माता पिता की सेवा करना सन्तान का धर्म है। उसकी महिमा शास्त्रों में विस्तार पूर्वक कही गई है पर गुरु की महत्ता उनसे भी बड़ी है क्योंकि माता पिता केवल शरीर को जन्म देते, शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं पर गुरु द्वारा आत्मा का विकास, कल्याण एवं बन्धन मुक्ति का जो महान कार्य सम्पन्न किया जाता है, उसकी महत्ता शरीर पोषण की अपेक्षा असंख्यों गुनी अधिक है !लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवश्यकता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। फिर भी गुरु द्वारा प्रदत ज्ञान भी अपेक्षित है ! आज गुरुपूर्णिमा का पावन पर्व हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। हमारे अध्यात्म दर्शन में गुरु का बहुत महत्व है! गुरुजनों की सेवा को धर्म का एक भाग माना गया है। शायद यही कारण है कि भारतीय जनमानस में गुरु भक्ति का भाव की इतने गहरे में पैठ है कि हर कोई अपने गुरु को भगवान के तुल्य मानता है। हम ढोंगियों और लालची गुरु को स्वीकार न करें तथा किसी को गुरु बनाने से पहले उसकी पहचान कर लेना चाहिए। भारतीय जनमानस की भलमानस का लाभ उठाकर हमेशा ही ऐसे ढोंगियों ने अपने घर भरे हैं जो ज्ञान से अधिक चमत्कारों के सहारे लोगों को मूर्ख बनाते हैं। ऐसे अनेक कथित गुरु आज अधिक सक्रिय हैं जो नाम से तो बहुत बड़े होते है मगर ज्ञान के बारे में पैदल होते हैं। ऐसा सदियों से हो रहा है यही कारण है कि किसी संत ने बरसों पहले कहा था ---
‘‘गुरु लोभी शिष लालची दोनों खेलें दांव।
दोनों बूड़े बापुरै, चढ़ि पाथर की नांव।।
गुरु और शिष्य लालच में आकर दांव खेलते हैं और पत्थर की नाव पर चढ़कर पानी में डूब जाते हैं। संत को हमारे अध्यात्म दर्शन का एक स्तंभ माना जाता है आजकल के गुरु निरंकार की उपासना करने का ज्ञान देने की बजाय पत्थरों की अपनी ही प्रतिमाऐं बनवाकर अपने शिष्यों से पुजवाते हैं। देखा जाये तो हमारे यहां समाधियां पूजने की कभी परंपरा नहीं रही पर गुरु परंपरा को पोषक लोग अपने ही गुरु के स्वर्गवास के बाद उनकी गद्दी पर बैठते हैं और फिर दिवंगत आत्मा के सम्मान में समाधि बनाकर अपने आश्रमों में शिष्यों के आने का क्रम बनाये रखने के लिये करते हैं। आजकल तत्वज्ञान से परिपूर्ण तो शायद ही कोई गुरु दिखता है। अगर ऐसा होता तो वह फाईव स्टार आश्रम नहीं बनवाते।
‘जा गुरु से भ्रम न मिटै, भ्रान्ति न जिवकी जाय।
सौ गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय।।’’
जिस गुरु की शरण में जाकर भ्रम न मिटै तथा मनुष्य को लगे कि उसकी भ्रांतियां अभी भी बनी हुई है तब उसे यह समझ लेना चाहिए कि उसका गुरु झूठा है और उसका त्याग कर देना चाहिए। दरअसल गुरु की जरूरत ज्ञान के लिये ही है पर भक्ति के लिये केवल स्वयं के संकल्प की आवश्यकता पड़ती है। भक्ति करने पर स्वतः ज्ञान आ जाता है। ऐसे में जिनको ज्ञान पाने की ललक है गुरु का चुनाव अच्छी तरह परख कर करे ! तभी आप हम व् सभी देशवासियों के लिए गुरुपूर्णिमा मनाना सार्थक होगा !
उत्तम जैन (विद्रोही )
uttamvidrohi@gmail.com
mo-8460783401
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें