बुधवार, 20 जुलाई 2016

धर्म व राजनीति


                                   धर्म व राजनीति
वर्तमान मे धर्म व राजनीति पर नजर डाली जायी तो हर धर्म मे राजनीतिक दखल हो रहा है ! धर्म का उपयोग राजनीति में नहीं होना चाहिए यह बात देश में सभी को पता है और वर्षों से पता है बावजूद इसके वर्तमान हालात कुछ अलग ही बात कहते हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल के कारण विचित्र परिस्थितियाँ निर्मित होते जा रही हैं। फलस्वरूप धार्मिक मुद्दो पर राजनीतिज्ञ बड़ी चतुराई से अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते है या यू कहा जाए धार्मिक मुद्दा बनाकर मीडिया मे छाए रहना इन राजनीतिज्ञ लोगो की सोची समझी चाल है ! ओर धर्म के नाम पर भोले भाले धार्मिक लोग इनके झांसे मे आकर हो हल्ला मचाते है ! ओर कुछ धर्म के ठेकेदार बनकर खुद की राजनीतिक घुसपेठ बनाने के लिए मीडिया मे अपने तर्क वितर्क प्रस्तुत करते है ! जिसका कोई सारांश नही निकलता जिसमें जितने प्रश्न हैं उतने जवाब नहीं हैं। धर्म और राजनीति का घालमेल सदियों से होता आ रहा है पर वर्तमान स्वरूप काफी व्यथित करने वाला है। धर्म के बारे में सामान्य रूप से कहा जाता है कि यह जीवन जीने का रास्ता बताता है। सभी धर्मों में इसी बात को लेकर अलग-अलग व्याख्या है। मैं विभिन्न धर्मों व पंथों के बारे में व उनके मतों के बारे में गहराई में नहीं जाना चाहता। पर मेरा मानना है कि धर्म के नाम पर गुमराह करना और लुटना बंद होना चाहिए। धर्म के नाम पर आडंबर नहीं होना चाहिए। व्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर धर्म के प्रति उसकी आसक्ति, अनासक्ति भाव सब कुछ आ जाता है। धर्म केवल नियम कानूनों में बँधना नहीं बल्कि धर्म इंसान को दूसरे इंसान के साथ इंसानियत का भाव बनाए रखने में मदद करता है। आज के परिप्रेक्ष्य में यही जरूरी है। हम न केवल धर्म को बल्कि साधारण सी समस्याओं का भी राजनीतिकरण करने से नहीं चूकते। जिसका परिणाम हम सभी देख रहे हैं। कला, संस्कृति से लेकर भगवान भी राजनीति के कटघरे में खड़ा नजर आ रहा है। यह स्थिति क्यों बनी और क्या ऐसी ही स्थिति बनी रहेगी? मैं इसका हल शिक्षा में ढूँढता हूँ। हम धर्म का सही मायने में अर्थ ही समझ नहीं पाएँगे तब निश्चित रूप से इसका गलत उपयोग ही करेंगे। हमें अपने व्यवहार व आचरण को लेकर सोचना होगा और इस बात को ध्यान में लाना होगा कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है। हमारा प्रथम धर्म मानव धर्म है हम भले ही किसी भी ओहदे पर बैठे हों और किसी भी प्रकार का काम कर रहे हों, अगर हम इंसानियत के धर्म को अपना पहला धर्म समझेंगे तब बाकी सभी कुछ आसान हो जाएगा और यह केवल शिक्षा से ही आ सकता है। धर्म के कई ठेकेदार व धनिक लोग कहु या अग्रिम पंक्ति मे बेठे हुए कुछ लोग अपने प्रभाव से अशिक्षित व साधारण लोगों को बरगलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। वे लोग शिक्षित लोगों पर अपनी दादागिरी से यह आदेश नहीं देते, क्योंकि उन्हें पता है कि शिक्षित व्यक्ति रुढ़िवादी और ढोंग में भरोसा नहीं करता, केवल अच्छे कर्म व इंसानियत को ही मानता है। मेरा ऐसा व्यक्तिगत मत है कि धर्म की सही व्याख्या बच्चों को घरों में दिए जाने वाले संस्कारों में छिपी है। हम बच्चों को संस्कार देते समय सावधानी बरतते हैं और उन्हें भलाई, ईमानदारी के साथ जीवनयापन करने की बातें करते हैं पर स्वयं की बारी आने पर हम कायर, कपटी, झूठे, बेईमान बनने में किसी भी प्रकार की शर्म नहीं पालते ! भौतिकवादी जीवनशैली के चलते हम संस्कारों से लेकर धर्म को अपने अनुसार बदलने पर तुले हैं पर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह बदलाव हमारे लिए भविष्य में सकारात्मक होगा या नकारात्मक। निश्चित रूप से अब तक जो स्वरूप सामने आया है वह नकारात्मक है। इस कारण अब हमें धर्म की व्याख्या करते समय इस बात का ध्यान आवश्यक रूप से रखना होगा कि हम राजनीति को अलग रखें और धर्म को अलग तभी इंसानियत धर्म के संस्कारों का बीजारोपण आगे आने वाली पीढ़ी में कर पाएँगे।

लेखक – उत्तम जैन (विद्रोही )

अरे मानव! तू क्यों हर पल दानव बनता जा रहा हैं,


ईश्वर ने तुझे बहुत सोच समझकर प्यार और विश्वास के साथ बनाया था,--मनुष्य बन रहा है दानव 

मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही जितने भी विनाश हुए है, इनके समाज में जितने भी जुल्मों सितम हुए है ; जितने भी युद्ध हुए है और आज हमारा समाज, हमारा परिवार जितनी भी कलह, त्रासदी, दंगे-फसाद, अपराध से प्रताड़ित हो रहा है! नैतिक शिक्षा ही मानव को ‘मानव’ बनाती है क्योंकि नैतिक गुणों के बल पर ही मनुष्य वंदनीय बनता है। सारी दुनिया में नैतिकता व् चरित्र के बल पर ही धन-दौलत, सुख और वैभव की नींव खड़ी है। नैतिकता के अंग हैं – सच बोलना, चोरी न करना, अहिंसा, दूसरों के प्रति उदारता, शिष्टता, विनम्रता, सुशीलता आदि। परन्तु आज ये शिक्षा ना तो बालक के माता-पिता, जिन्हें बालक की प्रथम पाठशाला कहा जाता है, ना ही विद्यालय दे पा रहा है। नैतिक शिक्षा के अभाव के कारण ही आज जगत में अनुशासनहीनता का बोल-बाला है। आज का छात्र कहाँ जानता है, बड़ों का आदर-सत्कार, छोटों से शिष्ठता-प्यार, स्त्री जाति की सुरक्षा-सम्मान सत्कार। रही-सही कसर पूरी कर देता है हमारा फिल्मजगत और टेलिविजन प्रसारण। जो अश्लीलता की हर हदें पार कर चुका है और उसका मूल्य चुकाना पड़ता है समाज को, क्योंकि मनुष्य का स्वभाव है अनुकरण करना। वह अनुकरण से ही सीखता है। आज नायिकाओं में नग्नता परोसने की होड़ लगी है कि कौन कितने कपड़े उतारता है तथा कौन कितना बोल्ड सीन दे सकता है? पैसे की चकाचौंध ने इतना अंधा बना दिया कि वह यह भूल गई हैं कि इसका दुष्परिणाम भुगत रही हैं हमारी नवयुवतियाँ, बच्चियाँ, स्त्रियाँ। यह कथन कितना चरितार्थ होता है – कि ‘स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है’। दर्शक टेलीविजन चैनलों पर, सिनेमा में पेश नग्नता, उनके नग्नता भरे दृश्यों से कितना विचलित हो रहा है, उसकी भड़ास का शिकार, उसके घरों के आस-पास में जहाँ कहीं मौका मिलता है, मासूम बच्चियाँ, महिलायें बन रही हैं। पिता के साथ बेटी सुरक्षित नहीं, भाई के साथ बहन, पति के साथ पत्नी भी असुरक्षित हैं। समाज में एक ज्वाला जली है हवस की। चारों तरफ, जहाँ पढ़ो, सुनो व देखने को मिलता है देश में महिलाओं के खिलाफ असामाजिक घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं ! समाज का दायित्व हो जाता है कि हम अपने नैतिक मूल्यों का पुर्नस्थापन करें। मगर अफसोस समाज अपने कर्तव्य से विमुख होता नजर आरहा है ! आज हम अपने पूर्वजों के दिखायें, बताये मार्ग को भूल गये हैं। पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति को अपनाते-अपनाते, ना तो हम खुद को ही पहचान पा रहे हैं, ना ही पाश्चात्य को। कुछ नवयुवतियाँ भी आजादी मिलने का अर्थ कुछ और ही ले रही हैं। माँ-बाप की खुली छूट का गलत फायदा उठा रही हैं। आये दिन अखबारों, पेपरों में छप रहा है कि शराब पीकर लड़कियों ने हंगामा किया। देर रात तक लड़कों के साथ क्लबों में, होटलों में पार्टी करना आज आम हो रहा है। ऐसा इसलिये हो रहा है कि हमारे नैतिक जीवन मूल्यों का पतन हो रहा है। नारी का ऐसा घृणित व्यवहार, घटिया मानसिकता और निकृष्ठ सोच का परिणाम है। ‘‘किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर वहाँ की महिलाओं की स्थिति है। जो राष्ट्र समाज में स्त्रियों का आदर नहीं करना चाहते व कभी महान बन ही नहीं पायेंगे। देश के वर्तमान पतन का मुख्य कारण यही है कि हमने शक्ति की इन सजीव प्रतिमाओं के प्रति आदरभाव नहीं रखा। स्त्रियों के प्रति घृणित दृष्टि निन्दनीय है। माँ के रूप में, बहन-बेटी के रूप में महिलाओं को सुरक्षा, सुविधा, स्नेह व दुलार देना समाज का कर्तव्य है। नैतिकता और सदाचार ही राष्ट्रीय जीवन का आधार है। आज समाज में इन्हीं नैतिक मूल्यों की स्थापना की सबसे अधिक जरूरत है। प्रत्येक बच्चे को सही मार्ग दर्शन मिले, यह उचित शिक्षा ही कर सकती है। नैतिकता का पाठ पढ़ाया नहीं जा सकता, वरन् उसे चरित्र में उतारना है। वरना मानव दानव का रूप धर चुका है तथा उसका रूकना कठिन ही नहीं नामुमकिन हो जायेगा।
उतम जैन (विद्रोही ) 

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

     तलाक वर्तमान की गंभीर समस्या 

आज वर्तमान में हमारे देश की सबसे गंभीर समस्या तेजी से पनप रही है वह है तलाक नामक बीमारी ! जो व्यक्ति या नारी इस बीमारी से गुजरा है या गुजर रहा है तलाक नाम सुनते ही खुद अपने आपको दुर्भाग्यशाली समझने लग जायेगा ! आखिर यह समस्या क्यों पनप रही है ! आज क्यों अदालतो में हजारो लाखो इस तरह के केस लंबित पड़े हुए है ! यह एक विचारणीय प्रश्न है ! विवाह मात्र दो शरीरों का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों,सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिवेशों का मिलन है | इस मिलन से बने संबंध हमारे जीवन के हर सुख-दुख में हमारा साथ निभाते हैं | पर कभी-कभी एक क्षण ऐसा भी आता है कि इस विवाह से जुड़े रिश्ते के साथ जीवन जीना दूभर हो जाता है ,जो पति-पत्नी कल तक एक दूसरे के सुख-दुख में एक दूसरे के साथ थे ,वे अचानक एक -दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते और एक समय ऐसा आता है कि उनका एक छत के नीचे निर्वाह मुश्किल हो जाता है ,तब सिर्फ और सिर्फ एक ही रास्ता सूझता है ,और वो रास्ता है वह है तलाक का ……! क्या आपकी शादी भी ऐसे किसी दोराहे पर खड़ी है? शायद आपके जीवन-साथी ने आपके भरोसे को तोड़ा हो या फिर बार-बार होनेवाले झगड़ों की वजह से आपके रिश्ते में पहले जैसी मिठास नहीं रही। अगर ऐसा है तो शायद आप खुद से कहते होंगे, ‘हमारे बीच अब प्यार नहीं रहा,’ या ‘हम एक-दूसरे के लिए बने ही नहीं थे’ या ‘शादी के वक्‍त हमें पता ही नहीं था कि इसमें क्या-क्या शामिल है।’ आपके मन में यह भी खयाल आता होगा, ‘शायद हमें तलाक ले लेना चाहिए।’ मेरी एक सलाह तलाक का फैसला जल्दबाज़ी में नहीं करना चाहिए। पहले इस बारे में अच्छी तरह सोच-विचार कर लीजिए। यह ज़रूरी नहीं कि तलाक लेने से आपकी ज़िंदगी में छाए परेशानी के काले बादल छँट जाएँगे। इसके उलट अकसर यह देखा गया है कि तलाक से एक समस्या तो हल हो जाती है, लेकिन उसकी जगह एक नयी समस्या खड़ी हो जाती है। मेने किसी लेखक की एक किताब में पढ़ा “जो पति-पत्नी तलाक का फैसला करते हैं वे इस कदर अपने ख्वाबों-खयालों में खो जाते हैं कि वे सोचने लगते हैं कि इससे एकदम से सारी समस्याओं का हल हो जाएगा, रोज़-रोज़ की किट-किट से हमेशा की छुट्टी मिल जाएगी, उनके रिश्ते से खटास चली जाएगी और ज़िंदगी में चैन-सुकून आ जाएगा। लेकिन यह उतना ही नामुमकिन है जितना नामुमकिन एक ऐसी शादीशुदा ज़िंदगी जीना जिसमें खुशियाँ ही खुशियाँ हो।” इसलिए यह जानना ज़रूरी है कि तलाक लेने के क्या-क्या नतीजे हो सकते हैं और उन्हें ध्यान में रखकर फैसला लेना चाहिए । “चतुर मनुष्य समझ बूझकर चलता है।” मेरी आज तक जितने भी तलाकशुदा व्यक्ति या महिला से बात हुई उन्होंने यही कहा तलाक लेकर उन्होंने गलत फैसला किया है ।शादी टूटने पर अकसर पत्नी को भयंकर आर्थिक समस्या से जूझना पड़ता है ! क्योंकि उन्हें बच्चों की देखभाल करनी होती है, नौकरी ढूँढ़नी होती है, साथ ही तलाक की वजह से मानसिक तनाव से भी गुज़रना होता है।”लोग तलाक तो ले लेते हैं, पर अकसर यह नहीं सोचते कि इसका बच्चों पर क्या असर होगा। मगर तब क्या अगर माता-पिता की आपस में बिलकुल नहीं बनती? ऐसे हालात में, क्या तलाक लेना वाकई “बच्चों की बेहतरी” के लिए होगा? हाल के कुछ सालों में लोगों ने इस विचार पर सवाल उठाए हैं, खासकर तब जब छोटी-छोटी बातों पर तलाक लिया जाता है।“जिन लोगों की शादीशुदा ज़िंदगी खुशहाल नहीं है, उन्हें यह जानकर ताज्जुब होगा कि बच्चों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वे अपने में खुश रहते हैं। जब तक परिवार एक-जुट रहता है, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि मम्मी-पापा अलग-अलग सो रहे हैं।” यह बात सच है कि अकसर बच्चों को पता होता है कि उनके मम्मी-पापा के बीच झगड़ा चल रहा है और इसका बच्चों के कोमल दिल और दिमाग पर बुरा असर हो सकता है। मगर यह सोचना की तलाक लेना बच्चों के लिए अच्छा रहेगा बिलकुल गलत है। हमारे समाज में आज भी तलाक़शुदा स्त्री-पुरुष को इज्जत की दृष्टि से नहीं देखा जाता | जहां तक मेरा मानना है कि कोई भी स्त्री तब तक अपना संबंध बचाती है जब तक की एकदम से असहनीय न हो जाए | तलाक की बात करना जितना आसान लगता है वास्तव में यह उतना ही कठिन व तकलीफ़देह होता है | तलाक की प्रक्रिया इतनी जटिल व लंबी होती है कि व्यक्ति मानसिक रूप से टूट जाता है ,और इसका सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव तो बच्चों पर पड़ता है ,अगर बच्चे नहीं भी हैं तो भी वह सामाजिक उपेक्षा का भी कारण बनता है | ऐसे में प्रयास तो यही करना चाहिए की आपसी सूझबूझ व सहयोग से झगड़ों का निबटारा कर लिया जाए | लेकिन कई बार स्थिति बेकाबू हो जाती है और उन परिस्थितियों में तलाक ही उचित व अंतिम विकल्प बच जाता है | जहां एक ओर स्त्रीयों ने पढ़-लिख कर अपना एक अलग मुकाम बनाया है तो जाहीर है उनकी सोच में भी बहुत अंतर आया है ,वही दूसरी ओर पुरुष आज भी स्त्री को उसी परंपरा के घेरे में देखना चाहता है ,जो तलाक का सबसे बड़ा कारण बनता है | तलाक़शुदा स्त्री-पुरुष को समाज में आज भी उपेक्षित नजरों से देखा जाता है ,और तलाक के बाद कोई जरूरी नहीं कि दुबारा सब अच्छा ही हो | पीहर में ऐसी स्थिति हो जाती है की "धोबी का गधा घर का न घाट का" कई बार तो स्थिति पहले से भी बदतर हो जाती है ,,ऐसे में बेहतर तरीका तो यही है कि थोड़ा सा संयम और धैर्य से वैवाहिक जीवन बचाया जाए ताकि एक स्वस्थ समाज व स्वस्थ परिवार की रचना हो | आज के तेजी से बदलते परिवेश में करीब-करीब रोज ही अनगिनत शादियाँ तलाक की बलि चढ़ रही हैं ,इसका सबसे बड़ा कारण रिश्तों में धैर्य एवं सहनशीलता का अभाव है | तलाक लेना मानसिक व सामाजिक पीड़ा के साथ-साथ खर्चीला भी है और तलाक की प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि उसके बाद जीवन जीने का उत्साह ही क्षीण हो जाता है | पर विडंबना यह है कि इतनी सारी दिक्कतों के बाद भी आज हमारे समाज में तलाक के केस सबसे ज्यादा हो रहे हैं !
उत्तम जैन (विद्रोही )
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गुरुपूर्णिमा व् गुरु का चयन





   

     गुरुपूर्णिमा व् गुरु का चयन

माता पिता की सेवा करना सन्तान का धर्म है। उसकी महिमा शास्त्रों में विस्तार पूर्वक कही गई है पर गुरु की महत्ता उनसे भी बड़ी है क्योंकि माता पिता केवल शरीर को जन्म देते, शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं पर गुरु द्वारा आत्मा का विकास, कल्याण एवं बन्धन मुक्ति का जो महान कार्य सम्पन्न किया जाता है, उसकी महत्ता शरीर पोषण की अपेक्षा असंख्यों गुनी अधिक है !लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवश्यकता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। फिर भी गुरु द्वारा प्रदत ज्ञान भी अपेक्षित है ! आज गुरुपूर्णिमा का पावन पर्व हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। हमारे अध्यात्म दर्शन में गुरु का बहुत महत्व है! गुरुजनों की सेवा को धर्म का एक भाग माना गया है। शायद यही कारण है कि भारतीय जनमानस में गुरु भक्ति का भाव की इतने गहरे में पैठ है कि हर कोई अपने गुरु को भगवान के तुल्य मानता है। हम ढोंगियों और लालची गुरु को स्वीकार न करें तथा किसी को गुरु बनाने से पहले उसकी पहचान कर लेना चाहिए। भारतीय जनमानस की भलमानस का लाभ उठाकर हमेशा ही ऐसे ढोंगियों ने अपने घर भरे हैं जो ज्ञान से अधिक चमत्कारों के सहारे लोगों को मूर्ख बनाते हैं। ऐसे अनेक कथित गुरु आज अधिक सक्रिय हैं जो नाम से तो बहुत बड़े होते है मगर ज्ञान के बारे में पैदल होते हैं। ऐसा सदियों से हो रहा है यही कारण है कि किसी संत ने बरसों पहले कहा था ---
‘‘गुरु लोभी शिष लालची दोनों खेलें दांव।
दोनों बूड़े बापुरै, चढ़ि पाथर की नांव।।
गुरु और शिष्य लालच में आकर दांव खेलते हैं और पत्थर की नाव पर चढ़कर पानी में डूब जाते हैं। संत को हमारे अध्यात्म दर्शन का एक स्तंभ माना जाता है आजकल के गुरु निरंकार की उपासना करने का ज्ञान देने की बजाय पत्थरों की अपनी ही प्रतिमाऐं बनवाकर अपने शिष्यों से पुजवाते हैं। देखा जाये तो हमारे यहां समाधियां पूजने की कभी परंपरा नहीं रही पर गुरु परंपरा को पोषक लोग अपने ही गुरु के स्वर्गवास के बाद उनकी गद्दी पर बैठते हैं और फिर दिवंगत आत्मा के सम्मान में समाधि बनाकर अपने आश्रमों में शिष्यों के आने का क्रम बनाये रखने के लिये करते हैं। आजकल तत्वज्ञान से परिपूर्ण तो शायद ही कोई गुरु दिखता है। अगर ऐसा होता तो वह फाईव स्टार आश्रम नहीं बनवाते।
‘जा गुरु से भ्रम न मिटै, भ्रान्ति न जिवकी जाय।
सौ गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय।।’’
जिस गुरु की शरण में जाकर भ्रम न मिटै तथा मनुष्य को लगे कि उसकी भ्रांतियां अभी भी बनी हुई है तब उसे यह समझ लेना चाहिए कि उसका गुरु झूठा है और उसका त्याग कर देना चाहिए। दरअसल गुरु की जरूरत ज्ञान के लिये ही है पर भक्ति के लिये केवल स्वयं के संकल्प की आवश्यकता पड़ती है। भक्ति करने पर स्वतः ज्ञान आ जाता है। ऐसे में जिनको ज्ञान पाने की ललक है गुरु का चुनाव अच्छी तरह परख कर करे ! तभी आप हम व् सभी देशवासियों के लिए गुरुपूर्णिमा मनाना सार्थक होगा !
उत्तम जैन (विद्रोही )
uttamvidrohi@gmail.com
mo-8460783401

रविवार, 17 जुलाई 2016

बुढ़ापा क्यू है बेसहारा -


                                  -बुढ़ापा क्यू है बेसहारा -
आजकल सीनियर सिटिजंस को मुख्यत: 3 तरह की समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं। एक कोशिश बुढ़ापे को करीब से जानने की बुढ़ापे का एक सच यह है कि उस व्यक्ति ने जो सीखा हुआ है उसे वह भूल नहीं सकता और नई चीजें वह सीख नहीं सकता। यानी उसे पिछले सीखे हुए से ही काम चलाना पड़ता है। सीनियर सिटिजंस की मौजूदा हालत के लिए अगर कोई एक बात जिम्मेदार है, तो वह है इस देश का इतिहास। हमारे देश का जन्म ही कुछ इस तरह हुआ कि इसकी कई समस्याओं का कोई समाधान नहीं दिखता। यहां कभी मनुष्य के जीवन को महत्व नहीं दिया गया ! वृद्धावस्था उस अवस्था को कहा गया है जिस उम्र में मानव-जीवन काल के समीप हो जाता है। वृद्ध लोगों को विविध प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोग लगने की अधिक सम्भावना होती है। उनकी समस्याएँ भी अलग होती हैं। वृद्धावस्था एक धीरे-धीरे आने वाली अवस्था है जो कि स्वभाविक व प्राकृतिक घटना है।मैं मानता हूं कि नई पीढ़ी का जीवन बहुत फास्ट हो गया है, लेकिन बावजूद इसके वे अपने पसंदीदा काम के लिए टाइम तो निकाल ही लेते हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि वे समय की कमी के कारण सीनियर सिटिजंस की देखभाल नहीं कर पाते। दरअसल नई पीढ़ी आत्मग्रस्त होती जा रही है। बसों में वे सीनियर सिटिजंस को जगह नहीं देते। बुजुर्ग अकेलापन झेल रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ी उन्हें लेकर बहुत उदासीन हो रही है , मगर हमें भी अब इन्हीं सबके बीच जीने की आदत पड़ गई है। सीनियर सिटिजंस की तकलीफ की एक बड़ी वजह युवाओं का उनके प्रति कठोर बर्ताव है। लाइफ बहुत ज्यादा फास्ट हो गई है। इतनी फास्ट की सीनियर सिटिजंस के लिए उसके साथ चलना असंभव हो गया है। एक दूसरी परेशानी यह है कि युवा पीढ़ी सीनियर सिटिजंस की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं- घर में भी और बाहर भी। दादा-दादियों को भी वे नहीं पूछते, उनकी देखभाल करना तो बहुत दूर की बात है। जिंदगी की ढलती साँझ में थकती काया और कम होती क्षमताओं के बीच हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का सबसे बड़ा रोग असुरक्षा के अलावा अकेलेपन की भावना है वृद्ध का शाब्दिक अर्थ है बढ़ा हुआ, पका हुआ, परिपक्व। वर्तमान सामाजिक जीवन-शैली में वृद्धों के कष्टों को देखकर मन में हमेशा ही अनिर्णय भरा प्रश्न बना रहता है कि बुढापा एक अभिशाप है या वरदान? हमारी संस्कृति और आदर्शों के आधार पर आज की सभ्यताओं को ध्यान में रखकर देखा जाय तो आयास ऐसा लगता है कि खैर, जो भी हो, वह तो ईश्वर का अवदान है। बुढ़ापा जब दस्तखत देता है, तब यौवन का उन्माद मद्धिम पड़ जाता है। शेर भी खरगोश बन जाता है। जीवन के राग-रंग, आकर्षण-विकर्षण के साथ ही जीने का उद्देश्य ही बदल जाता है। बुढ़ापें में बिस्तर पर लटेते ही नींद आ जाती है। करवट बदलते ही टूट जाती है।सौभाग्य से मुझे वृद्धों का सानिध्य मिला है। साथ-ही-साथ जीवन के कटू सत्यता को भी उनसे सुना है। मैंने पाया है कि बुढ़ापे में हमारे ये आदरणीय जन एक पावन ज्ञान-स्रोत हो जाते हैं। अनुभव की किताब को पढ़ चुकने वाले हमारे बुजुर्गों का मन बीते हुए यादों में गोता लगाता रहता है। वे कभी जीवन से उबे हुए लगते हैं तो कभी आसक्ति में डूबे हुए लगते हैं। कभी वैराग्य का मूर्त रूप नज़र आते हैं तो कभी तो उनके लिए आगे का रास्ता ही नहीं दिखता है। कभी उनके लिए अकूत अर्थ का कोई अर्थ नहीं होता तो कभी वे व्यर्थ में हताश से लगते हैं। लगता है कि उन्होंने जीने का सामर्थ्य ही खो दिया है। हमारे समाज में अनेक उदाहरण मिल जाते हैं, जिससे कि पता चलता है कि अगर ये बूढ़े नहीं होते तो हमारा जीवन और कितना बोझिल हो जाता। हमारा समाज अपने वृद्धों को भले ही बोझ समझता है, उनके सानिध्य को डरावना अनुभव करता है लेकिन हम उनकी कुर्बानियों को कैसे भूल जाते हैं? वे तो अपने उम्र के पड़ाव में अपनी ही औलाद की सेवा-भाव को एक अनुकंपा समझते हैं। बुढ़ापे में लगी चोट तो बड़ी ही घातक होती है। उनकी संतानें जब उन्हें भूल जाती हैं तो जाने-पहचाने चेहरे भी अजनबी से नज़र आने लगते हैं। जब वृद्धों की इंद्रियाँ भी साथ छोड़ देती हैं तब वे चारों ओर से असहाय अनुभव करने लगते हैं। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति तो हमेशा यह स्मृति रखना चाहिए कि यह कहानी हर एक के जिंदगी मे दोहरायी जाती है। जानते सब हैं, परन्तु मानता कोई नहीं। सभी को चिर यौवन चाहिए। हम सभी को उम्र के उस पड़ाव से गुजरना है, लेकिन सभी उस उम्र के मुसाफिरों के दूर रहना चाहते हैं। हम सभी को समझना चाहिए कि बुढ़ापा अभिशाप या वरदान नहीं है, यह तो उम्र की छेड़खानी है। ईश्वर का अवदान है। किसी कवि की कुछ लिखी पंक्तियाँ –
जि़न्दगी एक कहानी समझ लिजिए।
दर्द की लन्तरानी समझ लिजिए।
चेहरे पर खींचे ये आक्षांश-देशान्तर
हाय रे विडम्बना! नगरों, महानगरों में ही नहीं, गाँवों-देहातों में भी लोगों मेला-बाजार में भी वृद्धों के साथ नहीं जाना चाहते। पार्टियों के उमंग, पर्यटन के उल्लास या पिकनिक के जोश में वृद्धों को अचानक सामने आ गये खतरनाक मोड़ का ब्रेकर समझ कर घर पर ही छोड़ दिया जाता है। ऐसे में घर की देखभाल और दो जून की रोटी तक सीमित बच्चों को पारिवारिक सहयोग मिलना चाहिए। उन्हें आध्यात्मिकता की ओर जबरन जाने के लिए नहीं बाध्य करना चाहिये। जिनके लिए उनकी संतति ही भागवान है, उनका मन किस भगवान में रमेगा भला? ऐसे में घर के प्रत्येक सदस्य को चाहिये की वृद्धों को संवेदनाओं से जोड़े रखा जाए। उनके रोटी, कपड़ा, मकान और स्वास्थ्य का निरन्तर देखभाल करना चाहिए। स्वास्थ्य एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों में उनकी सहभागिता लेनी चाहिए। वृद्ध अनुभव के अथाह समुद्र होते हैं। 1990-92 के दौर में ही संयुक्त राष्ट्र महासभा में वृद्धों के पक्ष में अनेक सिद्धान्तों को पारित किया जा चुका है, परन्तु समस्या गहराती ही जा रही है।उपेक्षित, बहिस्कृत तथा कटूक्तियों से बिध-बिध कर जीने को विवश होते हैं। वैसे देखा जाए तो वृद्धों को लेकर ये समस्याएँ अचानक नहीं हुई हैं, यह सब तो आधुनिक उपभोक्ता वाद तथा सामाजिक क्षरण का परिणाम है। नई पीढ़ी की परिवर्तित सोच का परिणाम है। सामाजिक स्थिति के दौड़ का परिणाम है। भौतिक सम्पदाओं के भूख का परिणाम है। पारिवारिक संकीर्णता का परिणाम है। व्यक्तिगत जीवन-शैली का परिणाम है। सामाजिक विघटन का परिणाम है। आज का अधिकांश युवा-वर्ग यह भ्रम पाल लेता है कि संयुक्त परिवार व्यक्तिगत उत्थान में बाधक है। पारिवारिक रिश्तों में रहने पर व्यावसायिक वृद्धि नहीं हो सकती। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वहित से प्रभावित होकर मानवीय संवेदना को लकवा मार गया है। दिन-पर-दिन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। रिश्ते-नाते उपेक्षित अस्पताल में पड़ा अपनी अंतिम साँसें गिनता कोई असाध्य रोगी हो गया है। हमारा पालन-पोषण करने वाला वृद्ध दुख भोगकर जीवन जीने को बाध्य हो जाता है। हमें किसी भी परिस्थिति में निरन्तर यह प्रयास करना चाहिए कि किसी को भी वृद्धावस्था में सामाजिक उपेक्षा का दर्द नहीं अनुभव करना पड़े। वृद्ध तो अपने चिड़चिड़े जीवन को जीने के लिए विवश हैं। कुछ भी हो, हमें उनका आदर करना चाहिए। वृद्धाश्रम इसका कभी हल नहीं है। वृद्धाश्रम भले ही सेवा भाव से प्रारंभ किये जाते हैं, लेकिन उनका वर्तमान स्वरूप अर्थ-भाव हो गया है। वृद्धाश्रम आज मात्र पैसे वालों के लिए ही मृत्यु का प्रतीक्षालय बना हुआ है। धिक्कार है उस मानवता को जो वृद्धों का तिरस्कार करता है। पशु से भी गिरा है वह व्यक्ति जो अपने घर के वृद्धों को कभी बधुआ मजदूर तो कभी बोझ समझता है। यदि परिवार के वृद्ध कष्टपूर्वक एवं रुग्णावस्था में जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो धिक्कार है उस घर को। उस मानवता को और सामाजिक सोच को। आज के युवक भले ही नित-नूतन लक्ष्य को पाने में लगे हैं, लेकिन जीवन के अंतिम पड़ाव पर पड़े वृद्धों की सेवा करना भी युवाओं का ही पुनीत कर्त्तव्य है। वृद्धों का सानिध्य किसी अछूत बीमारी का आमंत्रण नहीं, आंतरिक शुचिता का अनुष्ठान है। वृद्धजन अपने अनुभव से हमारे साहस और संघर्ष के साथ ही हमारे पुरुषार्थ को बढ़ाते हैं। जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का दर्पण दिखाकर हम पर ज्ञान की वर्षा करते हैं। हम में विनम्रता को बीज बोकर यश से सम्मान योग्य बनाते हैं। नित्य बड़ों की सेवा और प्रणाम करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल में निरंतर वृद्धि होती है।हमें अपने घर के वृद्धों के लिए प्रयास करना चाहिये कि वे दुखी न रहें। उन्हें जो सुख देना है, इस जीवन में देने का प्रयास करना चाहिए। घर में प्रवेश करते ही एक क्षण उनके पास बैठकर उनका हाल पूछ लेना करैले के स्वाद से नहीं भरेगा, मधु का अनुभव देगा। उठते समय उनके हाथ में डंडा पकड़ा देना हमेशा ही आशीष का काम करेगा। चश्मा टटोलते हाथों को जब हम सहारा देकर वॉशरूम ले जायेंगे तो उन्हें अपने अंधे होने का कष्ट ही नहीं रहेगा। तब किसी के लिए भी वृद्धावस्था बोझ नहीं, वरदान बन जायेगा। तब वृद्धों को तो आन्तरिक आह्लाद होगा ही, हमारा मन भी अनेक तनावों से मुक्त हो जायेगा। हम स्वयं को सबल अनुभव करेंगे और वृद्धों के उस अव्यक्त आशीष के दम पर जीवन की किसी भी परिस्थिति से दो हाथ करने को तैयार रहेंगे।
उत्तम जैन (विद्रोही )
uttamvidrohi121@gmail.com
mo-8460783401

शनिवार, 16 जुलाई 2016

सामाजिक जीवन और बदलती पारिवारिक संरचना व संस्कार

सामाजिक जीवन और बदलती पारिवारिक संरचना व संस्कार

मनुष्य जीवन ईश्वर का दिया एक अनमोल उपहार है। इसे व्यर्थ न जाने देने की हमेशा नसीहतें दी जाती हैं। अफसोस आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में मनुष्य के लिए नसीहतों का कोई मूल्य नहीं रहा। अर्थ प्रधान युग में जीवन पर अर्थ इस कदर हावी हो गया है कि एक पढ़ा-लिखा, शिक्षित-समझदार, स्वावलम्बी हर तरह की सुविधाओं से पूर्ण होने के बाद भी संस्कारो से परिपूर्ण नही है ! आज इंसान की तुलना गेंडे से करूंगा । जिस तरह गेंडे की मोटी खाल पर किसी तरह का प्रभाव नहीं होता है, वो दलदल में पड़ा रहता है। उसी तरह इंसान को भी स्वार्थ के दलदल में रहने की आदत सी पड़ गयी है ! आज संतान संस्कारहिन हो गयी है !बुजुर्ग आज उस परिस्थिति मे आ गए है न जी सकते न मर सकते ! बुजुर्गो की जिंदगी को कठिन बना दिया है। जिन मां-बाप ने संतान को कभी जीवन मेंअंगुली पकड़कर चलना सिखाया हो,आखिर क्या कारण हैं कि जब उन्हें सहारेकी जरूरत होती हैउनके पास कोई नहीं होता है?जिसकी हर मांग को मां-बाप ने अपनी जरूरतों में कमी कर पूरा किया आखिर वे बुढ़ापे में क्यों बेगाने हो जाते हैं? सामाजिक मूल्यों में दिनोंदिन आ रहे इन बदलावों के पीछे क्या हैं कारण, जानिए स्पॉट लाइट में...भारत में बुजुर्गो के सम्मानकी परंपरा रही है ! और हम हमेशा इसी बात पर नाज करते रहे हैं कि हमारे यहां नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की उपेक्षा नहीं करती बल्कि उन्हें पूरा सम्मान देती है! और उनके अनुभवों की कद्र करती है। लेकिन बढते औद्योगिकरण, उदार अर्थव्यवस्था और पश्चिमी सभ्यता ने कुछ हद तक हमारी संस्कृति में सेंध लगा दी है। आज जिंदगी इतनी तेज हो गई है कि इस भाग-दौड़ में क्या पीछे छूट रहा है,किसी को चिंता नहीं है।कभी समाज की एकता का प्रतीक कहे जाने वाले संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। अब तो एकल परिवार भी नहीं बचा है। इस स्पर्घा के दौर में बस तरक्की चाहिए, भले ही इसके लिए रिश्ते तोड़ने पडे।आप जब दोहरा जीवन जीते हैं तो परम्पराएं तो टूटेंगी। हमारे बुजुर्ग अपनी समझबूझ और तजुर्बो से हमारे जीवन को एक सार्थक दिशा देने का माद्दा रखते हैं, परंतु आज व्यक्ति अपने में इतना खो गया है कि उसे अपने बुजुगों से मार्ग दर्शन प्राप्त करने का समय ही नहीं है।वृद्धाश्रमों में बढ़ती गई संख्या दुनिया के किसी भी देश,भाषा, संस्कृति में भारत को छोड़कर बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए बड़े-बुजुर्गो द्वारा "जुगजुग जीयो"का आशीर्वाद नहीं दिया जाता है। केवल भारत ही एक ऎसा देश है जहां यह शब्द इस्तेमाल किया जाता है। अब आप समझ सकते हैं कि हमारे यहां बुजुर्गो और बच्चों के बीच का रिश्ता कितना समृद्ध रहा है। लेकिन आज परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। बेटा चारदिवारी के अंदर अपने मां-बाप से बात नहीं करता है लेकिन समाज के सामने यह दिखाता है कि वह सबसे आज्ञाकारी पुत्र है। यह हमारे दोहरे जीवन का सही उदाहरण है। हम घर के बाहर पड़ोसी के सामने झुककर नमस्कार तो करते हैं लेकिन अपने मां-बाप की इज्जत नहीं करते हैं। लोगों के व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार अलग-अलग हो गए हैं। वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस बात का साफ सबूत है कि वृद्धों को उपेक्षित किया जा रहा है। हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजरअंदाज किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे जो इनके पास है। भारत को अभी इसकी आदत नहीं आज दुनिया के सबसे युवा देश में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगो की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वर्ष 2026 तक देश में बुजुर्गो की आबादी 17 करोड़ से भी ज्यादा होने का अनुमान है। वर्तमान में भारत की लगभग 10 प्रतिशत आबादी बुजुर्गो की है। सात साल बाद भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे ज्यादा बुजुर्गो की आबादी वाला देश हो जाएगा। भारत में रोजाना लगभग 17 हजार लोग 60 साल के हो जाते हैं। हमारे देश में ऎसी स्थिति पहले नहीं थी। इसने पिछले कुछ सालों में तेजी पकड़ी है। लिहाजा, भारत ऎसी स्थिति से पहले रूबरू नहीं हुआ था। पश्चिमी देशों में तो बजुर्गो की संख्या पहले से ही ज्यादा रही है, इसलिए वहां के लोगों को इनकी आदत है। अब भारत के सामने जब ऎसी स्थिति आई है! तो लोगों को पहली या दूसरी पीढ़ी के बाद इसकी आदत पड़ जाएगी। खुद पहल करनी होगी आज भारतीय संस्कारों के नाम पर हम दोहरा जीवन जी रहे हैं। दोहरे मापदंड बन गए हैं। विदेशों में तो संस्कार की बात ही नहीं होती है। वहां तो अधिकांश लोग  को पहले से ही मालूम होता है कि उन्हें रिटायर होने के बाद अकेला रहना है। यह बदलाव का दौर है।समाज आज जिस तेजी से बदल रहा है, ऎसे में संस्कारों में परिवर्तन तो दिखेगा ही। बदलती शिक्षा प्रणाली ने भी काफी असर डाला है। पहले हम बचपन में गाय पर निबंध लिखते थे। नैतिक शिक्षा की पढ़ाई पर ज्यादा जोर होता था। बड़ों और बुजुर्गो की इज्जत करना सिखाया जाता था। लेकिन आजकाफी बदलाव देखने को मिल रहा है। किसी भी कोर्स में यह नहीं कहा जाता है कि आप बुजुर्गो के महत्व के बारे में लिखें। ऎसे में आज जरूरत है कि हम स्वयं इसका पहल करते हुए बच्चे को इन सब के बारे में बताएं। वैसे भी बच्चे को सबसे पहला ज्ञान परिवार से ही मिलता है। अगर हम अभी भी नहीं संभले तो आने वाला समय बहुत ही दुखदायी होगा। बाजारवाद ने परिवार को बिखेरा, संस्कार छूट गए है ! भारतीय समाज की व्यवस्था का आधार है परिवार और परिवार का केंद्र है, उस घर की मां। समाज की व्यवस्था परिवार पर आधारित होती है और उस परिवार में बचपन से सांस्कृतिक आदर, संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था पहले पांच साल मां के जिम्मे होती है, पांच से आठ की आयु तक पिता शिक्षक होता है, आठ वर्ष के बाद गुरू ही शिक्षक होता है। शुरू से ही.......
मातृ देवोभव:, पितृ देवो भव:,आचार्य देवो भव: और अतिथि देवो भव: के संस्कार पहले मां द्वारा ही दिए जाते हैं। इस दौर में बाजारवादी अर्थनीति के कारण परिवार नामक संस्था को बड़ा झटका लगा है। घर में मातृ शक्ति की अवमानना हुई तो संस्कार ढीले पड़ते चले गए। बाजारवाद के कारण अब उपयोगिता महत्वपूर्णहो गई है और उपयोगिता में आर्थिक पक्ष ही मजबूत हुआ है। इसके कारण माता-पिता का अवमूल्यन हुआ और उन्हें बोझ समझा जाने लगा। संस्कारों के अभाव में माता-पिता का घर में जो आदरयुक्त स्थान होता था, वह नहीं रहा। जिसके चलते बाल संस्कार में भारी कमी आ गई है। संस्कारहीनता की वजह से उम्रदराज लोगों की घर में ही इज्जत कम हो गई। अब अपनाम और अवहेलना के कारण वृद्धाआश्रमो की पूछ बढ़ गई है। जैसे गाय का स्वाभाविक घर किसान का घर होता है, वैसे ही वृद्धों का स्वाभाविक स्थान पौत्र-पौत्रियों के बीच घर में होता है। अब संस्कार हीनता के कारण गाय गौशाला की ओर भेजी जाने लगी है ! और उपयोगिता न रहने पर वृद्ध पिता वृदाआश्रम भेजे जाने लगे हैं। ये समाज की कमजोरी का लक्षण है। इसलिए समाज की स्वाभाविक स्थिति प्राप्त करने के लिए नई पीढ़ी में उचित संस्कार लाकर घर का वातावरण और शिक्षा के लिए स्कूल का वातावरण सुधारना दोनों निर्णायक रूप से महत्वूपर्ण हैं। विकास की भागदौड़, अमीर और बड़ा बनने की चाह सरासर नासमझी है। ऎसा व्यक्ति जब उम्र की ढलान पर क्या खोया और क्या पाया का हिसाब लगाता है तो उसे घाटा ही घाटा दिखाई पड़ता है। बुढ़ापे में वह अकेलापन पालता है, उम्र उसे खलने लगती है। एक तरफ तो औसत उम्र में इजाफा हुआ है लेकिन दूसरी ओर बढ़ी हुई उम्र बोझ महसूस होने लगी है। इसलिए संयुक्त परिवार की व्यवस्था पर बल देना और गृहणी का सम्मान होना और बाल संगोपन को महत्वपूर्ण माना जाना, ये सब समाज के वातावरण को फिर से ठीक करने के लिए आवश्यक तत्व हैं। वृद्धों का अपमान, संस्कारहीनता और भटकती युवा पीढ़ी की समस्या का यही समाधान है। तरक्की की चाह ने अपनों को छुड़ाया डॉ. गिरधर प्रसाद भगत, समाजसेवी आधुनिकता के इस दौर में बुजुर्गाें की अनदेखी के लिए काफी हद तक वे स्वयं जिम्मेदार हैं। उन्होंने अपने बच्चों को विद्वान और धनवान तो बना दिया लेकिन एक अच्छा इंसान नहीं बना सके। आज सभी को सफलता चाहिए चाहे वह किसी भी कीमत पर हो। नई पीढ़ी को यह नहीं मालूम कि सबसे बड़ी सफलता तो मां-बाप की सेवा करना है। इसमें उसका भी दोष नहीं है। जब हमने उसे ऎसा सिखाया ही नहीं तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं। आज आपको ऎसी भी संतानें मिल जाएंगी जो माता-पिता के वृद्ध होते ही उन्हें या तो सड़कों पर छोड़ देते हैं या फिर वृद्धाश्रम में अकेले रहने को मजबूर कर देते हैं। आप कभी अपने शहर के वृद्धाश्रम में जाकर देखे कितने बुजुर्ग हैं और अधिकतर आपको लावारिस रूप में बुजुर्ग मिल ही जाएंगे ! इनमें से अधिकांश तो अपना खुद का ख्याल नहीं रख सकते हैं। यह प्रवृत्ति पिछले दस सालों में ज्यादा बढ़ी है। संयुक्त परिवार हाशिए पर चले गए हैं। आज ग्लोबलॉइजेशन और औद्योगिकरण का युग है। इसने शिक्षा पर सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है। नैतिक शिक्षा की पढ़ाई से बच्चे दूर गए जिसका असर उनके संस्कारों पर पड़ा है। हिन्दी मीडियमहो या अंग्रेजी,सभी में नैतिकशिक्षा की पढ़ाई एक तरह से खत्म हो गई है। अब जब हम बच्चों को यह सीखाएंगे !ही नहीं कि बड़ों का सम्मान किया जाता है तो हम उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे बड़े होकर बुजुर्गो का सम्मान करें। सरकार को भी बुजुर्गो की दशा पर ध्यान देने की जरूरत है। केवल समारोह और गोष्ठियां व मन की बात व सेल्फी , विदेशी दोरे व स्थिति नहीं बदलने वाली है। व हर परिवार को अपने माता पिता की देखभाल का दायित्व हर संतान को समझने की आवश्यकता है ताकि भारत अपने जिन मूल्यों के लिए पूरे विश्व में पहचाना जाता है वे कहीं अतीत की बात बनकर न रह जाएं।
उत्तम जैन (विद्रोही )
uttamvidrohi121@gmail.com
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कौन महत्वपूर्ण भगवान या रिश्ता

 
कौन महत्वपूर्ण भगवान या रिश्ता
आज एक नई उलझन आ गयी की हम किसे महत्वपूर्ण माने, एक तरफ हमारा परिवार, हमारे रिश्ते खड़े हैं, और दूसरी और भगवान । दोनों एक ही पल मे निर्णय चाहते हैं की या तो मेरे हो जाओ या उनके ?उलझन बढ़ सी गयी हैं आइये मेरे दिमाग की इस उलझन को सुलझाते हैं । कुछ दिन पूर्व की बात है मेरे एक मित्र हैं, जो बहुत धार्मिक हैं, रोज नियम से 2 घण्टे जैन मन्दिर जाते है नियमित पुजा पाठ का अटूट क्रम है !आजतक उनका मन्दिर का रूटीन आंधी, तूफ़ान,बड़ी से बड़ी परिस्थितियों मे भी नही टुटा । एक दिन अचानक जब वो मन्दिर जा रहे थे की उनके पिताजी को दिल का दर्द उठा , उनके पिताजी ने कहा बेटा मुझे अस्पताल ले चल, उसने कहा पहले मै मन्दिर होकर आता हूँ फिर अस्पताल चलते हैं, और वो मन्दिर चला गया, जब आया तो पिताजी ह्रदयाघात से चल बसे थे ! अब मेरे मानस पटल पर एक प्रश्न ये उठता हैं की एक और आप की मंदिर मे पुजा , दूसरी और आप अपने पिताजी को दर्द मै छोड़कर भगवान के मन्दिर जा रहे हो,एक भगवान जो पिता के कहने मात्र पर 14 वर्ष का वनवास भोग लेते हैं,एक आप जो अस्पताल तक नही ले जा पा रहे हो । दोस्तों, सत्य और कड़वी बात ये हैं की जो इंसान अपनों का नही हो सकता ,वो कभी भगवान का नही हो सकेगा । जब आप अपनों को ठुकराते हो, समझ लो की ईश्वर ने आपको अपनी शरण से दूर कर दिया । जब हम बढ़े हो जाते हैं ,तो माँ बाप,भाई,बहिन, आदि रिश्तों को छोड़कर चले जाते हैं । जो कल तक हमारा हाथ पकड़कर चल रहे थे, आज हम उन्हें बीच मंझधार मे छोड़ देते हैं ।कितनी शर्मनाक बात हैं । क्या अब भी आप सोच रहे हैं की भगवान आपको अपना आशीर्वाद देगा । दोस्तों, ये सबसे बुरा पल होता हैं, जब आप जीते जी माँ बाप की सेवा नही करते और मरने के बाद उनकी याद मे मन्दिर, अस्पताल,आदि बना देते हैं । कुछ नही होने वाला आपका। यदि आप मन्दिर नही जाते, कोई बात नही, भगवान को नही पूजते,कोई बात नही, पर यदि आपके रिश्तों को आपने ईमानदारी से निभा लिया,समझ लीजिये की ईश्वर आपको खुद आशीर्वाद देने जमीन पर आ जायेगे। यंहा रिश्तों से मतलब माँ बाप तक ही सिमित नही हैं, हर रिश्ता एक महत्व रखता हैं, पति पत्नी का रिश्ता भी उतना ही महत्वपूर्ण हैं । इस रिश्ते मे भी जब हम दुःख, तकलीफ देते हैं, हमसे धीरे धीरे सारे सुख दूर होते जाते हैं ।यदि जीवन मे सुख की कल्पना करना हो तो पति पत्नी के रिश्ते मे सम्मान, प्यार, आत्मीयता ,अपनापन,हो । यकीन मानो की जिंदगी मे बदलाव आ जायगा । दोस्तों, आज के विषय पर मेरा कहने का अभिप्राय यही हैं की हमारे लिये ईश्वर की सत्ता, महत्वपूर्ण हैं।लेकिन यदि ईश्वर का आशीर्वाद चाहिये तो ईश्वर के दिये और बनाये रिश्तों का सम्मान कीजिये, आदर कीजिये,महत्व दीजिये ।यकीन मानो आपको किसी पूजा, हवन,दान,पूण्य,कुंडली आदि दिखाने की कोई आवश्यकता नही पढ़ेगी ।ये एक बड़ा प्रश्न है जिसका उत्तर हम सिर्फ अपनी अंतरात्मा में झांककर ही देख सकते हैं. आज कितने ही परिवार ऐसे होंगे जिन में पिता-पुत्र के बीच किसी न किसी बात को लेकर विवाद चल रहा होगा. कई पिता ऐसे होंगे जो अपने बेटे से प्रताड़ित हो रहे होंगे और कई ऐसे होंगे जो बीती रात को भूखे पेट सोये होंगे. उनके लिए पिता व परिवार महत्ता नही रखता है,मगर मंदिर सफ़ेद वस्त्र पहनकर जाएंगे ! मन भले काला कलूटा , ईर्ष्या , क्लेश से भरा हो ! शायद इसका अंदाज़ा हम और आप नहीं लगा सकते. पत्र-पत्रिकाओं में आये दिन प्रकाशित हो रही दिल दहला देने वाली ख़बरें- 'पुत्र ने पिता को पीटा', 'संपत्ति के लालच में पिता की हत्या', या 'बेटों ने माँ बाप को घर से निकाला' , पत्नी को पति ने प्रताड़ित किया आदि हम लोग पढ़ते हैं, जाहिर है कि ये बातें उनके जेहन को झकझोरने के लिए मजबूर भी करती होंगी, लेकिन उसके बावजूद भी वे अपने आप को बदलना नहीं चाहते.! मंदिर व भगवान को पूजने से पहले आपके रिश्तों को आपने ईमानदारी से निभा लिया,समझ लीजिये की ईश्वर आपको खुद आशीर्वाद देने जमीन पर आ जायेगे। ये मेरे विचार हैं, हो सकता हैं की आप इससे सहमत नही हो। पर इस विषय पर आपकी राय और प्रतिक्रिया की आवश्यकता जरूरी है !
उत्तम जैन (विद्रोही )
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mo-8460783401

बुधवार, 13 जुलाई 2016

सकारात्मक सोच

     
                                                           
                   सकारात्मक सोच 
सफल स्वस्थ और सुधुर जीवन का पहला और आखिरी मंत्र है: सकारात्मक सोच। यह अकेला ऐसा मंत्र है, जिससे न केवल व्यक्ति और समाज की, वरन् समग्र विश्व की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। यह सर्व कल्याणकारी मंत्र है। मेरी शान्ति, सन्तुष्टि, तृप्ति और प्रगति का अगर कोई प्रथम पहलू है, तो वह सकारात्मक सोच ही है। सकारात्मक सोच ही मनुष्य का पहला धर्म है और यही उसकी आराधना का बीज मंत्र है।सकारात्मक सोच का स्वामी सदा धार्मिक ही होता है। सकारात्मकता से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और नकारात्मकता से बढ़कर कोई पाप नहीं।, सकारात्मकता से बढ़कर कोई धर्म नहीं और नकारात्मकता से बढ़कर कोई अधर्म नहीं। कोई अगर पूछे कि मानसिक शान्ति और तनाव मुक्ति की दवा क्या है, तो सीधा सा जवाब होगा – सकारात्मक सोच। अनगिनत लोगों पर इस मंत्र का उपयोग किया गया है और आज तक यह मंत्र कभी निष्फल नहीं हुआ है। सकारात्मक सोच का अभाव ही मनुष्य की निष्फलता का मूल कारण है।इंसान वैसा ही बनता जाता है जैसी वह सोच रखता है। यह कथन छोटे या बड़े हर व्यक्ति पर लागू होता है। आप जिंदगी में सफल तभी हो सकते हैं जब आप सफलता हासिल करने के प्रति अपनी सोच को सकारात्मक रखेंगे। अगर अपनी खामियां ढूंढ-ढूंढकर खुद को कमतर ही आंकते रहेंगे तो कभी सफलता की ओर कदम नहीं बढ़ा सकेंगे। जीवन से जुड़ी अपेक्षाएं पूरी न होने पर निराशा स्वाभाविक है लेकिन अगर आप उस निराशा के अंधेरे में ही डूबे रहेंगे तो आशा की दूसरी किरणों को पहचान भी नहीं पाएंगे। कुछ लोग जीवन के सकारात्मक पहलुओं को ढूंढ-ढूंढकर अपनी जिंदगी में उत्साह बरकरार रखते हैं और कुछ लोग नकारात्मकता से इस कदर घिर जाते हैं कि कोई गलत कदम उठाने से भी नहीं चूकते। जिस दिन आप नकारात्मक चीजों में भी सकारात्मक पक्ष तलाशना सीख जाएंगे उस दिन कोई भी मुश्किल आपका मनोबल गिराने में सफल नहीं हो पाएगी।
रास्ता खुद से बनाना चाहिए,
लक्ष्य पर नज़रें जमाना चाहिए,
है सदा संघर्ष जीवन में मगर,
मुश्किलों में मुस्कुराना चाहिए!!
आप सब ने नकारात्मक और सकारात्मक सोच के बारे में न केवल ढेर सारे लेख ही पढ़े होंगे, बल्कि जीवन-प्रबंधन से जुड़ी छोटी-मोटी और मोटी-मोटी किताबें भी पढ़ी होंगी। जब आप इन्हें पढ़ते हैं, तो तात्कालिक रूप से आपको सारी बातें बहुत सही और प्रभावशाली मालूम पड़ती हैं और यह सच भी है। लेकिन कुछ ही समय बाद धीरे-धीरे वे बातें दिमाग से खारिज होने लगती हैं और हमारा व्यवहार पहले की तरह ही हो जाता है। इसका मतलब यह नहीं होता कि किताबों में सकारात्मक सोच पर जो बातें कही गई थीं, उनमें कहीं कोई गलती थी। गलती मूलतः हममें खुद में होती है। हम अपनी ही कुछ आदतों के इस कदर बुरी तरह शिकार हो जाते हैं कि उन आदतों से मुक्त होकर कोई नई बात अपने अंदर डालकर उसे अपनी आदत बना लेना बहुत मुश्किल काम हो जाता है लेकिन असंभव नहीं। लगातार अभ्यास से इसको आसानी से पाया जा सकता है।
हम महसूस करते हैं कि हमारा जीवन मुख्यतः हमारी सोच का ही जीवन होता है। हम जिस समय जैसा सोच लेते हैं, कम से कम कुछ समय के लिए तो हमारी जिंदगी उसी के अनुसार बन जाती है। यदि हम अच्छा सोचते हैं, तो अच्छा लगने लगता है और यदि बुरा सोचते हैं, तो बुरा लगने लगता है। इस तरह यदि हम यह नतीजा निकालना चाहें कि मूलतः अनुभव ही जीवन है, तो शायद गलत नहीं होगा। तो आज से आप सकारात्मक सोच (positive thinking ) जीवन का मुख्य ध्येय बनाकर ज़िंदगी को जिये .....
उत्तम जैन (विद्रोही )
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मंगलवार, 12 जुलाई 2016

हालात कहां बदले हैं…. महिला सशक्तिकरण

भारतीय समाज की सबसे बडी विशेषता उसकी अनेकता में एकता की भावना है. यहाँ विभिन्न प्रकार वर्गों के लोग निवास करते है. इनमे विभिन्न प्रकार की परंपराएँ प्रचलित है. वैदिक धर्म यहाँ के अधिकांश भाग का धर्म है. जो विदेशी आये वे इस समाज में मिलते चले गए. कुछ हद तक उन्होंने अपनी मौलिकता भी बनाये रखी. ऐसे बहुविधि समाज में स्त्रियों का अपना विशेष स्थान रहा है. शास्त्रों में लिखा हुआ है कि पत्नी पुरुष का आधा भाग है. वह एक श्रेष्ट मित्र भी है. यह भी कहा जाता है कि जहाँ नारी कि पूजा होती है वहीँ देवता रमण करते है. प्राचीन युग में नारी हर प्रकार से सम्मानित थी. पर आज उसकी स्थिति बिलकुल भिन्न है. उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों कि दशा ठीक नहीं थी. बाल-विवाह प्रचलित हो गया था. वैवाहिक स्वतंत्रता समाप्त हो चुकी थी. बहु-विवाह प्रथा जोरों पर थी. भारतीय समाज शुरू से ही पुरुष  प्रधान रहा है। यहां महिलाओं को हमेशा से दूसरे दर्जे का माना जाता है। पहले महिलाओं के पास अपने मन से कुछ करने की सख्त मनाही थी। परिवार और समाज के लिए वे एक आश्रित से ज्यादा कुछ नहीं समझी जाती थीं। ऐसा माना जाता था कि उसे हर कदम पर पुरुष के सहारे की जरूरत पड़ेगी ही।  लेकिन अब महिला उत्थान को महत्व का विषय मानते हुए कई प्रयास किए जा रहे हैं और पिछले कुछ वर्षों में महिला सशक्तिकरण के कार्यों में तेजी भी आई है। इन्हीं प्रयासों के कारण महिलाएं खुद को अब दकियानूसी जंजीरों से मुक्त करने की हिम्मत करने लगी हैं। सरकार महिला उत्थान के लिए नई-नई योजनाएं बना रही हैंकई एनजीओ भी महिलाओं के अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं जिससे औरतें बिना किसी सहारे के हर चुनौती का सामना कर सकने के लिए तैयार हो सकती हैं। आज की महिलाओं का काम केवल घर-गृहस्थी संभालने तक ही सीमित नहीं हैवे अपनी उपस्थिति हर क्षेत्र में दर्ज करा रही हैं। बिजनेस हो या पारिवार महिलाओं ने साबित कर दिया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं जो पुरुष समझते हैं कि वहां केवल उनका ही वर्चस्व हैअधिकार है।  जैसे ही उन्हें शिक्षा मिलीउनकी समझ में वृद्धि हुई। खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच और इच्छा उत्पन्न हुई। शिक्षा मिल जाने से महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा और घर के बाहर की दुनिया को जीत लेने का सपना बुन लिया और किसी भी हद तक पूरा भी कर लिया है! लेकिन पुरुष अपने पुरुषत्व को कायम रख महिलाओं को हमेशा अपने से कम होने का अहसास दिलाता आया है। वह कभी उसके सम्मान के साथ खिलवाड़ करता है तो कभी उस पर हाथ उठाता है। समय बदल जाने के बाद भी पुरुष आज भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना पसंद नहीं करतेउनकी मानसिकता आज भी पहले जैसी ही है। विवाह के बाद उन्हे ऐसा लगता है कि सिर्फ मांग मे सिंदूर भरने के साथ ही  अब अधिकारिक तौर पर उन्हें अपनी पत्नी के साथ मारपीट करने का लाइसेंस मिल गया है। शादी के बाद अगर बेटी हो गई तो वे सोचते हैं कि उसे शादी के बाद दूसरे घर जाना है तो उसे पढ़ा-लिखा कर खर्चा क्यों करना। लेकिन जब सरकार उन्हें लाड़ली लक्ष्मी जैसी योजनाओं लालच देती हैतो वह उसे पढ़ाने के लिए भी तैयार हो जाते हैं और हम यह समझने लगते है कि परिवारों की मानसिकता बदल रही है। दुर्भाग्य की बात है की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही सिमटकर रह गई हैं। एक ओर बड़े शहरों और मेट्रो सिटी में रहने वाली महिलाएं शिक्षितआर्थिक रुप से स्वतंत्रनई सोच वालीऊंचे पदों पर काम करने वाली महिलाएं हैंजो पुरुषों के अत्याचारों को किसी भी रूप में सहन नहीं करना चाहतीं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाएं हैं जो ना तो अपने अधिकारों को जानती हैं और ना ही उन्हें अपनाती हैं। वे अत्याचारों और सामाजिक बंधनों की इतनी आदी हो चुकी हैं की अब उन्हें वहां से निकलने में डर लगता है। वे उसी को अपनी नियति समझकर बैठ गई हैं।  हम खुद को आधुनिक कहने लगे हैंलेकिन सच यह है कि आधुनिकता सिर्फ हमारे पहनावे में आया है लेकिन विचारों से हमारा समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। आज महिलाएं एक कुशल गृहणी से लेकर एक सफल व्यावसायी की भूमिका बेहतर तरीके से निभा रही हैं। नई पीढ़ी की महिलाएं तो स्वयं को पुरुषों से बेहतर साबित करने का एक भी मौका गंवाना नहीं चाहती। लेकिन गांव और शहर की इस दूरी को मिटाना जरूरी है।
    उत्तम जैन (विद्रोही )

सोमवार, 11 जुलाई 2016

जैन समाज कि- एक कुरीति आरती


                  जैन समाज कि- एक कुरीति आरती 

घर के कार्यों में धर्म का अनुसरण नहीं होता है, किन्तु आरती से जो जीवों का घात होता है वह धर्म के नाम पर होता है ! अतः आरती करना किसी विज्ञ और दयालु पुरुष का ध्येय नहीं हो सकता !
"देव धर्मतपस्विनाम् कार्ये महति सत्यपि !
जीव घातो न कर्तव्यः अभ्रपातक हेतुमान !!

याने,
देव, धर्म और गुरुओं के निम्मित भी महान से महान कार्य पड़ने पर जीव घात नहीं करना चाहिए ! जो इसकी परवाह नहीं करते वे जिनेन्द्र भगवान के वचन रूपी चक्षुओं से रहित हैं !जीव-घात नियम से ही नरकादि गतियों में ले जाने वाला है !और ऊपर से अगर धर्म मान कर ऐसा कार्य किया जाए तो उसमे "मिथ्यात्व' का दोष भी जोड़ लें, जो कि अनंत संसार का मूल कारण है ! अन्य स्थानों में किया गया पाप मंदिरजी जाकर कट जाता है, किन्तु धर्मस्थान में किया हुआ पाप, वज्र लेप समान है ! जिसे कोई नहीं काट सकता !
याद रखें :- आरती का सम्बन्ध दीपक से कदापि नहीं है !
आरती का अर्थ केवल स्तुति और गुणगान से ही है, उसके अलावा कुछ भी नहीं !
- अब कोई कहे की मंदिरजी में बड़े-बड़े बल्ब/लाइट/जनरेटर जलते हैं रात में तो उससे भी तो तीव्र हिंसा होती है ! इसके २ समाधान बनते हैं :-
१ - आज के भौतिकवादी हो चुके समाज में श्रावकों की इतनी श्रद्धा नहीं रही जैसी पहले हुआ करती थी ! यह पंचम काल का प्रभाव ही है कि यदि मंदिरों में बल्ब नहीं जलाये तो स्वाध्याय तो दूर मंदिरजी आने-जाने का क्रम भी लुप्त हो जाएगा!
जबकि विवेकवान पुरुष तो रात्रि के समय में सब आरम्भ-परिग्रहों से विरक्त होकर सामायिक आदि क्रियाओं में लग जाते हैं !
दूसरा और सबसे मुख्य तथ्य
२ - मंदिरजी में बल्ब/लाइट जलाना धर्म नहीं माना जाता, किन्तु दीपक जलकर आरती करने को लोग धर्म मानते हैं, और उल्टी/विपरीत मान्यता होने के कारण मिथ्यात्व ही है ! हमे विवेक का परिचय करते हुए, इस प्रचलित प्रथा को सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए तथा रूढ़िवाद, अज्ञानता और पक्षपात को छोड़कर जैसा भगवान ने बतलाइं वैसी ही क्रियाएँ करनी चाहिए !
- पर्वों/आयोजनों में 108,1008 दीपकों से महाआरती की जाती है !
- कभी कभी सुनता हु अमुक महाराज जी की 25,000 दीपकों से महाआरती की जाएगी ! कल्पना से परे हैं ऐसे भक्त और ऐसे मुनि ... - जहाँ "अहिंसा परमो धर्म" बताया है, वहां हिंसा का अनुसरण करती हुई किसी क्रिया को कोई साधु या कोई श्रावक कदापि नहीं कर सकता ! किन्तु फिर भी बहुत कर रहे हैं ! पंचम काल प्रभावी हो रहा है ! - अखंड ज्योत जलाना भी मूढ़ता है ! वैष्णव परंपरा की नकल मात्र है ! कृपया विवेक से काम लें !!! जो पहले से होता आ रहा है ज़रूरी तो नहीं कि वो सही ही हो ! वेसे श्वेतांबर परंपरा के तेरापंथ , स्थानकवासी परंपरा मे मूर्ति पुजा को मान्यता नही है ! साधना , स्वाध्याय बिना पुजा के भी संभव है ! जैन समाज के साधू , संतो , आचार्यो , श्रावकों को इस गहन विषय पर विचार करना चाहिए ! क्या आरती , द्रव्य पुजा , अभिषेक आदि से हिंसा तो नही हो रही है जो जैन धर्म का मूल सिदान्त है ! जैन समाज को आज सिर्फ हिंदुस्तान ही नही विश्व मे अहिंसक के रूप मे जाना जाता है ! जहा अहिंसा परमो धर्म का ध्वज फहराया जाता है !
उत्तम जैन विद्रोही