आजकल सीनियर सिटिजंस को मुख्यत: 3 तरह की समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं। एक कोशिश बुढ़ापे को करीब से जानने की बुढ़ापे का एक सच यह है कि उस व्यक्ति ने जो सीखा हुआ है उसे वह भूल नहीं सकता और नई चीजें वह सीख नहीं सकता। यानी उसे पिछले सीखे हुए से ही काम चलाना पड़ता है। सीनियर सिटिजंस की मौजूदा हालत के लिए अगर कोई एक बात जिम्मेदार है, तो वह है इस देश का इतिहास। हमारे देश का जन्म ही कुछ इस तरह हुआ कि इसकी कई समस्याओं का कोई समाधान नहीं दिखता। यहां कभी मनुष्य के जीवन को महत्व नहीं दिया गया ! वृद्धावस्था उस अवस्था को कहा गया है जिस उम्र में मानव-जीवन काल के समीप हो जाता है। वृद्ध लोगों को विविध प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोग लगने की अधिक सम्भावना होती है। उनकी समस्याएँ भी अलग होती हैं। वृद्धावस्था एक धीरे-धीरे आने वाली अवस्था है जो कि स्वभाविक व प्राकृतिक घटना है।मैं मानता हूं कि नई पीढ़ी का जीवन बहुत फास्ट हो गया है, लेकिन बावजूद इसके वे अपने पसंदीदा काम के लिए टाइम तो निकाल ही लेते हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि वे समय की कमी के कारण सीनियर सिटिजंस की देखभाल नहीं कर पाते। दरअसल नई पीढ़ी आत्मग्रस्त होती जा रही है। बसों में वे सीनियर सिटिजंस को जगह नहीं देते। बुजुर्ग अकेलापन झेल रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ी उन्हें लेकर बहुत उदासीन हो रही है , मगर हमें भी अब इन्हीं सबके बीच जीने की आदत पड़ गई है। सीनियर सिटिजंस की तकलीफ की एक बड़ी वजह युवाओं का उनके प्रति कठोर बर्ताव है। लाइफ बहुत ज्यादा फास्ट हो गई है। इतनी फास्ट की सीनियर सिटिजंस के लिए उसके साथ चलना असंभव हो गया है। एक दूसरी परेशानी यह है कि युवा पीढ़ी सीनियर सिटिजंस की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं- घर में भी और बाहर भी। दादा-दादियों को भी वे नहीं पूछते, उनकी देखभाल करना तो बहुत दूर की बात है। जिंदगी की ढलती साँझ में थकती काया और कम होती क्षमताओं के बीच हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का सबसे बड़ा रोग असुरक्षा के अलावा अकेलेपन की भावना है वृद्ध का शाब्दिक अर्थ है बढ़ा हुआ, पका हुआ, परिपक्व। वर्तमान सामाजिक जीवन-शैली में वृद्धों के कष्टों को देखकर मन में हमेशा ही अनिर्णय भरा प्रश्न बना रहता है कि बुढापा एक अभिशाप है या वरदान? हमारी संस्कृति और आदर्शों के आधार पर आज की सभ्यताओं को ध्यान में रखकर देखा जाय तो आयास ऐसा लगता है कि खैर, जो भी हो, वह तो ईश्वर का अवदान है। बुढ़ापा जब दस्तखत देता है, तब यौवन का उन्माद मद्धिम पड़ जाता है। शेर भी खरगोश बन जाता है। जीवन के राग-रंग, आकर्षण-विकर्षण के साथ ही जीने का उद्देश्य ही बदल जाता है। बुढ़ापें में बिस्तर पर लटेते ही नींद आ जाती है। करवट बदलते ही टूट जाती है।सौभाग्य से मुझे वृद्धों का सानिध्य मिला है। साथ-ही-साथ जीवन के कटू सत्यता को भी उनसे सुना है। मैंने पाया है कि बुढ़ापे में हमारे ये आदरणीय जन एक पावन ज्ञान-स्रोत हो जाते हैं। अनुभव की किताब को पढ़ चुकने वाले हमारे बुजुर्गों का मन बीते हुए यादों में गोता लगाता रहता है। वे कभी जीवन से उबे हुए लगते हैं तो कभी आसक्ति में डूबे हुए लगते हैं। कभी वैराग्य का मूर्त रूप नज़र आते हैं तो कभी तो उनके लिए आगे का रास्ता ही नहीं दिखता है। कभी उनके लिए अकूत अर्थ का कोई अर्थ नहीं होता तो कभी वे व्यर्थ में हताश से लगते हैं। लगता है कि उन्होंने जीने का सामर्थ्य ही खो दिया है। हमारे समाज में अनेक उदाहरण मिल जाते हैं, जिससे कि पता चलता है कि अगर ये बूढ़े नहीं होते तो हमारा जीवन और कितना बोझिल हो जाता। हमारा समाज अपने वृद्धों को भले ही बोझ समझता है, उनके सानिध्य को डरावना अनुभव करता है लेकिन हम उनकी कुर्बानियों को कैसे भूल जाते हैं? वे तो अपने उम्र के पड़ाव में अपनी ही औलाद की सेवा-भाव को एक अनुकंपा समझते हैं। बुढ़ापे में लगी चोट तो बड़ी ही घातक होती है। उनकी संतानें जब उन्हें भूल जाती हैं तो जाने-पहचाने चेहरे भी अजनबी से नज़र आने लगते हैं। जब वृद्धों की इंद्रियाँ भी साथ छोड़ देती हैं तब वे चारों ओर से असहाय अनुभव करने लगते हैं। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति तो हमेशा यह स्मृति रखना चाहिए कि यह कहानी हर एक के जिंदगी मे दोहरायी जाती है। जानते सब हैं, परन्तु मानता कोई नहीं। सभी को चिर यौवन चाहिए। हम सभी को उम्र के उस पड़ाव से गुजरना है, लेकिन सभी उस उम्र के मुसाफिरों के दूर रहना चाहते हैं। हम सभी को समझना चाहिए कि बुढ़ापा अभिशाप या वरदान नहीं है, यह तो उम्र की छेड़खानी है। ईश्वर का अवदान है। किसी कवि की कुछ लिखी पंक्तियाँ –
जि़न्दगी एक कहानी समझ लिजिए।
दर्द की लन्तरानी समझ लिजिए।
चेहरे पर खींचे ये आक्षांश-देशान्तर
हाय रे विडम्बना! नगरों, महानगरों में ही नहीं, गाँवों-देहातों में भी लोगों मेला-बाजार में भी वृद्धों के साथ नहीं जाना चाहते। पार्टियों के उमंग, पर्यटन के उल्लास या पिकनिक के जोश में वृद्धों को अचानक सामने आ गये खतरनाक मोड़ का ब्रेकर समझ कर घर पर ही छोड़ दिया जाता है। ऐसे में घर की देखभाल और दो जून की रोटी तक सीमित बच्चों को पारिवारिक सहयोग मिलना चाहिए। उन्हें आध्यात्मिकता की ओर जबरन जाने के लिए नहीं बाध्य करना चाहिये। जिनके लिए उनकी संतति ही भागवान है, उनका मन किस भगवान में रमेगा भला? ऐसे में घर के प्रत्येक सदस्य को चाहिये की वृद्धों को संवेदनाओं से जोड़े रखा जाए। उनके रोटी, कपड़ा, मकान और स्वास्थ्य का निरन्तर देखभाल करना चाहिए। स्वास्थ्य एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों में उनकी सहभागिता लेनी चाहिए। वृद्ध अनुभव के अथाह समुद्र होते हैं। 1990-92 के दौर में ही संयुक्त राष्ट्र महासभा में वृद्धों के पक्ष में अनेक सिद्धान्तों को पारित किया जा चुका है, परन्तु समस्या गहराती ही जा रही है।उपेक्षित, बहिस्कृत तथा कटूक्तियों से बिध-बिध कर जीने को विवश होते हैं। वैसे देखा जाए तो वृद्धों को लेकर ये समस्याएँ अचानक नहीं हुई हैं, यह सब तो आधुनिक उपभोक्ता वाद तथा सामाजिक क्षरण का परिणाम है। नई पीढ़ी की परिवर्तित सोच का परिणाम है। सामाजिक स्थिति के दौड़ का परिणाम है। भौतिक सम्पदाओं के भूख का परिणाम है। पारिवारिक संकीर्णता का परिणाम है। व्यक्तिगत जीवन-शैली का परिणाम है। सामाजिक विघटन का परिणाम है। आज का अधिकांश युवा-वर्ग यह भ्रम पाल लेता है कि संयुक्त परिवार व्यक्तिगत उत्थान में बाधक है। पारिवारिक रिश्तों में रहने पर व्यावसायिक वृद्धि नहीं हो सकती। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वहित से प्रभावित होकर मानवीय संवेदना को लकवा मार गया है। दिन-पर-दिन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। रिश्ते-नाते उपेक्षित अस्पताल में पड़ा अपनी अंतिम साँसें गिनता कोई असाध्य रोगी हो गया है। हमारा पालन-पोषण करने वाला वृद्ध दुख भोगकर जीवन जीने को बाध्य हो जाता है। हमें किसी भी परिस्थिति में निरन्तर यह प्रयास करना चाहिए कि किसी को भी वृद्धावस्था में सामाजिक उपेक्षा का दर्द नहीं अनुभव करना पड़े। वृद्ध तो अपने चिड़चिड़े जीवन को जीने के लिए विवश हैं। कुछ भी हो, हमें उनका आदर करना चाहिए। वृद्धाश्रम इसका कभी हल नहीं है। वृद्धाश्रम भले ही सेवा भाव से प्रारंभ किये जाते हैं, लेकिन उनका वर्तमान स्वरूप अर्थ-भाव हो गया है। वृद्धाश्रम आज मात्र पैसे वालों के लिए ही मृत्यु का प्रतीक्षालय बना हुआ है। धिक्कार है उस मानवता को जो वृद्धों का तिरस्कार करता है। पशु से भी गिरा है वह व्यक्ति जो अपने घर के वृद्धों को कभी बधुआ मजदूर तो कभी बोझ समझता है। यदि परिवार के वृद्ध कष्टपूर्वक एवं रुग्णावस्था में जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो धिक्कार है उस घर को। उस मानवता को और सामाजिक सोच को। आज के युवक भले ही नित-नूतन लक्ष्य को पाने में लगे हैं, लेकिन जीवन के अंतिम पड़ाव पर पड़े वृद्धों की सेवा करना भी युवाओं का ही पुनीत कर्त्तव्य है। वृद्धों का सानिध्य किसी अछूत बीमारी का आमंत्रण नहीं, आंतरिक शुचिता का अनुष्ठान है। वृद्धजन अपने अनुभव से हमारे साहस और संघर्ष के साथ ही हमारे पुरुषार्थ को बढ़ाते हैं। जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का दर्पण दिखाकर हम पर ज्ञान की वर्षा करते हैं। हम में विनम्रता को बीज बोकर यश से सम्मान योग्य बनाते हैं। नित्य बड़ों की सेवा और प्रणाम करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल में निरंतर वृद्धि होती है।हमें अपने घर के वृद्धों के लिए प्रयास करना चाहिये कि वे दुखी न रहें। उन्हें जो सुख देना है, इस जीवन में देने का प्रयास करना चाहिए। घर में प्रवेश करते ही एक क्षण उनके पास बैठकर उनका हाल पूछ लेना करैले के स्वाद से नहीं भरेगा, मधु का अनुभव देगा। उठते समय उनके हाथ में डंडा पकड़ा देना हमेशा ही आशीष का काम करेगा। चश्मा टटोलते हाथों को जब हम सहारा देकर वॉशरूम ले जायेंगे तो उन्हें अपने अंधे होने का कष्ट ही नहीं रहेगा। तब किसी के लिए भी वृद्धावस्था बोझ नहीं, वरदान बन जायेगा। तब वृद्धों को तो आन्तरिक आह्लाद होगा ही, हमारा मन भी अनेक तनावों से मुक्त हो जायेगा। हम स्वयं को सबल अनुभव करेंगे और वृद्धों के उस अव्यक्त आशीष के दम पर जीवन की किसी भी परिस्थिति से दो हाथ करने को तैयार रहेंगे।
उत्तम जैन (विद्रोही )
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