खो गया है कि उसे अपने बुजुगों से मार्ग दर्शन प्राप्त करने का समय ही नहीं है।वृद्धाश्रमों में बढ़ती गई संख्या दुनिया के किसी भी देश,भाषा, संस्कृति में भारत को छोड़कर बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए बड़े-बुजुर्गो द्वारा "जुगजुग जीयो"का आशीर्वाद नहीं दिया जाता है। केवल भारत ही एक ऎसा देश है जहां यह शब्द इस्तेमाल किया जाता है। अब आप समझ सकते हैं कि हमारे यहां बुजुर्गो और बच्चों के बीच का रिश्ता कितना समृद्ध रहा है। लेकिन आज परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। बेटा चारदिवारी के अंदर अपने मां-बाप से बात नहीं करता है लेकिन समाज के सामने यह दिखाता है कि वह सबसे आज्ञाकारी पुत्र है। यह हमारे दोहरे जीवन का सही उदाहरण है। हम घर के बाहर पड़ोसी के सामने झुककर नमस्कार तो करते हैं लेकिन अपने मां-बाप की इज्जत नहीं करते हैं। लोगों के व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार अलग-अलग हो गए हैं। वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस बात का साफ सबूत है कि वृद्धों को उपेक्षित किया जा रहा है। हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजरअंदाज किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे जो इनके पास है। भारत को अभी इसकी आदत नहीं आज दुनिया के सबसे युवा देश में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगो की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वर्ष 2026 तक देश में बुजुर्गो की आबादी 17 करोड़ से भी ज्यादा होने का अनुमान है। वर्तमान में भारत की लगभग 10 प्रतिशत आबादी बुजुर्गो की है। सात साल बाद भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे ज्यादा बुजुर्गो की आबादी वाला देश हो जाएगा। भारत में रोजाना लगभग 17 हजार लोग 60 साल के हो जाते हैं। हमारे देश में ऎसी स्थिति पहले नहीं थी। इसने पिछले कुछ सालों में तेजी पकड़ी है। लिहाजा, भारत ऎसी स्थिति से पहले रूबरू नहीं हुआ था। पश्चिमी देशों में तो बजुर्गो की संख्या पहले से ही ज्यादा रही है, इसलिए वहां के लोगों को इनकी आदत है। अब भारत के सामने जब ऎसी स्थिति आई है! तो लोगों को पहली या दूसरी पीढ़ी के बाद इसकी आदत पड़ जाएगी। खुद पहल करनी होगी आज भारतीय संस्कारों के नाम पर हम दोहरा जीवन जी रहे हैं। दोहरे मापदंड बन गए हैं। विदेशों में तो संस्कार की बात ही नहीं होती है। वहां तो अधिकांश लोग  को पहले से ही मालूम होता है कि उन्हें रिटायर होने के बाद अकेला रहना है। यह बदलाव का दौर है।समाज आज जिस तेजी से बदल रहा है, ऎसे में संस्कारों में परिवर्तन तो दिखेगा ही। बदलती शिक्षा प्रणाली ने भी काफी असर डाला है। पहले हम बचपन में गाय पर निबंध लिखते थे। नैतिक शिक्षा की पढ़ाई पर ज्यादा जोर होता था। बड़ों और बुजुर्गो की इज्जत करना सिखाया जाता था। लेकिन आजकाफी बदलाव देखने को मिल रहा है। किसी भी कोर्स में यह नहीं कहा जाता है कि आप बुजुर्गो के महत्व के बारे में लिखें। ऎसे में आज जरूरत है कि हम स्वयं इसका पहल करते हुए बच्चे को इन सब के बारे में बताएं। वैसे भी बच्चे को सबसे पहला ज्ञान परिवार से ही मिलता है। अगर हम अभी भी नहीं संभले तो आने वाला समय बहुत ही दुखदायी होगा। बाजारवाद ने परिवार को बिखेरा, संस्कार छूट गए है ! भारतीय समाज की व्यवस्था का आधार है परिवार और परिवार का केंद्र है, उस घर की मां। समाज की व्यवस्था परिवार पर आधारित होती है और उस परिवार में बचपन से सांस्कृतिक आदर, संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था पहले पांच साल मां के जिम्मे होती है, पांच से आठ की आयु तक पिता शिक्षक होता है, आठ वर्ष के बाद गुरू ही शिक्षक होता है। शुरू से ही.......
मातृ देवोभव:, पितृ देवो भव:,आचार्य देवो भव: और अतिथि देवो भव: के संस्कार पहले मां द्वारा ही दिए जाते हैं। इस दौर में बाजारवादी अर्थनीति के कारण परिवार नामक संस्था को बड़ा झटका लगा है। घर में मातृ शक्ति की अवमानना हुई तो संस्कार ढीले पड़ते चले गए। बाजारवाद के कारण अब उपयोगिता महत्वपूर्णहो गई है और उपयोगिता में आर्थिक पक्ष ही मजबूत हुआ है। इसके कारण माता-पिता का अवमूल्यन हुआ और उन्हें बोझ समझा जाने लगा। संस्कारों के अभाव में माता-पिता का घर में जो आदरयुक्त स्थान होता था, वह नहीं रहा। जिसके चलते बाल संस्कार में भारी कमी आ गई है। संस्कारहीनता की वजह से उम्रदराज लोगों की घर में ही इज्जत कम हो गई। अब अपनाम और अवहेलना के कारण वृद्धाआश्रमो की पूछ बढ़ गई है। जैसे गाय का स्वाभाविक घर किसान का घर होता है, वैसे ही वृद्धों का स्वाभाविक स्थान पौत्र-पौत्रियों के बीच घर में होता है। अब संस्कार हीनता के कारण गाय गौशाला की ओर भेजी जाने लगी है ! और उपयोगिता न रहने पर वृद्ध पिता वृदाआश्रम भेजे जाने लगे हैं। ये समाज की कमजोरी का लक्षण है। इसलिए समाज की स्वाभाविक स्थिति प्राप्त करने के लिए नई पीढ़ी में उचित संस्कार लाकर घर का वातावरण और शिक्षा के लिए स्कूल का वातावरण सुधारना दोनों निर्णायक रूप से महत्वूपर्ण हैं। विकास की भागदौड़, अमीर और बड़ा बनने की चाह सरासर नासमझी है। ऎसा व्यक्ति जब उम्र की ढलान पर क्या खोया और क्या पाया का हिसाब लगाता है तो उसे घाटा ही घाटा दिखाई पड़ता है। बुढ़ापे में वह अकेलापन पालता है, उम्र उसे खलने लगती है। एक तरफ तो औसत उम्र में इजाफा हुआ है लेकिन दूसरी ओर बढ़ी हुई उम्र बोझ महसूस होने लगी है। इसलिए संयुक्त परिवार की व्यवस्था पर बल देना और गृहणी का सम्मान होना और बाल संगोपन को महत्वपूर्ण माना जाना, ये सब समाज के वातावरण को फिर से ठीक करने के लिए आवश्यक तत्व हैं। वृद्धों का अपमान, संस्कारहीनता और भटकती युवा पीढ़ी की समस्या का यही समाधान है। तरक्की की चाह ने अपनों को छुड़ाया डॉ. गिरधर प्रसाद भगत, समाजसेवी आधुनिकता के इस दौर में बुजुर्गाें की अनदेखी के लिए काफी हद तक वे स्वयं जिम्मेदार हैं। उन्होंने अपने बच्चों को विद्वान और धनवान तो बना दिया लेकिन एक अच्छा इंसान नहीं बना सके। आज सभी को सफलता चाहिए चाहे वह किसी भी कीमत पर हो। नई पीढ़ी को यह नहीं मालूम कि सबसे बड़ी सफलता तो मां-बाप की सेवा करना है। इसमें उसका भी दोष नहीं है। जब हमने उसे ऎसा सिखाया ही नहीं तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं। आज आपको ऎसी भी संतानें मिल जाएंगी जो माता-पिता के वृद्ध होते ही उन्हें या तो सड़कों पर छोड़ देते हैं या फिर वृद्धाश्रम में अकेले रहने को मजबूर कर देते हैं। आप कभी अपने शहर के वृद्धाश्रम में जाकर देखे कितने बुजुर्ग हैं और अधिकतर आपको लावारिस रूप में बुजुर्ग मिल ही जाएंगे ! इनमें से अधिकांश तो अपना खुद का ख्याल नहीं रख सकते हैं। यह प्रवृत्ति पिछले दस सालों में ज्यादा बढ़ी है। संयुक्त परिवार हाशिए पर चले गए हैं। आज ग्लोबलॉइजेशन और औद्योगिकरण का युग है। इसने शिक्षा पर सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है। नैतिक शिक्षा की पढ़ाई से बच्चे दूर गए जिसका असर उनके संस्कारों पर पड़ा है। हिन्दी मीडियमहो या अंग्रेजी,सभी में नैतिकशिक्षा की पढ़ाई एक तरह से खत्म हो गई है। अब जब हम बच्चों को यह सीखाएंगे !ही नहीं कि बड़ों का सम्मान किया जाता है तो हम उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे बड़े होकर बुजुर्गो का सम्मान करें। सरकार को भी बुजुर्गो की दशा पर ध्यान देने की जरूरत है। केवल समारोह और गोष्ठियां व मन की बात व सेल्फी , विदेशी दोरे व स्थिति नहीं बदलने वाली है। व हर परिवार को अपने माता पिता की देखभाल का दायित्व हर संतान को समझने की आवश्यकता है ताकि भारत अपने जिन मूल्यों के लिए पूरे विश्व में पहचाना जाता है वे कहीं अतीत की बात बनकर न रह जाएं।
उत्तम जैन (विद्रोही )
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