सोमवार, 8 अगस्त 2016

गोमाता पर बयान---


                                                                  गोमाता पर बयान
गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी करने वालों पर पाबंदी लगाई जाए। प्रधानमंत्री ने ठीक बोला है, सरकार को गाय बचाने का आयोग चलाना चाहिए। पूरे देश मे सड़कों पर गाय पॉलिथीन खा रही है और सबसे ज्यादा गाय की हत्या इस कारण से हो रही है तो गोरक्षक इसकी चिंता करें, जनता कानून को अपने हाथ में न ले मोका मिल गया लालू जी ने मोदी पर तीखा तंज कसते हुए अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा कि लगता है मेरे द्वारा दो दिन पहले कही गई बात मोदी जी को अच्छे से समझ आ गई कि गाय दूध देती है, वोट नहीं। और समझ भी क्यों ना आए? गोमाता इनकी सरकार बनवाना तो दूर, बनी बनाई सरकारों को हिला रही है। लो मोका मिला की राजनीती शुरू अब मोदी जी बोले तो कुछ सोच समझकर ही बोले होंगे हम द्वारा चुनकर भेजे गए महत्वपूर्ण व् जिम्मेदार पद पर आसीन है !अब कोई सोच रहा है बीजेपी की जमीन खिसक चुकी है खिसके तो तब गोभक्त अपने पर आयेंगे तब न कोई कहता है मोदीजी घबरा गए हैं इसलिए ही अपनी बात रख रहे हैं। इतने सारे राज्यों में उनकी सरकारें हैं, देखना यह है की उन्होंने क्या कार्यवाही की है वहीं विपक्ष के हमलों पर बीजेपी और सरकार का कहना है कि पीएम मोदी को जो संदेश देना था, वो स्पष्ट और साफ शब्दों में दिया है। में मानता हु की उनके सन्देश का एक ही अर्थ है की देश में शांति और सौहार्द रहे। देश जिस रस्ते पर चल रहा है उसमे रोड़ा पैदा करने वाले को नहीं बक्शा जाएगा। संघ ने मोदी के सुर में सुर मिलाया प्रधानमंत्री के इस बयान को संघ का भी साथ मिल गया है। प्रधानमंत्री के इस बयान को संघ का भी साथ मिल गया है संघ के सर सहकार्यवाह भैय्याजी जोशी ने कहा कि गोरक्षा के नाम पर कुछ लोग कानून हाथ में लेकर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। ऐसे लोगों को बेनकाब किए जाने की जरूरत है।अब तह तक जाने का काम हम लोगो का है क्यों की नेताओ की बयानबाजी तो हमे समझ में आने वाली नही यह कम पढ़े लिखो का काम नही !कुछ नेता पीएम के बयान का समर्थन करते हुए कहा कि गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी करने वालों पर पाबंदी लगाई जाए। प्रधानमंत्री ने ठीक बोला है, सरकार को गाय बचाने का आयोग चलाना चाहिए। पूरे देश मे सड़कों पर गाय पॉलिथीन खा रही है और सबसे ज्यादा गाय की हत्या इस कारण से हो रही है तो गोरक्षक इसकी चिंता करें, जनता कानून को अपने हाथ में न ले। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोरक्षा के नाम पर उपद्रव करने वालों पर निशाना साधा था। नकली गोरक्षकों से सावधान रहें, अब हमे पहले असली व् नकली गो रक्षको को पहचानने से पहले आरोप प्रत्यारोप भी नही लगाने है ! साथ ही गोरक्षा के नाम पर उपद्रव करने वालों पर राज्यों से सख्त कार्रवाई करने को कहा है। प्रधानमंत्री ने असली गोरक्षकों से अपील की कि वो उन्हें एक्सपोज करें। अब असली का प्रमाण पत्र भी आधार कार्ड जेसा अगर बन जाता तो ठीक ही था ! देश में गोहत्या पर पाबंदी है जबकि रिपोर्ट के मुताबिक Meat Industry में जिंदा जानवरों के साथ-साथ भैंस, भेड़, बकरों, सुअर, बैल और गायों तक के मांस का व्यापार होता है।शायद लाइसेंस देने में सरकार बूचड़खानों की तुलना में दूध उत्पादन इकाइयों में कम दिलचस्पी लेती है। सरकार द्वारा ने जितनी संख्या बताई जाती है वो तो रजिस्टर्ड बूचड़खानों की संख्या है, मीट का बहुत बड़ा कारोबार बिना रजिस्टर्ड बूचड़खानों में होता है और छोटे-छोटे बूचड़खानों की संख्या इससे दोगुने से भी ज्यादा हो सकती है। अब आपको आपको ये भी बता दू कि देश में पश्चिम बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और केरल में गोहत्या पर पाबंदी नहीं है। केरल के 55, बंगाल के 11, सिक्किम के 4 और मिजोरम के 2 बूचड़खानों में कानूनी रूप से भी गोहत्या होती है।हैरानी की बात ये है कि ये सब तब भी हो रहा है जब केंद्र में बीजेपी की सरकार है और बीजेपी के लिए गाय हमेशा से आस्था और श्रद्धा का मुद्दा रहा है। गोरक्षा के लेकर तमाम संगठन आजकल सक्रिय हुए हैं और गोमांस पकड़ने के शक में चलती ट्रेनों व् हाइवे तक में वो लोगों की पिटाई कर रहे हैं तो इसके पीछे यही सोच मानी जाती है कि गोभक्त बीजेपी उन पर कोई कार्रवाई नहीं करेगी ऐसा नहीं है मेने ऐसे गो भक्तो को देखा है जिन्होंने जान जोखिम में डाल कर भी गोमाता की जान बचायी है ! मगर अब उन्हें असली गो सेवक का प्रमाण पत्र रखना ही होगा ! खेर कोनसा नेता कब क्या बोल जाये बड़े आदमी है हम क्या कर सकते है ! दिल के दर्द को कुछ मिनिट में लिखकर आप तक विचार प्रेषित कर दिए आप समझदार हो लेकिन एक बात जानवरों की हत्या और दूध उत्पादन के केंद्रों की संख्या में भारी अंतर इस विडंबना पर सोचने के लिए मजबूर करता है। आप भी सोचे ..गोमाता आज भी पूज्यनीय है रहेगी गोसेवक प्रमाण पत्र की चिंता न करे ... गोसेवा का धर्म निभाए सरकारे तो आती है जाती है और जाती रहेगी ..
उत्तम जैन (विद्रोही )

रविवार, 7 अगस्त 2016

बचपन की यादे और आज

                 बचपन के दिन भी क्या  
               क्या वो बचपन ..वो नादानिया
               वो शरारते ..वो मनमानिया !
              दादी की फटकार , दादा जी मार !
              पापा का चांटा और माँ की पुचकार!
 
 
 
बचपन के दिन भी क्या वो बचपन ..वो नादानिया
वो शरारते ..वो मनमानिया !
दादी की फटकार , दादा जी मार !
पापा का चांटा और माँ की पुचकार
दादाजी से 10 पेसे मिल जाते अनंत खुशिया मिलती खुद की जेब को बार बार टंटोलते कही गिर न जाये ! रोज दादाजी खर्ची के 5 पेसे और ज्यादा जिद्द करने पर 10 पेसे देते ! भाटा की कुल्फी 5 पेसे में मिलती थी ! हवाबाण हरडे , नारंगी गोली की किम्मत सिर्फ 5 पेसे ! अगर 2 रूपये की चिल्लर कभी जमा हो जाती खुद को लखपति समझते ! वो बाजार में लगा नीम का झाड़ के निचे बेठ जाते आजका एयर कंडीशन फेल ....... अब सिर्फ यादे ही यादे
क्या दिन थे वो बचपन के , चाहत चाँद को पाने की करते थे और दोपहर से शाम तक कभी कभी तितली को पकड़ा करते . न दिन का होश न शाम की खबर न ही सुध – बुध कपड़ो की और न ही अपनी . कभी मिट्टी पे हम तो कभी मिट्टी हमारे चेहरों को छूती ,कभी हाथो पे तो कभी कपड़ो पे याद है न कैसे लग जाया करती थी . सुबह की वो प्यारी मीठी नींद से जब हमे जबरदस्ती जगाया जाता .. वो भी स्कूल जाने के लिए. कितना गुस्सा आता था न …….थक – हार के स्कूल से आते पर तुरंत ही खेलने के लिए तैयार भी हो जाते . वो बचपन के सारे खेल हमे कितना कुछ सिखाते थे , कभी आपस में लड़ाते तो कभी साथ मिलके मुस्कुराते . अपनी बचकानी हरकतों से हम दुसरो को कितना सताते थे न . वो …..बहती नाक , खिसकती निक्कर तो याद ही होगी बात है बहुत सालों पहले, बचपन के समय की उन दिनों रोजाना स्कुल से आने के बाद शाम को (जेसा की हर स्कुली बच्चा करता है) हम लोग खेलने जाते थे पास के ही स्कुल ग्राउंड में । लेटेस्ट खेलों से लेकर पारम्परिक देसी खेल जेसे की क्रिकेट, बेडमिन्टन, गुल्ली डंडा, कांच की अंटिया, दड़ी आदि सब बडे मजे से खेले जाते थे, आज के जेसे नहीं कि हर बच्चा टी. वी. से चिपका हो । आलम ये था की उस दौरान शाम सुबह तो जगह नहीं मिलती थी, खेलने के लिये तो फिर जल्दी किसी गुरगे को बिठा कर जबरन कब्जा जमाया जाता, कि पहले हम आएं हैं तो हमारी टीम यहां खेलेगी, और इस ही क्रम में कभी कभी पंगे भी हो जाते थे
पहली टीम दुसरी टीम को कहती कि आ जाना कल शाम को चार बजे देख लेते हैं कि किसने असली मां का दुध पिया है, तो दुसरी टीम में से कोई पहलवान टाइप का लडका कहता कि कल क्या है आज ही देख लेते हैं, चल बता क्या करेगा हम सबके साथ । कोई बहुत बहसे होती व कभी कभी लडाई भी । पर अक्सर कल कल के चक्कर में कई लडाईयां टल जाया करती थी, क्यों कि दुसरे दिन दोनों ही टीमें नदारत होती थी फिर अक्सर बडा कोई सीनीयर मोस्ट व्यक्ती समझौता करा ही देता था, व फिर से वही खेल खेले जाते सदभावना के साथ ।…“आइये फिर डूबते हैं इन कुछ बचपन के खेलो और शरारत भरी यादो में .....वक्त्त के इस आइने में हमारे कल की तस्वीर चाहे कितनी ही पुरानी हो गई हो पर जब भी सामने आती है ढेर सारी यादे ताज़ा हो जाती हैं और वो भी यादे अगर बचपन की हो तो और ही मज़ा आता है …….जैसे -“अक्कड़ -बक्कड़ बम्बे बो, अस्सी नब्बे पुरे सौ , सौ में लगा धागा, चोर निकल के भागा” ये लाइने तो याद ही होगी ! उस टाइम हमे कितना उधमी कहा जाता था वो साहसी वाला नहीं ……….जी! “उधम ” (शोरशराबा / हलचल ) मचाने वाला . पर हमको इस बात की कहा फ़िक्र रहती थी आखिर मनमौजी जो थे .जब हमारी गेंद पड़ोसियों के घरो में चली जाती और हम ” चाची/ काकी /दादी ……….आखिरी बार अब नहीं जाएगी गेंद आपके घर में प्लीज़ ” हमारा मासूम चेहरा देख हमे वापस कर दी जाती.कितनी बार अपने सपनो का घर बनाते तो कभी गुड्डे – गुडियों की शादी करते ,कभी लडकियों की चोटी खींचते और उन्हें परेशान करते उस पर पापा की वो डांटे और वो गलती पर मम्मी को मनाना होता था , कभी बारिश में कागज़ की नाव बहाए तो कभी राह चलते पानी में बेमतलब पैर छप-छपाए .जब याद करते है उन पलो को तो ये गाना याद आता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन “ पर सच कहूँ तो मुश्किल ही लगता है उन दिनों का लौट पाना ….“काश ! कही बैंक होता अपने बचपन का तो……. वो पुरानी यादे वो लम्हे निकाल लाते बचपन में न जाने कैसे – कैसे खेल खेला करते थे और अब समय की व्यस्थता के चलते जिन्दगी हमारे साथ बड़े अजीब -अजीब खेल खेलती है कल तक गुड्डे – गुडियों को हम अपने इशारो पे नाचते थे और आज जिन्दगी हमे .जब हम “उच-नीच” का खेल खेलते थे तब हमे किसी ने बताया नहीं था की ये है क्या हैं? अपने हिसाब से हमने आपने मानक तय कर लिए थे और आज इस के मायने ही बदल गये है अब न ही गलियों में वो शोर सुनाई देता है और ही गिल्ली डंडे के खेल का शोर ……क्योकि अब इन्हें हम में से किसी समझदार ने status simble में बांध दिया है अब कहा जाता है की ये सब खेल शरीफ घर के बच्चे नहीं खेला करते जादातर तो अब बच्चे घर में कैद हो जाते है या तो टी.वी के सामने , विडियो गेम में या कंप्यूटर और या फिर इन्टरनेट पे ….उनकी मासूमियत किसी और ने नहीं हमने ही छीनी है जिसकी वजह से हमारे ये बचपन के खेल अब जल्द ही सिर्फ कुछ इतिहासों के पन्ने बन जायेगे …सच कहूँ तो आज का बचपन कही खोता हुआ नज़र आ रहा है समय से पहले ही बच्चे बड़े हो जाते है एक तरह से तो अच्छा है की उनका विकास हो रहा है पर शायद वो अपने जीवन के उन सुनहरे पलो को नहीं जी पा रहे है जो अपने और हमने जिए है इसी वजह से वो अकेलेपन का शिकार हो रहे है …..स्कूल के बैग का बोझ दिन पर दिन बढता जा रहा है और बच्चे धीरे – धीरे दबते जा रहे है . जरूरत है हमे उन्हें हकीकत की दुनिया से रूबरू करने की .जिससे वो अपने आज को खुल के जी सके और आने वाले कल में हमारे जेसे ये भी कह सके की ………
“बचपन का भी क्या ज़माना था
हँसता मुस्कुराता खुशियो का खज़ाना था
खबर न थी सुबह की न शाम का ठिकाना था
दादा दादी की कहानी थी परियो का फ़साना था
उतम जैन (विद्रोही )

शनिवार, 6 अगस्त 2016

मित्रता दिवस मेरी सोच


    
                         मित्रता दिवस
मेरी सोच
 
मित्रो आज मेरे बचपन में भी मित्र थे !आज भी है हा यह जरुर है पहले मित्रो की संख्या कम थी मगर अच्छी व् सच्ची थी ! आज फेसबुक पर 5000 मित्र व् व्हट्स अप पर असख्य मित्र है मगर क्या सच्चे मित्र कितने यह बताना मुमकिन नही क्यों की बहुत कम संख्या ही होगी ! वेसे सुदामा और कृष्ण जेसी मित्रता की तो आज अपेक्षा भी नही क्यों की न तो में वेसा हु न मेरे मित्र वेसे ! मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और साथ ही उसमे विचारो को व्यक्त करने व् भावनाओ को महसूस करने की शक्ति होती है इसी कारण मनुष्य अकेला नही रह सकता एक मनुष्य दुसरे मनुष्य अथवा किसी अन्य प्राणी की तरफ आकर्षित होता है ! उसे भावनात्मक रूप से अपना समझता है बिना किसी रक्त सम्बन्ध के अपने दुःख व् सुख उससे बांटता है! सदेव उसकी मदद करता है या मदद की अपेक्षा करता है में उसे ही मित्रता या दोस्ती का सम्बन्ध मानता हु ! लेकिन इसके पीछे की भावना हर जगह एक ही है- "दोस्ती का सम्मान"। मन चाहे खुश हो या दुखी कुछ कहता ज़रूर है.दुःख बाँटने से कम होता है और सुख बाँटने से बढ़ता है तो क्यों ना मन की बात आपसे बांटू ......किसी अज्ञात कवि की ये पंक्तिया .....
''तुम्हारे दर पर आने तक बहुत कमजोर होता हूँ.
मगर दहलीज छू लेते ही मैं कुछ और होता हूँ.''
ये पंक्तियाँ कितनी अक्षरशः खरी उतरती हैं दोस्ती जैसे पवित्र शब्द और भावना पर .दोस्ती वह भावना है जिसके बगैर यदि मैं कहूं कि एक इन्सान की जिंदगी सिवा तन्हाई के कुछ नहीं है तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी.ये सत्य है कि एक व्यक्ति जो भावनाएं एक दोस्त के साथ बाँट सकता है वह किसी के साथ नहीं बाँट सकता.दोस्त से वह अपने सुख दुःख बाँट सकता है ,मनोविनोद कर सकता है.सही परामर्श ले सकता है.लगभग सभी कुछ कर सकता है.मित्र की रक्षा ,उन्नति,उत्थान सभी कुछ एक सन्मित्र पर आधारित होते हैं
''कराविव शरीरस्य नेत्र्योरिव पक्ष्मनी.
अविचार्य प्रियं कुर्यात तन्मित्रं मित्रमुच्यते..''
अर्थार्त जिस प्रकार मनुष्य के दोनों हाथ शरीर की अनवरत रक्षा करते हैं उन्हें कहने की आवश्यकता नहीं होती और न कभी शरीर ही कहता है कि जब मैं पृथ्वी पर गिरूँ तब तुम आगे आ जाना और बचा लेना ;परन्तु वे एक सच्चे मित्र की भांति सदैव शरीर की रक्षा में संलग्न रहते हैं इसी प्रकार आप पलकों को भी देखिये ,नेत्रों में एक भी धूलि का कण चला जाये पलकें तुरंत बंद हो जाती हैं हर विपत्ति से अपने नेत्रों को बचाती हैं इसी प्रकार एक सच्चा मित्र भी बिना कुछ कहे सुने मित्र का सदैव हित चिंतन किया करता है दोस्त कहें या मित्र बहुत महत्वपूर्ण कर्त्तव्य निभाते हैं ये एक व्यक्ति के जीवन में .एक सच्चा मित्र सदैव अपने मित्र को उचित अनुचित की समझ देता है वह नहीं देख सकता कि उसके सामने उसके मित्र का घर बर्बाद होता रहे या उसका साथी कुवासना और दुर्व्यसनो का शिकार बनता रहे .तुलसीदास जी ने मित्र की जहाँ और पहचान बताई है ---
'' कुपंथ निवारी सुपंथ चलावा , गुण प्रगट ही अवगुन ही बुरावा .''
तात्पर्य यह है कि यदि हम झूठ बोलते हैं ,चोरी करते हैं,धोखा देते हैं या हममे इसी प्रकार की बुरी आदतें हैं तो एक श्रेष्ठ मित्र का कर्त्तव्य है कि वह हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे.हमें अपने दोषों के प्रति जागरूक कर दे .तथा उनके दूर करने का निरंतर प्रयास करता रहे .विपत्ति का समय ऐसा होता है कि न चाहकर भी व्यक्ति सहारे की तलाश में लग जाता है.निराशा के अंधकार में सच्चा मित्र ही आशा की किरण होता है !.वह अपना सर्वस्व अर्पण कर भी अपने मित्र की सहायता करता है !मित्रता के लिए तो कहा ही ये गया है कि ये तो मीन और नीर जैसी होनी चाहिए ;सरोवर में जब तक जल रहा तब तक मछलियाँ क्रीडा और मनोविनोद करती रही परन्तु जैसे जैसे तालाब पर विपत्ति आनी आरम्भ हुई मछलियाँ उदास रहने लगी और पानी ख़त्म होते होते उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिए ये होती है मित्रता जो मित्र पर आई विपत्ति में उससे अलग नहीं हो जाता बल्कि उसका साथ देता है ! दोस्ती वह रिश्ता है जो आप खुद तय करते हैं, जबकि बाकी सारे रिश्ते आपको बने-बनाये मिलते हैं। जरा सोचिए कि एक दिन अगर आप अपने दोस्तों से नहीं मिलते हैं, तो कितने बेचैन हो जाते हैं और मौका मिलते ही उसकी खैरियत जानने की कोशिश करते हैं। आप समझ सकते हैं कि यह रिश्ता कितना ख़ास है। आज जिस तकनीकी युग में हम जी रहे हैं, उसने लोगों को एक- दूसरे से काफ़ी क़रीब ला दिया है। लेकिन साथ ही साथ इसी तकनीक ने हमसे सुकून का वह समय छीन लिया है जो हम आपस में बांट सकें। आज हमने पूरी दुनिया को तो मुट्ठी में कैद कर लिया है, लेकिन इसके साथ ही हम खुद में इतने मशगूल हो गये हैं कि एक तरह से सारी दुनिया से कट से गये हैं। मगर हमे इस पर विचार करना चाहिए की एक वास्तविक दोस्त का स्वभाव, चरित्र-व्यवहार, मनोवृत्ति या मनोभाव कैसा होना चाहिएं ?जहाँ तक मेरा मानना हैं कि एक अच्छें और सच्चें दोस्त में ये सारे गुण़ स्वभाव, चरित्र-व्यवहार, मनोवृत्ति या मनोभाव आदि आदि निहीत होंगें। एक सच्चें दोस्त का व्यवहार निष्कपट होंगा हमेशा हमारे साथ मगर आज इन गुणों की तरफ ध्यान न देकर हम स्वार्थ को देखते हुए मित्र को अपनी मित्रता की सूचि में सम्मिलित करते है ! सच्चे मित्र के तीन लक्षण होते हैं अहित को रोकना, हित की रक्षा करना और विपत्ति में साथ नहीं छोड़ना। जो तुम्हें बुराई से बचाता है, नेक राह पर चलाता है और जो मुसीबत के समय तुम्हारा साथ देता है, बस वही मित्र है। मित्र वह है जो आप के अतीत को समझता हो और आप जैसे हैं वैसे ही आप को स्वीकार करता हो।मगर एक कटु सत्य है आज सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है। मित्र का कर्त्तव्य है कि वह अपने मित्र के गुणों को प्रकाशित करे जिससे कि उसके गुणों का प्रकाश देश समाज में फैले न कि उसके अवगुणों को उभरे जिससे उसे समाज में अपयश का सामना करना पड़े.वह मित्र के गुणों का नगाड़े की चोट पर गुणगान करता है और उन अवगुणों को दूर करने का प्रयास करता है जो उसे समाज में अपमान व् अपयश देगा ! तो अब आप सभी मित्र निश्चय करे मित्र कोन हो केसा हो और हम मित्रता का फर्ज केसे अदा करे ! कहने को तो बहुत कुछ हैं मेरे दिल में लेकिन कम शब्दों में विराम लगाता हूँ।
लेखक --- उत्तम जैन (विद्रोही )
प्रधान संपादक , विद्रोही आवाज

लोभ व् क्रोध है नर्क के द्वार

                              लोभ व् क्रोध है नर्क के द्वार
क्रोध विवेक को नष्ट कर देता है, प्रीति को नष्ट कर देता है। क्रोध जब व्यक्ति को आता है तो वह बेभान हो जाता है, उसे करणीय-अकरणीय का विवेक नहीं रहता, वह प्रीति को समाप्त कर देता है। प्रेम को नष्ट कर देता है। क्रोधी व्यक्ति में विवेक नहीं रहता तो विनय भी नहीं रहता। मान, विनय को नष्ट कर देता है। अभिमान में व्यक्ति को यह ध्यान नहीं रहता कि मेरे सामने कौन खडा है? उनका विनय किस प्रकार किया जाए? वह तो स्वयं को सर्वेसर्वा मानता है। अभिमानी व्यक्ति को जरा-सी प्रतिकूलता मिली नहीं कि वह क्रोध से आगबबूला हो उठता है।माया, मैत्री भाव को नष्ट कर देती है। माया-छल-कपट जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है तो फिर वह मित्र को भी मित्र नहीं मानता। उससे भी छलावा करने लगता है। मायावी व्यक्ति में अहंकार भी होता है और क्रोध भी।और लोभ, लोभ जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है, तो वह सर्वनाश कर देता है। सब कुछ नष्ट कर देता है। लोभ तो सारी इज्जत को मिट्टी में मिला देता है। सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है। सारी कीर्ति नष्ट कर देता है। इतना ही नहीं, लोभ के आ जाने पर सारा जीवन ही नष्ट हो जाता है। लोभ हमारे भीतर जाग जाता है, तो हम पर पदार्थों के साथ मैत्री कर लेते हैं। पर पदार्थों के साथ जब मैत्री होने लगती है तो वहीं सारी विषम स्थितियां पैदा हो जाती है। लोभी व्यक्ति में माया भी होती है और अहंकार व क्रोध भी।क्रोध, मान, माया और लोभ ये आत्मा के स्वभाव नहीं, आत्मा के गुण नहीं, ये विभाव हैं, ये सभी बाहरी, पर संयोगों का परिणाम हैं। ये चारों किसी न किसी रूप में अन्योन्याश्रित भी हैं और साथ-साथ भी चलते हैं। क्रोध, मान का कारण भी है। मान, माया का कारण भी है। माया, लोभ का कारण भी है।क्रोध, मान, माया और लोभ राग-द्वेष के परिणामरूप हैं। राग और द्वेष भी न्योन्याश्रित हैं और दोनों साथ-साथ भी चलते हैं। द्वेष, राग का कारण है। तो निष्कर्ष रूप में यह भी कहा जा सकता है कि राग सब बुराइयों की जड है। राग, पर से, दूसरे से, पर पदार्थों से। इसे छोडे बिना मुक्ति नहीं।हम आत्म-मैत्री करना सीखें। अपनी आत्मा से मित्रता स्थापित करें। यह आत्म-मैत्री कब स्थापित हो सकती है? जब हम पर-पदार्थों से अलग हटें। पर-पदार्थों के प्रति हमारी आसक्ति नहीं रहेगी तो हमारी मित्रता आत्मा से स्थापित हो सकेगी। शरीर से भी हमें अपना राग-भाव हटाना होता है।ी चिंतन करिए, आप उसमें कोई फर्क न करवा पाएंगे। फर्क कुछ भी हो सकता है, तो इसमें हो सकता है जिसे क्रोध हुआ है। तो जब क्रोध पकड़े, लोभ पकड़े, कामवासना पकड़े-जब कुछ भी पकड़े-तो तत्काल आब्जेक्ट को छोड़ दें। क्रोध भीतर आ रहा है, तो चिल्लाएं, कूदें, फांदें, बकें, जो करना है, कमरा बंद कर लें। अपने पूरे पागलपन को पूरा अपने सामने करके देख लें। और आपको पता तब चलता है, जब यह सब घटना जा चुकी होती है, नाटक समाप्त हो गया होता है। अगर क्रोध को पूरा देखना हो, तो अकेले में करके ही पूरा देखा जा सकता है। तब कोई सीमा नहीं होती। यह वृत्ति से कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रक्रिया एक ही होगी। बीमारी एक ही है, उसके नाम भर अलग हैं।.... क्रोध विवेक को नष्ट कर देता है, प्रीति को नष्ट कर देता है। क्रोध जब व्यक्ति को आता है तो वह बेभान हो जाता है, उसे करणीय-अकरणीय का विवेक नहीं रहता, वह प्रीति को समाप्त कर देता है। प्रेम को नष्ट कर देता है। क्रोधी व्यक्ति में विवेक नहीं रहता तो विनय भी नहीं रहता। मान, विनय को नष्ट कर देता है। अभिमान में व्यक्ति को यह ध्यान नहीं रहता कि मेरे सामने कौन खडा है? उनका विनय किस प्रकार किया जाए? वह तो स्वयं को सर्वेसर्वा मानता है। अभिमानी व्यक्ति को जरा-सी प्रतिकूलता मिली नहीं कि वह क्रोध से आगबबूला हो उठता है।माया, मैत्री भाव को नष्ट कर देती है। माया-छल-कपट जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है तो फिर वह मित्र को भी मित्र नहीं मानता। उससे भी छलावा करने लगता है। मायावी व्यक्ति में अहंकार भी होता है और क्रोध भी।और लोभ, लोभ जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है, तो वह सर्वनाश कर देता है। सब कुछ नष्ट कर देता है। लोभ तो सारी इज्जत को मिट्टी में मिला देता है। सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है। सारी कीर्ति नष्ट कर देता है। इतना ही नहीं, लोभ के आ जाने पर सारा जीवन ही नष्ट हो जाता है। लोभ हमारे भीतर जाग जाता है, तो हम पर पदार्थों के साथ मैत्री कर लेते हैं। पर पदार्थों के साथ जब मैत्री होने लगती है तो वहीं सारी विषम स्थितियां पैदा हो जाती है। लोभी व्यक्ति में माया भी होती है और अहंकार व क्रोध भी।क्रोध, मान, माया और लोभ ये आत्मा के स्वभाव नहीं, आत्मा के गुण नहीं, ये विभाव हैं, ये सभी बाहरी, पर संयोगों का परिणाम हैं। ये चारों किसी न किसी रूप में अन्योन्याश्रित भी हैं और साथ-साथ भी चलते हैं। क्रोध, मान का कारण भी है। मान, माया का कारण भी है। माया, लोभ का कारण भी है।क्रोध, मान, माया और लोभ राग-द्वेष के परिणामरूप हैं। राग और द्वेष भी न्योन्याश्रित हैं और दोनों साथ-साथ भी चलते हैं। द्वेष, राग का कारण है। तो निष्कर्ष रूप में यह भी कहा जा सकता है कि राग सब बुराइयों की जड है। राग, पर से, दूसरे से, पर पदार्थों से। इसे छोडे बिना मुक्ति नहीं।हम आत्म-मैत्री करना सीखें। अपनी आत्मा से मित्रता स्थापित करें। यह आत्म-मैत्री कब स्थापित हो सकती है? जब हम पर-पदार्थों से अलग हटें। पर-पदार्थों के प्रति हमारी आसक्ति नहीं रहेगी तो हमारी मित्रता आत्मा से स्थापित हो सकेगी। शरीर से भी हमें अपना राग-भाव हटाना होता है। इसी तरह यदि हम होश ,प्रेम और ध्यान को सीखते है , तो धीरे धीरे यह स्वाभाविक हो जाता है और उर्जा ध्यान और प्रेम में ही लग जाती है! अब काम, क्रोध वगेरा स्वत ही कमजोर बन जाते और प्रेम मजबूत हो जाता है ! अब कहा काम क्रोध की राजनितिक रहती है क्यों इस पर चिल्लना है ? उर्जा वहा बहती है जहा बहने का मार्ग है तो काम क्रोध तो सभाविक मार्ग है और प्रेम और ध्यान प्रयत्न का ,कर्म का मार्ग है ,यही तो तप है
उत्तम जैन (विद्रोही )

भगवान् महावीर के सिदान्तो के अनुगामी विजय रूपाणी जी के मुख्यमंत्री बनने पर हार्दिक शुभकामना ---

भगवान् महावीर के सिदान्तो के अनुगामी विजय रूपाणी जी के मुख्यमंत्री बनने पर हार्दिक शुभकामना ----
मित्रो कल जेसे ही श्री विजय जी रुपाणी के मुख्यमंत्री पद पर नियुक्ति के समाचार प्राप्त हुआ ! शोशल मिडिया फेसबुक व् व्हट्स अप पर सिर्फ गुजरात से ही नही देश विदेश से बधाई देने की होड़ मच गयी उसमे जैन समाज के बुद्धिजीवी व् ज्ञानी व् अज्ञानी महानुभाव भी थे साथ में काफी साधू संत भी ! जैन समाज की जागृति को नमन ! पहली बार अहसास हुआ अल्पसंख्यक जैन समाज भी कितना जागरूक है ! साथ में एक शंका भी हुई ! इंतनी संख्या में जैन समाज है कही अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त होने के पूर्व प्राप्त आंकड़े गलत तो नही क्यों की सब जगह जैन ही जैन दिख रहे है ! खेर में अहम् मुद्दे पर आता हु हजारो मेसेज मिले करीब मेरे जितने भी मेरे समूह व् मित्र है व्हट्स पर श्री विजय जी रुपाणी की करीब 170 फोटो से सुबह मोब की गेलेरी फुल हो गयी ! काफी शुभकामना सन्देश पढ़े कोई लिख रहा था गुजरात के पहले जैन मुख्यमंत्री तो स्पष्ट कर दू पहले भी जैन मुख्यमंत्री गुजरात को मिल चुके है या नही मेंरी जानकारी में नही ! हां अगर जैन अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री अगर कोई लिखते तो मान सकता की हम अल्पसंख्यक घोषित होने के बाद पहले जैन अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री श्री विजय जी रुपाणी ही है !मगर मेरे किसी ज्ञानी व् अज्ञानी व् बुद्धिजीवी मित्र ने यह नही लिखा की भगवान् महावीर के सिदान्तो के अनुगामी श्री विजय जी रुपाणी को हार्दिक शुभकामना ! पढ़े लिखे जैन समाज की विकृत मानसकिता पर सुबह से में मंथन कर रहा था ! क्या जैन सिर्फ जन्म से ही होता है ! जैन धर्म भगवान् महावीरके सिदान्तो का अनुगामी है भगवान् महावीर जेसे मेने शास्त्रों में पढ़ा भगवान् महावीर क्षत्रिय थे !तीस वर्ष की आयु में गृह त्याग करके, उन्होंने एक लँगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। अपने अवदान से भगवान् महावीर जैन हुए ! आज हमारे सभी जैन साधू संत , आचार्य हमे जैन धर्म की परिभाषा इस प्रकार बताते है-‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’’, ‘‘जिनो देवता यस्यास्तीति जैनः’’ अर्थात् कर्मरूपी शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है वे ‘‘जिन’’ कहलाते हैं और जिन को देवता मानने वाले उपासक ‘जैन’ माने गये हैं। अब जन्मजात जैन हो या कर्मणा जैन हो ! जो जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत हैं- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। सभी जैन मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को इन पंचशील गुणों का पालन करना अनिवार्य है। वही सच्चा जैनी है ! वेसे हमे नये मुख्यमंत्री की ही नियुक्ति पर भगवान् महावीर के आदर्शो के अनुगामी का सम्बोधन देकर शुभकामना प्रेषित करनी चाहिए ! क्यों की हमारा देश व् हमारी संस्कृति सर्वधर्म सदभाव में विश्वास करता है ! सिर्फ जैन धर्मी होने के कारण हमारे समाज / हमारे श्रावक कहकर शुभकामना प्रेषित न करे ! वरन भगवान् महावीर के सिदान्तो के अनुगामी श्री विजय जी रुपाणी को हार्दिक शुभकामना प्रेषित करे ! अगर सभी इन शब्दों का उपयोग करते तो शायद जैन / अजैन सभी इन्ही शब्दों में शुभकामना प्रेषित करते ! अंत में मेरी भी अनंत शुभकामना श्री विजय जी रुपाणी को की आप जैन धर्म के सिदान्तो पर चलते गुजरात प्रदेश की सेवा व् विकास करे ..... ...यही अपेक्षा
उत्तम जैन (विद्रोही )
प्रधान संपादक
विद्रोही आवाज

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

अपने धर्म से विमुक्त होता मिडिया .

               एक दर्द- अपने धर्म से विमुक्त होता मिडिया .


में पत्रकारिता क्षेत्र में भले नया हु ! एक छोटे से साप्ताहिक समाचार पत्र का संपादक हु ! मगर इन थोड़े वर्षो में बहुत कुछ सिखा और समझा आज मिडिया की स्थिति देख सर पीटने का मन करता है !क्युकी इमानदार टिक नही पाता है! दारू के अड्डे पर 500 /- की नोट के खातिर अपना इमान बेचता हुआ पत्रकार नजर आ जायेगा ! तभी सोचता हु क्या देश की चौथी जागीर मीडिया भी " आम आदमी " की दुश्मन है ? .या ये "कलम की ताकत" भी भारत के राज नेताओं के हाथ बिक गयी है ? कलम की ताकत से एक ज़माने में अच्छे अच्छे गुन्हेगार डरते थे आज वही कलम नेता के हाथ की कठपुतली बनती नजर आ रही है और बन रही है देश के करोडो " आम आदमी " के गुन्हेगारोँ की ताकत, क्यों की कलम को क्या लिखना और क्या केमेरा में कैद करना, ये आज आम आदमी के गुन्हेगार नेता तय करते है | आज किसी सच्चे देश भक्त को आज उपवास पर नहीं बैठना पड़ता अगर मीडिया का काम सही और साफ़ सुथरा होता अगर मीडिया ध्यान देती इन भ्रष्टाचारीयों पर तो आज ये दिन नहीं आता और हर भ्रष्टाचारी जेल की हवा खाता होता छोटी छोटी बात को बड़े ही धमाके से पेश करनेवाली मीडिया की नजर में देश में हो रहे करोडो के घोटाले और बड़े बड़े भ्रष्टाचार का महत्त्व क्यों नहीं है ? खरबों रुपयों की सहायता गरीबों के लिए भारत सरकार मंजुर करती है मगर ये सहायता कभी किसी गरीब तक क्यों नहीं पहुंचती, आखिर ये सहायता जाती कहाँ है ? मगर मीडिया ने कभी इस बात को महत्त्व नहीं दिया और न ही जानने की कोशिश भी की है | मीडियाभी भ्रष्ट नेताओं की चुंगल में फंसकर खुद भी खड़ा है भ्रस्टाचार के कीचड़ में |  खेर ..... किसी ने शायद ठीक ही कहा है “जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो” हमने व हमारे अतीत ने इस बात को सच होते भी देखा है। याद किजिए वो दिन जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जनता को जागरूक करने के लिये एवं ब्रिटिश हुकूमत की असलियत जनता तक पहुंचाने के लिये कई पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों ने लोगों को आजादी के समर में कूद पड़ने एवं भारत माता को आजाद कराने के लिए कई तरह से जोश भरे व समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का बाखूबी से निर्वहन भी किया। मीडिया यानि मीडियम या माध्यम। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसी से मीडिया के महत्त्व का अंदाजा लगाया जा सकता है। समाज में मीडिया की भूमिका संवादवहन की होती है। वह समाज के विभिन्न वर्गों, सत्ता, केन्द्रों व् व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच पुल का कार्य करता है। आधुनिक युग में मीडिया का सामान्य अर्थ समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, टेलीविज़न, रेडियो, इंटरनेट आदि से लिया जाता है। किसी भी देश की उन्नति व प्रगति में मीडिया का बहुत बड़ा योगदान होता है। अगर मैं कहूँ कि मीडिया समाज का निर्माण व पुनर्निर्माण करता है, तो यह गलत नहीं होगा। इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं जब मीडिया की शक्ति को पहचानते हुए लोगों ने उसका उपयोग लोक परिवर्तन के भरोसेमंद हथियार के रूप में किया है। आज भी मीडिया की ताकत के सामने बड़े से बड़ा राजनेता,उद्योगपति आदि सभी सिर झुकाते हैं। मीडिया का जन-जागरण में भी बहुत योगदान है। बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने का अभियान हो या किसी बीमारी के प्रति जागरुकता फैलाने का कार्य, मीडिया ने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभाई है।लोगों को वोट डालने के लिये प्रेरित करना,बाल मज़दूरी पर रोक लगाने के लिये प्रयास करना,धूम्रपान के खतरों से अवगत कराना जैसे अनेक कार्यों में मीडिया की भूमिका सराहनीय है। जैसे-जैसे विकास एवं आधुनिकता के नये-नये आयाम स्थापित होते जा रहे है, ठीक उसी प्रकार मीडिया की निष्पक्षता तथा समाचार को जनता के बीच प्रसारित करने की तकनीक में भी कई तरह के परिवर्तन एवं उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठना लाजमी है। वर्तमान में मीडिया जगत में युवाओं की चमक-दमक काफी बढ़ी है, अब इसे युवक-युवतियां अपने उज्जवल कैरियर के रूप में देखने लगे हैं। चमकता-दमकता कैरियर, नाम की चाह ने युवाओं को काफी हद तक इस ओर खीचा है, जिससे हजारों युवा पत्रकार बनने की चाह लेकर मीडिया जगत में आ रहे हैं!.नित्य नये-नये पत्र-पत्रिकाएँ व न्यूज चैनल भी सामने आ रहे हैं। लेकिन समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर पाने में आज ये काफी पीछे रह गये हैं। आज ये पत्रकार उद्योगपतियों व राजनीतिज्ञ के आगे घुटने टेेकते नज़र आते हैं। सामाजिक सरोकारों से इतिश्री करने के साथ ही पैसा कमाने की होड़ में आम जनता का दर्द व उनकी परेशानियां उद्योग घरानों व राजनीतिज्ञों के रूपये के आगे दबकर रह गये हैं। यहीं कारण है कि पत्रकारिता की निष्पक्षता को लेकर पत्रकार खुद जनता के कटघरे में खड़ा है ! जिस पेज व समय पर संपादकीय की जरूरत होती है, वहां आज नेताओं, उद्योगपतियों व अन्य रूपये-पैसे वालों के कसीदे पढ़ी जाती हैं। ज्वलंत मुद्दों पर त्वरित टिप्पणी पढ़ने व देखने वाली जनता को अब ज्यादातर पेज पर नेताओं, उद्योगपतियों के विज्ञापन व साक्षात्कार पढ़कर व देखकर काम चलाना पड़ता है। जिस पेज पर कल तक खोजी पत्रकारों के द्वारा ग्रामीण पृष्ठभूमि की समस्या, ग्रामीणों की राय व गांव की चौपाल प्रमुखता से छापी जाती थी,बड़े बड़े शहरों के नागरिको की समस्या की जगह आज फिल्मी तरानों की अर्द्धनग्न तस्वीरें नज़र आती हैं। पत्रकारिता ने भी सामाजिक सरोकारों को भुलाते हुए उद्योग का रूप ले लिया है। यही कारण है कि देश में बड़े-बड़े भ्रष्टाचार हो जाते हैं और मीडिया कुछ भी कहने से बचती नज़र आती है ! मीडिया ने मौन रूख अपनाते हुए राजनीतिज्ञों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना शुरू कर दिया है और सामाजिक सरोकार व जनजागरूकता नामक जानवर को एक कोने पर रख कर अपनी भलाई समझने की भूल कर रहा है। आज आजादी के पूर्व जेसा नही रहा मिडिया अमीर चन्द बम्बवाल ने स्वराज्य का प्रकाशन शुरू किया था । अमीर चन्द बम्बवाल ने अखबार में विज्ञापन दिया कि “सम्पादक चाहिए, वेतन मात्र दो सूखी रोटियां, गिलास भर पानी और हर सम्पादकीय लिखने पर दस वर्ष के कालेपानी की सजा।” इसके बाद भी एक-एक कर आठ सम्पादक और हुए जिन्हें कुल 125 वर्ष कालेपानी की सजा दी गई, लेकिन इसके बावजूद स्वराज्य का प्रकाशन निरंतर जारी रहा और आमजनों में आजादी के जिये जागरूकता का संचार लगातार होता रहा। लेकिन विडम्बना की आज के इस दौर में पत्रकारिता कहां पर है और आमजनों को उनकी समस्या का हल कौन देगा यह बताने वाली पत्रकारिता अपने आप से आज यह सवाल पूछ रही है कि मैं कौन हूँ? मीडिया समय-समय पर नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करता रहता है। देश में भ्रष्टाचारियों पर कड़ी नज़र रखता है। समय-समय पर स्टिंग ऑपरेशन कर इन सफेदपोशों का काला चेहरा दुनिया के सामने लाता है। इस प्रकार मीडिया हमारे लिये एक वरदान की तरह है। किंतु रुकिए! जैसे फूल के साथ काँटे होते हैं, उसी प्रकार मीडिया भी वरदान ही नहीं अभिशाप भी है। मीडिया या प्रेस को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। मिलती भी है। लेकिन स्वतंत्रता जब सीमा लाँघ जाए तो अभिशाप बन जाती है। आज जिस पत्रकार ने छापने की धमकी देदी उसका जुगाड़ हो जाता है और बिचारा मेरे जेसे सिदान्तो पर चलने वाले को कोन पूछता है ! कुछ ऐसा ही हाल मीडिया का भी है।आज के समाज मे मीडिया पैसा कमाने के लालच में समाज को गुमराह कर रहा है। आज हमारे समाचार पत्र अपराध की खबरों से भरे रहते हैं। जबकि सकारात्मक समाचारों को स्थान ही नहीं मिलता । यदि मिलता भी है तो बीच के पन्नों पर कही किसी छोटे से कोने में। टी.वी. तो इससे भी चार कदम आगे है।टी. वी. पर चैनलों की जैसे बाढ़ सी आई हुई है। हर किसी का ध्येय है ऊँची टी. आर. पी. यानि अधिक से अधिक पैसा। ज़रा देखिए न्यूज़ चैनल पर आप को क्या देखने को मिलता है? सुबह- सुबह चाय के साथ अपना भविष्य जानिये। दिन में टी. वी. सीरियलों की गपशप देखिए। रात को देखिए ‘सनसनी’ या ‘क्राइम पैट्रोल’ चैन से सोना है तो जाग जाइए। ऐसा लगता है कि समाज में या तो केवल अपराध हैं या फिर हीरो-हीरोइनों के स्कैंडल। कब केजरीवाल ने खांसा सिर्फ टीवी चेनलो पर बार बार यही दिखाते नजर आयेंगे ! क्या कहीं कुछ अच्छा नहीं है? ‘सनसनी’ फैलाने के लिए ये देश की सुरक्षा को भी दाँव पर लगाने से नहीं चूकते। कभी कभी बड़े-बड़े चैनलों पर पूरी कार्यवाही का सीधा-प्रसारण दिखाया जाता है की अपराधी या आतंकवादी और हमारा अधिक से अधिक नुकसान करते रहे। मीडिया यदि अपने निहित स्वार्थों को भूलकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाए तो समाज को एक दिशा प्रदान कर सकता है। मीडिया अपराध की खबरों को दिखाए पर सकारात्मक समाचारों से भी किनारा न करे। समाज में फैली बुराइयों के अलावा विकास को भी दिखाए ताकि आम आदमी निराशा में डूबा न रहे कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता। मैं मीडिया के प्रति यही कहना चाहूँगा ----
शक्ति का तू स्रोत है, वाणी में तेरी ओज है
लोक के इस तंत्र का तू एक महान स्तंभ है
भूल अपने स्वार्थ को फिर देश का निर्माण कर
खोया तूने विश्वास फिर से तू ही विश्वास भर।
अतः मीडिया को एक बार फिर से ठीक उसी तरह निष्पक्ष होना पड़ेगा, जिस तरह की आजादी के पहले व अभी कुछ आंदोलनों में जनता के साथ देखा गया।
उत्तम जैन (विद्रोही )
मो - ८४६०७ ८३४०१

बुधवार, 3 अगस्त 2016



भगवान महावीर के सिदांत और अहिंसा







भगवान महावीर ने दूसरे के दुःख दूर करने की धर्मवृत्ति को अहिंसा धर्म कहा है। महावीर के अनुसार अहिंसा के सिद्धांत में समाहित है मानवीय संवेदनाओं की पहचान, जीवन-मूल्यों और आदर्शों की महक और सात्विक वृत्तियों का प्रकाश।
सदाचार, आचरण की शुद्धता और विचारों की स्वच्छता तथा चारित्रिक आदर्श से मनोवृत्तियों का विकास इन सभी नैतिक सूत्रों की आधार भूमि है अहिंसा। यही धर्म का सच्चा स्वरूप भी है।सर्वधर्म समभाव की आधारशिला है, समता, सामाजिक न्याय और मानव प्रेम की प्रेरक शक्ति भी है। सच्ची अहिंसा वह है जहाँ मानव व मानव के बीच भेदभाव न हो, हृदय और हृदय, शब्द और शब्द, भावना और भावना के बीच समन्वय हो। सारी वृत्तियाँ एक तान, एक लय होकर मानवीय संवेदनाओं के इर्द-गिर्द घूमें। सारे भेद मिटे, अंतर हट जाएँ और एक ऐसी मधुमती भूमिका का सृजन हो जहाँ हम सुख-दुःख बाँटे, आँसू और मुस्कान भी बाँटे। आज जैन व् अजैनं ही सम्पूर्ण विश्व गवान महावीर के प्रति आज आस्था व् उनके अहिंसा के सिदान्त का ऋणी हैं। समस्त विश्व में जैन समाज और अन्य अहिंसा प्रेमी व्यक्तियों द्वारा अहिंसा का जहा भी उल्लेख हो भगवान् महावीर को याद किया जाता है। भगवान महावीर की शिक्षाओं पर गोष्ठियां भी होती हैं, भाषण भी होते हैं और कई प्रकार के कार्यक्रम आयोजित होते हैं। भगवान महावीर की शिक्षाओं का हमारे जीवन और विशेषकर व्यावहारिक जीवन में किस प्रकार समावेश हो और कैसे हम अपने जीवन को उनकी शिक्षाओं के अनुरूप ढाल सकें, यह अधिक आवश्यक है लेकिन इस विषय पर प्राय: सन्नाटा देखने को मिलता है। पर विडम्बना है विशेषत: जैन समाज के लोग एवं अनुयायी ही महावीर को भूलते जा रहे हैं, उनकी शिक्षाओ को ताक पर रख रहे हैं। दु:ख तो इस बात का है कि जैन समाज के सर्वे-सर्वा लोग ही सबसे ज्यादा महावीर को सबसे अधिक अप्रासंगिक बना रहे हैं, महावीर ने जिन-जिन बुराइयां पर प्रहार किया, वे उन्हें ही अधिक अपना रहे हैं। उस महान् क्रांतिकारी वीर महापुरुष की जयंती को जैन समाज ने आयोजनात्मक बना दिया है, जबकि प्रयोजनात्मक होनी चाहिए! हम भगवान महावीर को केवल पूजते हैं, जीवन में धारण नहीं कर पाते हैं। हम केवल कर्मकाण्ड और पूजा विधि में ही लगे रहते हैं और जो मूलभूत सारगर्भित शिक्षाएं हैं, उन्हें जीवन में नहीं उतार पाते है । आज मनुष्य जिन समस्याओं से और जिन जटिल परिस्थितियों से घिरा हुआ है उन सबका समाधान महावीर के दर्शन और सिद्धांतों में समाहित है। जरूरी है कि हम महावीर ने जो उपदेश दिये उन्हें जीवन और आचरण में उतारें। हर व्यक्ति महावीर बनने की तैयारी करे, हमारे जैन समाज के सभी घटक के आचार्य, साधू, संत हमे भगवान महावीर के सिदान्तो पर चलने हेतु उपदेश प्रदान करते है मगर यह उपदेश सिर्फ दाए कान से सुना बाये कान से निकल जाता है ! जरुरत है हमे महावीर बनने की मगर वही व्यक्ति महावीर बन सकता है जो लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो, जिसमें कष्टों को सहने की क्षमता हो। जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समता एवं संतुलन स्थापित रख सके, जो मौन की साधना और शरीर को तपाने के लिए तत्पर हो। जिसके मन में संपूर्ण प्राणिमात्र के प्रति सहअस्तित्व की भावना हो। जो पुरुषार्थ के द्वारा न केवल अपना भाग्य बदलना जानता हो, बल्कि संपूर्ण मानवता के उज्ज्वल भविष्य की मनोकामना रखता हो। कई सदियों पूर्व यानि 2600वर्ष पहले महावीर जन्म हुआ । वे जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने जीवन भर अनगिनत संघर्षों को झेला, कष्टों को सहा, दुख में से सुख खोजा और गहन तप एवं साधना के बल पर सत्य तक पहुंचे, इसलिये वे हमारे लिए आदर्शों की ऊंची मीनार बन गये। उन्होंने समझ दी कि महानता कभी भौतिक पदार्थों, सुख-सुविधाओं, संकीर्ण सोच एवं स्वार्थी मनोवृत्ति से नहीं प्राप्त की जा सकती उसके लिए सच्चाई को बटोरना होता है, नैतिकता के पथ पर चलना होता है और अहिंसा की जीवन शैली अपनानी होती है। भगवान महावीर की मूल शिक्षा है- ‘अहिंसा" आज ‘अहिंसा परमो धर्म: का प्रयोग हिन्दुओं व् जैन का ही नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के लिए बहुत बड़ा अवदान है और आज इसको अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलवायी भगवान महावीर ने। भगवान महावीर ने अपनी वाणी से और अपने स्वयं के जीवन से इसे वह प्रतिष्ठा दिलाई कि भगवान महावीर का नाम अहिंसा के साथ ऐसा जुड़ गया कि दोनों को अलग कर ही नहीं सकते। अहिंसा का सीधा-साधा अर्थ करें तो वह होगा कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए दु:ख न दें।‘आत्मान: प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत् इस भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों से ऐसा व्यवहार करें जैसा कि हम उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं सभी जीव-जन्तुओं के प्रति अर्थात् पूरे प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा की भावना रखकर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद आदि के लिए हत्या न तो करें और न ही करवाएं और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी उपभोग नहीं करें। भगवान महावीर का एक महत्वपूर्ण संदेश है ‘क्षमा"। भगवान महावीर ने कहा कि ‘खामेमि सव्वे जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे, मित्ती में सव्व भूएसू, वेर मज्झं न केणई। अर्थात् ‘मैं सभी से क्षमा याचना करता हूं। मुझे सभी क्षमा करें। मेरे लिए सभी प्राणी मित्रवत हैं। मेरा किसी से भी वैर नहीं है। यदि भगवान महावीर की इस शिक्षा को हम व्यावहारिक जीवन में उतारें तो फिर क्रोध एवं अहंकार मिश्रित जो दुर्भावना उत्पन्न होती है और जिसके कारण हम घुट-घुट कर जीते हैं, वह समाप्त हो जाएगी। व्यावहारिक जीवन में यह आवश्यक है कि हम अहंकार को मिटाकर शुद्ध हृदय से आवश्यकता अनुसार बार-बार ऐसी क्षमा प्रदान करें कि यह भावना हमारे हृदय में सदैव बनी रहे। भगवान महावीर आदमी को उपदेश दृष्टि देते हैं कि धर्म का सही अर्थ समझो। धर्म तुम्हें सुख, शांति, समृद्धि, समाधि, आज, अभी दे या कालक्रम से दे, इसका मूल्य नहीं है। मूल्य है धर्म तुम्हें समता, पवित्रता, नैतिकता, अहिंसा की अनुभूति कराता है। आज महावीर के पुनर्जन्म की नहीं बल्कि उनके द्वारा जीये गये आदर्श जीवन के अवतरण की/पुनर्जन्म की अपेक्षा है। जरूरत है हम बदलें, हमारा स्वभाव बदले और हम हर क्षण महावीर बनने की तैयारी में जुटें तभी हम महावीर के सच्चे अनुयायी कहलाने के अधिकारी है ! महावीर बनने की कसौटी है-देश और काल से निरपेक्ष तथा जाति और संप्रदाय की कारा से मुक्त चेतना का आविर्भाव। भगवान महावीर एक कालजयी और असांप्रदायिक महापुरुष थे, जिन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत को तीव्रता से जीया। वे इस महान तिन शब्दों के न केवल प्रयोक्ता और प्रणेता बने बल्कि पर्याय बन गए। जहां अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत की चर्चा होती है वहां भगवान महावीर का यशस्वी नाम स्वत: ही सामने आ जाता है। आज हमं परिग्रहीबन गए है और हमारा मूल सिदान्त बन गया है संग्रह करो, भोग करो। महावीर की शिक्षाओं के विपरीत हमने मान लिया है कि संग्रह ही भविष्य को सुरक्षा देगा। जबकि यह हमारी भूल है। जीवन का शाश्वत सत्य है कि इंद्रियां जैसी आज है भविष्य में वैसी नहीं रहेगी। फिर आज का संग्रह भविष्य के लिए कैसे उपयोगी हो सकता है। क्या आज का संग्रह कल भोगा जा सकेगा जब हमारी इंद्रिया अक्षम बन जाएंगी। महावीर का दर्शन था खाली रहना। इसीलिए उन्होंने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले, स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया। तप से खुद को तपाया । जीवन का सच जाना। फिर उन्होंने कहा अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है। दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है। न अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता। जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, कोई भी महापुरुष सदैव प्रासंगिक रहते हैं, फिर भगवान महावीर की प्रासंगिकता के विषय में जिज्ञासा ही उपयुक्त नही है। भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन तप और ध्यान की पराकाष्ठा है इसलिए वह स्वत: प्रेरणादायी है। भगवान के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है। भगवान महावीर चिन्मय दीपक हैं। दीपक अंधकार का हरण करता है किंतु अज्ञान रूपी अंधकार को हरने के लिए चिन्मय दीपक की उपादेयता निर्विवाद है। वस्तुत: भगवान के प्रवचन और उपदेश आलोक पुंज हैं। मन में कर्तव्य का अहंकार ना आये और ना ही किसी पर कर्तव्य का आरोप हो। इस वस्तु-व्यवस्था को समझ कर शुभाशुभ कर्मों की परिणति से पार हो आत्मा की स्वच्छ दशा को प्राप्त करें। बस यही धर्म का व् भगवान महावीर स्वामी के सिद्धांतों का सार है। व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है, यह उद्घोष भी महावीर की चिंतन धारा को व्यापक बनाता है। इसका आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति मानव से महामानव, कंकर से शंकर और भील से भगवान बन सकता है। नर से नारायण और निरंजन बनने की कहानी ही महावीर का जीवन दर्शन है।
उत्तम जैन (विद्रोही )

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

जिन्दगी के सपने बनते है असूल -

 
जिन्दगी के सपने बनते है असूल ---
 
 
 
आज व्हट्स अप एक महिला मित्र ने निचे लिखी मेसेज में ये पंक्तिया भेजी ----
कोई नही देगा साथ तेरा यहॉं,
हर कोई यहॉं खुद ही में मशगुल है
जिंदगी का बस एक ही ऊसुल है..!!
तुझे गिरना भी खुद है,
और सम्हलना भी खुद है..!!
तू छोड़ दे कोशिशें,
इन्सानों को पहचानने की…!!
यहाँ जरुरतों के हिसाब से,
सब बदलते नकाब हैं…!!
अपने गुनाहों पर सौ पर्दे डालकर,
हर शख़्स कहता है, “ज़माना बड़ा ख़राब है”
बस मुझे भी एक विषय मिल गया आज का और नित्य क्रम के अनुसार ब्लॉग पर अपने विचार प्रेषित आप सभी को ----
हमने एक असूल पर जिन्दगी गुजारी है, जिसको अपना मान लिया उसे कभी परखा नहीं..! "तीन ही उसूल हैं मेरी जिन्दगी के आवेदन,निवेदन और फिर ना माने तो दे दना दन !! यह शब्द मेरे कभी नही रहे- - न मेे इन असूल पर चलता हु में शांतप्रिय हु और रहूँगा ! तो हमेशा मैंने भी बदल दिए हैं उसूल-ए-जिंदगी, अब जो याद करेगा, वही याद रहेगा।
कभी-कभी मैं अपने सपनों को याद करने की कोशिश करता हूं और सुबह होते ही उन्हें लिख लेता हूं। एक सवाल मेरे मन में उठता है कि क्या मुझे इन सपनों को याद रखना चाहिए? अगर हां, तो फिर उनके साथ क्या करना चाहिए?
हमारे मन और अस्तित्व के कुछ ऐसे पहलू हैं, जिन्हें हम सपना कहते हैं। आपने लोगों को अकसर यह कहते तो सुना ही होगा-हां, मेरा एक सपना है। इस दुनिया में अपने सपनों को साकार करने का सचेतन तरीका है, कि आप पहले सपना देखते हैं, फिर उस सपने को लगातार इतना मजबूत बनाते हैं कि वो हकीकत में बदल जाए। अपने सपनों को हकीकत में बदलने की काबिलियत अधिकतर लोगों में नहीं होती। दरअसल, उनके सपनों में कोई एकरूपता नहीं होती। वे हर दिन एक नई चीज का सपना सजाते हैं। दरअसल उनकी चेतना पूरी तरह से अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई होती है।हमारे नब्बे प्रतिशत सपने तो बस मन में इकट्ठी हुई इच्छाओं को रिलीज करने के एक साधन हैं। अगर ऐसा न हो तो ये हमारे अंदर एक कुंठा पैदा कर देंगी।सपने को साकार करने का एक पहलू यह है कि आपकी चेतना और जीवन उर्जा एक निश्चित दिशा में हों, जिससे वे आपके लिए हकीकत का रूप ले सकें। एक तरह से हम जो भी सृजन करते हैं, वह हमारे सपनों का ही साकार रूप होता है। पर अब हम ऐसे सपनों के बारे में बात करते हैं जिनके बारे में आपने कभी सोचा नहीं, पर उनको अपने सपनों में देखते हैं।
इन सपनों को हम निम्न श्रेणियों में बांट सकते हैं।
हमारी इच्छाओं के सपने- हमारे नब्बे प्रतिशत सपने तो बस मन में इकट्ठी हुई इच्छाओं को रिलीज करने के एक साधन हैं। यह इंसानी मन बना ही कुछ ऐसा है कि जो भी इसे अच्छा, आकर्षक और खास लगता है, यह उसे पाना चाहता है। इनमें से कई तो ऐसी इच्छाएं होती हैं, जिन्हें हमने सचेतन मन से चाहा भी नहीं होता। ऐसा सिर्फ इसलिए होता है, क्योंकि हमारा मन तमाम इच्छाएं करता रहता है। वैसे ये आपकी अच्छी किस्मत है कि ये सभी इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं। अगर सारी सच हो जाएं तो आपकी पूरी जिंदगी एक बहुत बड़ी यातना बन जाएगी। सपने दरअसल आपकी मदद करते हैं। अब मेरे विचारो को थोडा टर्न (मोड़ ) दूंगा ! आज महात्मा गांधी को मजबूरी से भी जोड़ दिया और पता नहीं कब 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी' जुमला चल निकला. विडंबना ये भी है कि नोटों पर भी गांधी की तस्वीर छपी होती है और वही नोट भ्रष्टाचार में सबसे बड़ी विनिमय मुद्रा है. बहरहाल, जब गांधी के सकारात्मक प्रतीकों की बात करें तो उनके तीन बंदर भी याद आते हैं. गांधी के तीनों बंदर याद हैं आपको? 'बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो' वाले बंदर? गांधी आत्मा की निर्मलता और स्वच्छता के हिमायती थे. उनके तीनों बंदरों के प्रतीक का संदेश भी आत्म शुद्धि से ही जुड़ा हुआ है. लेकिन इस बात से शायद इनकार नहीं किया जा सकता कि व्यापक रूप में इस संदेश को इस रूप में भी पढ़ा गया कि बुराइयों से दूर रहना ही बेहतर है.! लेकिन कई बार ये जिज्ञासा होती है कि अगर आज गांधी होते तो क्या अब भी इन बंदरों को प्रतीक के रूप में स्वीकार करते? क्या वे इस बात से विचलित नहीं होते कि बुराइयों से दूर रहने के फेर में लोग आत्मकेंद्रित हो रहे हैं और बुराइयों को अनदेखा करने की प्रवृत्ति स्वीकारोक्ति की तरह देखी जाने लगी है? क्या सच में ये संभव है कि अपने आसपास की बातें नागवार गुज़रे और आप किसी को बुरा न कहें? साझा हित के ख़िलाफ़ कोई कुछ भी कहे जा रहा हो और आप उसे ना सुनें? या अपने आसपास की सारी बुराइयों को देखकर भी आप अनदेखा कर सकते हैं? मुझे लगता है कि तीनों बंदरों की मूर्तियाँ अब अप्रासंगिक हो गई हैं. या उनके संदेश अप्रासंगिक हो चुके हैं. हमारे आसपास इतनी बुराइयाँ बिखरी हुई हों वहाँ आप अपनी आत्मा को बचा भी लें तो क्या?
इसलिए अब संदेश बदला जाना चाहिए. बुरा देखो, बुरा सुनो और बुरा कहो. लेकिन साथ में ये याद रखना होगा कि बुरा देखो और सुनो तो उसे सुधारने के प्रयास करो. यदि इस प्रयास में किसी को बुरा कहना पड़े तो वो भी करो.समस्या की जड़ बुराई है. उसे ख़त्म करने के लिए अगर बुराई से दो चार होना पड़े तो वो भी सही. बुरा देखकर और बुरा सुनकर ही मोहनदास करमचंद गांधी ने विद्रोह का रास्ता चुना था.(अब आप मुझे विद्रोही आवाज का संपादक होने के नाते विद्रोही मत समझ बेठना) अगर ऐसा न होता तो चैन से बैरिस्टरी करते रह जाते. बुरे लोगों के ख़िलाफ़ बुरा कहकर ही उन्होंने आज़ादी की लौ जलाई थी.
यक़ीन करने को जी चाहता है कि यदि आज गांधी होते तो अपने बंदरों के आंख, कान और मुंह से हाथ हटाकर कहते कि अगर बुरा को बुरा नहीं कहोगे, उसका विरोध नहीं करोगे तो लोकतंत्र के निरीह नागरिक की तरह एक दिन मारे जाओगे...... इसलिए जीवन में जिन्दगी के सपने बनते है असूल --और वह बनने भी चाहिए
उत्तम जैन ( विद्रोही )

सोमवार, 1 अगस्त 2016

जीवन में दिशा व् दशा

   जीवन में दिशा व् दशा
मनुष्य का जीवन उसके निर्णयों पर आधारित है। हर व्यक्ति को दो या अधिक विकल्पों में से किसी एक को चुनता है और बाद में उसका वही चुनाव उसके आगे के जीवन की दिशा और दशा को निर्धारित करता है।एक सही व सामयिक निर्णय जीवन को समृद्धि के शिखर पर पहुँचा सकता है तो गलत निर्णय बर्बादी के कगार पर ले जा सकता है। कुशलता का अर्थ ही सही काम, सही ढंग से, सही व्यक्तियों द्वारा, सही स्थान व सही समय पर होना है। निर्णय लेना अनिवार्य है किन्तु सही समय पर सही निर्णय लेना सक्षम व कुशल प्रबंधक का ही कार्य है। आज युवा शक्ति का लोहा दुनिया भर में माना जाता है लेकिन युवा शक्ति को सकारात्मकता दिशा की ओर मोड़ना बहुत बड़ी चुनौती होती है और जहाँ इस शक्ति को सही दिशा में मोड़ा जा सका है वहीं नई ऊँचाइयाँ नापी जा सकी हैं। मेरी सोच के मुताबिक युवा शक्ति की उर्जा का सकारात्मक कार्यों में उपयोग करना समाज और सरकार व् आध्यात्म गुरु की सामूहिक जिम्मेदारी है और इसे निभा कर ही युवाओं को सृजनात्मक कार्यो में लगाया जा सकता है। ये बात सर्वव्यापी है कि भारत में युवाओं की जितनी संख्या है, उतनी और कहीं नहीं है। भारत के साथ एक सकारात्मक पहलू यहाँ के युवाओं का संस्कारी होना है। पश्चिमी देशों में युवाओं के पथभ्रष्ट होने की काफी आशंका रहती है, उसकी तुलना में भारत में ऐसे होने की आशंका बहुत कम है। इतने सारे सकारात्मक पहलुओं के बावजूद अगर युवाओं में नकारात्मकता पैदा हो रही है, तो इसे दूर करने के लिए समाज में हर स्तर पर प्रयास की जरूरत है। ‘समाज का युवा वर्ग आज विभाजित सा है, एक तरफ महानगरों की युवा शक्ति है, जो निजी क्षेत्रों में लगातार सफलता के नए आयाम छू रही है, वहीं दूसरा पहलू हम हिंसक घटनाओं के रूप में रोज टीवी मिडिया पर देख रहे हैं। युवाओं की इस नकारात्मक शक्ति को सकारात्मकता की ओर मोड़ना समाज और सरकार व् आध्यात्म गुरु का सामुदायिक दायित्व होना चाहिए।’रोज के अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि सही दिशा देने पर गांवों के युवा भी विदेशों में झंडे गाड़ सकते हैं। पर अगर उन्हें कोई आशा नहीं मिलेगी, तो वे कब हथियार उठा लेंगे, आप इसका अंदाजा नहीं लगा सकते।’ आतंकवाद और अन्य हिस्सों में नक्सलवाद के घेरे में आ रहे युवाओं के बारे में तो सच्चाई सबके सामने है। लंबे समय से शिक्षा और रोजगार से कोसों दूर रह रहे इन युवाओं को बरगलाना सबसे आसान है। हिंसा की घटनाओं में इजाफा सरकार के लिए व् देश के लिए चिंता का नया सबब बन सकता है।’ज्यादातर युवाओ से अगर पढ़ाई पूरी करने के बाद आप प्रश्न करेंगे वे क्या करने वाले है ? तो ज्यादातर यही इच्छा जताएंगे कि हम विदेश जाकर पैसा कमाना चाहते है। इस प्रकार की सोच केवल इस पढ़ी लिखी पीढ़ी की है ऐसा नही हैं, सामाजिक रचना मे ही यह सोच घर कर गयी है। माता-पिता का भी यही सोचना होता है, मेरा बेटा पढ़ लिख गया है उसे अब कहीं विदेश मे ‘‘सैटल’’ हो जाना चाहिए। यह सोच समाज मे अचानक से आ गयी ऐसा नहीं है। इस सोच का जन्म हमारी एक हजार वर्ष की गुलामी है। जिसका प्रभाव आज भी हमारे जीवन मे उपरोक्त उदाहरण के साथ ऐसे अनेको उदाहरणो से मिलता है। हमारा आत्मविश्वास ही जीवन की दिशा व् दशा निर्धारित करता है ! हमारे देश में प्राचीन काल से ही सामाजिक समानता की कोई अवधारणा नहीं रही। गरीब अमीर सभी समाजों में रहे हैं। राजा प्रजा भी रही, शिक्षित-अशिक्षित भी रहे। छोटे बड़े व्यवसाय भी होते हैं। लेकिन जिस तरह की असमानता, घोर आत्मघाती अमानुषिक विभाजन हमारे समाज में रहा है, वह दुनिया के किसी अन्य समाज में नहीं रहा। सभी वर्ग अपनी अपनी जाति में आगे पीछे, ऊँचे नीचे, शक्त-अशक्त हो कर ही दैनिक जीवन के क्रूर नियमों और सत्ता के भय के घेरे में जीवन जीते थे। गौरवशाली कहने के लिए उपलब्धियाँ थी भी, तो इन अन्धेरों में उनकी रोशनी का प्रकाश सिर्फ़ उनके लिए था जिनके हाथों में समाज की मशालें थीं। यह सब कुछ आज हम तरह तरह से सामने लाने और दूर करने में लगे हुए हैं। लेकिन हमारे प्राचीन सामाजिक विभाजन की जड़ें शायद इतनी गहरी हैं कि समानता का विचार मन और आत्मा से अभी स्वीकृत नहीं है। हमारी सारी राजनीतिक प्रक्रिया आज भी उन्हीं अनगिनत जातीय, वर्गीय और यौनीय विभाजक अवरोधों का शिकार है। सहमति आज भी केवल बहिष्कार की है। हर प्रकार के विभाजन का घोर कलुष हमें सही रूप में लोकतांत्रिक होने ही नहीं देता। राजनीति ने इसी मूल विभाजन का खूब लाभ उठाया है, इसे और भी उग्र बनाया है। सारा अभियान खुले तौर पर एक दूसरे का बहिष्कार करने में अपनी शक्ति ढूंढता है। राजनीति में विचारों की भिन्नता मात्र एक ओढ़नी की तरह है जो व्यावहारिक होते ही उतर जाती है। आज हमारे समाज में राजनीतिक संस्कृति (Political Culture) का कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के निजी जीवन में हर विषय पर अपने विचार होते हैं और वह उन्हें अपने आस पास प्रकट भी करता रहता है लेकिन लोक बुद्धि के इस गहन स्त्रोत को हमारे समाज में कोई उपयोगी दिशा नहीं मिल पाती। जरुरत है इस दशा को बदलने के लिए समाज , सरकार व् देश के आध्यात्म गुरु , साधू संतो व् उपदेशको को युवाओ को सही दिशा देनी पड़ेगी !
उत्तम जैन (विद्रोही )
मो - 8460783401
 

 

धर्म का मर्म

धर्म का मर्म ---धर्म के विभिन्न विचारों पर चलकर हम धीरे-धीरे बड़े होते हैं। वहीं विचार हमारे मन में बस जाते हैं। लेकिन आजकल लगातार कई बार इसमें ह्रास देखा जा रहा है। हर व्यक्ति अपने धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म के प्रति अधिक आकर्षित होता है। पहले हमारे पूर्वजों ने जिन चीजों को दृष्टि में रखकर धर्म को महत्व दिया था, हम उससे बिल्कुल हटकर सोचते हैं। जैसा कि एक किसान का धर्म खेती करना है अगर उसी कार्य को वह निपुणता के साथ करे तो उसे उस कार्य में सफलता भी मिलेगी। हर व्यक्ति को अपने धर्म को समझना जरूरी होता है। अपने-अपनेे धर्म को समझकर उसी में रूचि के साथ कार्य करने से हमें सफलता जरूर मिल सकती है। साधारण तौर पर यह देखा गया है कि कई व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने धर्म और कर्म से अधिक दूसरों के धर्म और उनके कार्य लुभाते हैं। हम उनसे प्रेरित होकर वही करने बैठ जाते हैं। जबकि हमारी अपने धर्म के प्रति निष्ठा धीरे-धीरे कम होने लगती है और जिस कार्य को हम मन लगाकर करने बैठते हैं वही कार्य सुचारू रूप से कर भी पाते हैं। दूसरों के धर्म को अपमानित करना हमारा इरादा नहीं होना चाहिए। अपने धर्मपथ पर दृढ़ रहते हुए दूसरों के धर्म के प्रति समान सम्मान का भाव रखना चाहिये। देखा जाये तो जो व्यक्ति अपने धर्म का मर्म सही रूप से समझता है वही व्यक्ति दूसरों के धर्म के प्रति अपने दिल में समान सम्मान का भाव रख सकता है। कुछ अहंकारी व्यक्ति जिन्हें धर्मों, मर्यादाओं और संस्कारों के मोल का एहसास नहीं होता उनकी वजह से ही समाज में धर्म के नाम पर व्यभिचार व्याप्त होता है।हम सभी धर्म रूपी शब्द में आस्था तो रखते है मगर धर्म का वास्तविक अर्थ उसका मर्म क्या है कभी समझने की कोशिश नही की मूल आज का विषय है - धर्म क्या है ? धर्म की क्या आवश्यकता है। (धर्म का मर्म) धर्म शब्द से क्या अभिप्राय है ? धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है। धृ का अर्थ है धारणा करना, संभाले रखना। धर्म की व्याख्या शास्त्रों में की गयी है ---
‘परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्’
अर्थात परोपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को किसी भी भांति सताना और दुःखी करना पाप है। जो चीज सबको संभाले और मिलाए रखे-वही धर्म है। जिस बात से किसी को भी दुःख न पहुंचे वही धर्म है। धर्म के दस लक्षण है धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय, दमन (निरहंकारिता), अस्तेय, पवित्रता, बुद्धि, विवेक, सत्य एवं अक्रोध।
हम सभी लोग अपने आपको धार्मिक कहलाना पसंद जरूर करते हैं, मगर अपनी आत्मा से ही कभी कभार पूछ लिया करें कि हम कितने धार्मिक हैं तो हमारी कलई अपने आप खुल जाएगी। धर्म-कर्म के नाम पर हम जो कुछ करते हैं उसका अधिकांश हिस्सा भगवान को रिझाने या दिखाने के लिए तो शायद ज्यादा कभी नहीं होता बल्कि लोक दिखाऊ संस्कृति का ही हिस्सा माना जा सकता है। हम जो कुछ साधना और धर्म-ध्यान, भजन-पूजन आदि करते हैं वह सब कुछ देवी या देवता के लिए करते हैं मगर प्रायः देखा यह गया है कि हम लोगों को देख कर अपने हाथ-होंठ और जीभ चलाते हैं। कोई हमें नहीं देख रहा हो तब कुछ भी नहीं करते या कि दूसरे-तीसरे विचारों में खोये रहते हैं अथवा अन्य कामों में मन लगाए रहते हैं। धर्म को हमने उपासना पद्धति ही मान लिया है जबकि धर्म का संबंध जीवनचर्या के व्यापक अनुशासन और वैश्विक सोच की उदारता से भरा है। मन में राग द्वेष रख कर हम चले धर्म करने यह तो एक विडम्बना ही है ! धर्म हमें वसुधैव कुटुम्बकम् के सिदान्त को सिखाता है ! सच में देखा जाए तो कहा भी गया है कि जो धर्म को धारण करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।कोई कितना ही साधन, भजन-पूजन, अनुष्ठान आदि कर ले, यज्ञ-यागादि, धार्मिक समारोहों आदि से लेकर मन्दिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा में लाखों-करोड़ो रुपयों का दान कर दे, इसका कोई मूल्य नहीं है, यदि यह पैसा पवित्र नहीं है।यह मेरा मानना है ! धर्मानुरागी माने या न माने मुझे उससे कोई वास्ता नही! क्यों की दुर्भाग्य से आजकल धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें अधिकांश पैसा दूषित आ रहा है। और साधू संत व् बाबाओं ने भी धर्म के नाम पर गंदे और प्रदूषित पैसे को शुद्ध करने का ऎसा भ्रम बना रखा है कि धर्म और कालेधन, पापधन, दूषित धन सब कुछ एक दूसरे का पर्याय हो गया है। हम सभी लोगों को भ्रम है कि कितनी ही काली कमायी कर लें, रिश्वतखोर बने रहें, भ्रष्टाचार से धन जमा करते रहें, उसका थोड़ा सा अंश धार्मिक कार्यक्रमों, मन्दिरों और पूजा-पाठ या बाबाओं, साधू के इंगित अनुसार उनके चरणों में समर्पित कर देने से उनके पाप धुल जाएंगे और अनाचार, अनीति से धनार्जन का पाप समाप्त हो जाएगा।यही वजह है कि देश में हर तरफ धर्म के नाम पर गतिविधियों की हमेशा धूम मची रहती है, हर दिन कोई न कोई आयोजन होता रहता है, इसके बावजूद न शांति स्थापित हो पा रही है, न संतोष। प्राकृतिक, दैवीय और मानवीय आपदाओं का ग्राफ निरन्तर बढ़ता ही चला जा रहा है। कहीं भूकंप आ रहे हैं, भूस्खलन हो रहा है, कही बाढ़ सूखा और दूसरी सारी समस्याएं बढ़ती ही चली जा रही हैं।इन सभी का मूल कारण यही है कि धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें शुचिता समाप्त हो रही है, प्रदूषित और पाप की कमायी लग रही है। जो कर रहे हैं वे भी, और जो करवा रहे हैं उनका भी धर्म से कोई वास्ता नहीं है बल्कि इन लोगों ने धर्म के नाम पर धंधा ही चला रखा है।यही कारण है कि भगवान भी इन लोगों की उपेक्षा कर रहा है और हम सभी मूर्खों को भी उपेक्षित कर रखा है जिन्हें धर्म के मूल मर्म से कोई सरोकार नहीं है।धर्म सदाचार, मानवीय मूल्यों, आदर्शाें और विश्व मंगल के लिए जीने का दूसरा नाम है। असली धर्म वही है जिसे देख, सुन और अनुभव कर हर किसी को प्रसन्नता का अनुभव हो, चाहे वह मनुष्य और, दूसरे कोई से प्राणी या जड़-चेतन जगत ही क्यों न हो। धर्म वह छत है जिसके नीचे कोई भेदभाव नहीं है बल्कि पूरी सृष्टि का भरण-पोषण और रक्षण करता है। हम सभी को चाहिए कि धर्म के मूल मर्म को आत्मसात करें और मानवीय मूल्यों से भरे-पूरे उन विचारों और कर्मों को अपनाएं जहाँ हर कोई एक-दूसरे से प्रसन्नता का अनुभव करे, मनुष्य-मनुष्य और जगत के हर प्राणी के बीच प्रेम, सात्विकता और पारस्परिक विकास की भावनाओं से भरा माहौल हो।
किसी कवि ने धर्म के मर्म पर बहुत खूब लिखा ----
आड़ लेकर धर्म की, सत्ता सुख की छांव
अस्त्र लिए कोई हाथ में, कोई घुंघरू बांधे पांव !
छुरी छुपी है हाथ में, मुख में लिए हैं राम
कहीं धर्म का नाम ले, करते कत्लेआम!
भोला बचपन विश्व में, भाले दिए हैं हाथ
भरी जवानी आज देखो, छोड़ रहे हैं साथ!
कराह रही इंसानियत, चीत्कार चहुं ओर
धर्म हमारे मौन से, सत्ता का नहीं ठौर!!
आज धर्म के मर्म को, समझ रहा है कौन
कांव-कांव कौवा करे, कोयल बैठी मौन !!
हम सबको दो हाथ मिले, करने को सद्काम
एक हाथ से जेब भरी, एक हाथ में जाम !!
नाम नहीं ले राम का, तब भी होंगे काम
रावण की गर राह चला, तब बिगड़ेंगे काम !
उत्तम जैन (विद्रोही )
मो- 84607 83401