रविवार, 10 जुलाई 2016
गरीबी का दर्द
जैन समाज के लिए विचारणीय
जैन समाज के लिए विचारणीय
आज जैन समाज ने अपने अवदानों से देश मे ही नही सम्पूर्ण विश्व मे एक अलग पहचान बनाई है ! दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म जैन धर्म को श्रमणों का धर्म कहा जाता है. जैन धर्म जो कि अनादिकाल से चलता रहा है। इसकाे और आगे बढ़ाने की जरूरत है। जैन धर्म की शिक्षा देना आज की युवा पीढ़ी और छोटे बच्चों को अनिवार्य हो गया है। इससे उनमें त्याग ,तपस्या और संस्कारी होने की भावना आती है। जिस प्रकार स्कूल में छात्र को पढ़ाने के लिए अध्यापक जरूरी है वैसे उसकी प्रकार धर्म का प्रभावना करने के लिए समाज में जैन गुरु का होना जरूरी है।आज जैन समाज के दोनों प्रमुख घटक श्वेतांबर व दिगंबर मे सभी गुरु भले अलग अलग पंथ के अनुगामी है मगर सभी जैन धर्म गुरुओ का मिशन एक ही है ! अब चातुर्मास काल का प्रारम्भ हो गया है जैन समाज के गुरु , साधू , साध्वी जी चार माह स्थिरवास करेंगे साथ मे एक स्थान पर ठहर कर धर्म आराधना करेंगे ! प्रवचन ,तप , साधना , का क्रम निरंतर गतिमान रहेगा ! जैन श्रावक भी इन दिनो धर्म आराधना , तप व साधना ,प्रवचन श्रवण मे लीन हो जाते है ! समय समय काफी बड़े आयोजन भी होते है ! जैन समाज काफी स्मृध है ! जैन समाज मे भामाशाहों की कमी भी नही दोनों खुले हाथो व दिमाग से कमाते है ! खुले हाथो से सेवा कार्यो मे दान भी देते है मगर कहावत है जहा माँ लक्ष्मी मेहरबान होती है वहा विवेक अनिवार्य है मगर अफसोस लक्ष्मी तो जैन समाज पर काफी मेहरबान है मगर विवेक की कमी जरूर महसूस हो रही है ! जैन समाज धार्मिक प्रसंगो पर सफ़ेदपॉश राजनेताओ को सादर आमंत्रित करती है ! जिनके कपड़े तो दूध से चमकते सफ़ेद है मगर दिल व नियत कोयले से भी काला ! ज्यादातर सफेदपोश नेता (कुछ को छोड़कर ) सूरा व सुंदरी का सेवन करते हुए मिल जाएंगे ! मांसाहार व मदिरा सेवन से अछूते नही होंगे ! भला इनका धार्मिक व सामाजिक मंच पर क्या जरूरत मेरी समझ से बाहर है ! आज जैन समाज मे साधू ,संत, आचार्य हमे चातुर्मास काल मे लीलोत्री (हरी सब्जी ) , ज़मीकंद आदि का त्याग करने की प्रेरणा देते है ! ओर जब हमारे साधू साध्वी आचार्यगण जो मांसाहार करते है उनके यहा गोचरी( आहार) नही लेते है केसी विडम्बना है उन्हे हमारा जैन समाज साधू संतो के प्रवचनो व आयोजनो मे अग्रिम पंक्ति मे सादर आमंत्रित करता है ! क्या कभी इन राजनेताओ को आमंत्रण प्रेषित करने से पहले पूछता है की आप मांसाहार का सेवन करते हो या नही अगर करते हो तो हम आपको आमंत्रण नही दे सकते ! समाज के चंद ठेकेदारो को तो नेताओ की नजर मे आना है ! बड़े खुश होते है की हमारी पहचान बढ़ेगी आखिर पहचान बनेगी को कभी काले कारनामे मे नेता जी मददगार बनेंगे ! जरूरत है समाज के साधू संतो व आचार्यो को आगे आकार इन भ्रष्ट राजनेताओ को बुलाने पर प्रतिबंध लगाना होगा !अरे ये नेता हमे क्या सहायता करेंगे हमारा समाज ही बुद्धिजीवी है भले हम कुछ समय के लिए मार्ग से भटक गए है !क्या आज जैन समाज शिक्षा मे अग्रणी होने के बाद भी राजनीति मे प्रवेश का पूर्ण अधिकारी नही है ! आज जैन समाज से बहुत ही कम लोग राजनीति मे मिलेंगे ! कुछ राजनीति मे पहुँच भी गए तो विवेक बुद्धि व सेवाभावना व मेहनत से नही अपनी काली कमाई से विवेक को त्याग कर राजनीतिक कुर्सी तक पहुंचे है !ओर राजनीति के शीर्ष तक पहुँचते पहुचते विवेक से दूर विवेकहीन हो गए है ! फिर वहा पहुचने के बाद भी गिनेचुने को छोड़कर समाज के लिए कोई कुछ खास योगदान प्रदान नही किया ! आज जैन समाज मे साधू संतो के आयोजन व प्रवचन मे बड़े बड़े नेताओ को बुलाने की होड सी लगती है पर क्यू ? मेरी समझ मे नही आता ! उन्ही नेताओ को समाज के अग्रिम पंक्ति मे बेठने वाले सफ़ेदपॉश समाज के नेता कहु तो आतिशयोक्ति नही होगी ! क्यूकी गुण तो उनमे भी नेताओ से कम नही काली कमाई से समाज मे एक उच्च स्थान पा लिया ! मुझे उनसे भी शिकायत नही पर आज समाज मे उभरती प्रतिभा को क्यू नही सन्मान दिया जाता है ! क्यू नही उनकी होंसला अफजाई करके आगे बढ्ने को प्रेरित करते है ! जैन समाज के बहुत नही तो भी कुछ लोग तो उच्च पद पर या ख्याति प्राप्त मिल ही जाएंगे हा उन्हे कभी कभार समाज कुछ सन्मान जरूर प्रदान कर देता है ! मगर जरूरत है आज समाज मे उभरती प्रतिभा को सन्मान प्रदान किया जाये ! उन्हे आगे बढ्ने को प्रेरित किया जाये ! शिक्षा के क्षेत्र मे हो या व्यावसायिक क्षेत्र मे या पत्रकारिता के क्षेत्र मे या उच्च अधिकारी के क्षेत्र मे उनके इस संघर्ष के समय मे होंसला बढ़ाने की जरूरत है न की टांग खींचने की ! आज जैन समाज अनदेखा कर रही है यह एक सोचनीय विषय है !अपने दायित्व से दूर भाग रहा है हमारा यह जैन समाज जरूरत है समाज के अग्रणी को अपने अभिमान को त्यागकर समाज की उभरती प्रतिभा को आगे लाने का प्रयास करना होगा ओर उन्हे उचित सन्मान प्रदान कर के आगे बढ्ने को प्रेरित करना होगा ! उन्ही मे से जनता के सेवक , राजनीतिज्ञ , डॉक्टर , वकील , पत्रकार , इंजीनियर , वेज्ञानिक व समाज सेवी की सेना बनेगी फिर हमे जरूरत नही पड़ेगी की भ्रस्ट राजनेताओ व अधिकारियों को हमारे धार्मिक मंच पर बुलाकर मंच पर दाग लगाए ! खेर मुझे मालूम है समाज के मोटी चमड़ी के लोगो को मेरी यह बात गले नही उतरेगी एक विद्रोही या पागल समझकर कुटिल हंसी समर्पित कर देंगे ! आज के युवा को सोचना होगा मनन करना होगा क्यू की युवा ही देश का भविष्य है समाज का भविष्य है ! आप सभी से मेरा अनुरोध मेरे विचारो को अन्यथा न लेकर मेरी भावनाओ को समझे ! जय जिनेन्द्र जय महावीर ...................
उत्तम जैन विद्रोही
mo-8460783401
शुक्रवार, 8 जुलाई 2016
जैन धर्म और अहिंसा
जैन धर्म ओर अहिंसा ---हमारे भारत देश में अनेक धर्म प्रचलन में है लेकिन सब में, सब से अलग अहिंसा और सत्य पर आधारित जैन धर्म प्राचीन धर्मो में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्युकी इस धर्म के जरिये देश दुनिया में एक सन्देश जाता है और इस धर्म के मूल आधार पञ्च महाव्रत के नियमो का कोई विरोद्ध भी नहीं कर सकता ! यह पंचमहाव्रत-
1: अहिंसा: जैन धर्म में अहिंसा संबंधी सिद्धान्त प्रमुख है। मन, वचन तथा कर्म से किसी के प्रति असंयत व्यवहार हिंसा है। पृथ्वी के समस्त जीवों के प्रति दया का व्यवहार अहिंसा है। इस सिद्धांत के आधार पर ही जियो और जीने दो का सिद्धांत परिकल्पित हुवा है |
2: सत्य: जीवन में कभी भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। क्रोध व मोह जागृत होने पर मौन रहना चाहिए। जैन धर्म के अनुसार भय अथवा हास्य-विनोद में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए।
3: अस्तेय: चोरी नहीं करनी चाहिए और न ही बिना अनुमति के किसी की कोई वस्तु ग्रहण करनी चाहिए।
4: अपरिग्रह: किसी प्रकार के संग्रह की प्रवृत्ति वर्जित है। संग्रह करने से आसक्ति की भावना बढ़ती है। इसलिए मनुष्य को संग्रह का मोह छोड़ देना चाहिए।
5: ब्रह्मचर्य: इसका अर्थ है इन्द्रियों को वश में रखना। ब्रह्मचर्य का पालन संतो के लिए अनिवार्य माना गया है। क्युकी ये मानवता के लिए उनके मूल स्वरुप को सात्विक बनाये रखने के लिए एक मजबूत आधार है!
जैन धर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है। सृष्टि अनादि काल से विद्यमान है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार फल भोगते हैं। कर्म फल ही जन्म-मृत्यु का कारण है। कर्म फल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है। जैन धर्म में संसार दुखमूलक माना गया है। दु:ख से छुटकारा पाने के लिए संसार का त्याग आवश्यक है। कर्म फल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक बताया गया है। त्रिरत्न: सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन व सम्यक आचरण जैन धर्म के त्रिरत्न हैं। सम्यक ज्ञान का अर्थ है शंका विहीन सच्चा व पूर्ण ज्ञान। सम्यक दर्शन का अर्थ है सत् तथा तीर्थंकरों में विश्वास। सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दु:ख के प्रति समभाव सम्यक आचरण है। जैन धर्म के अनुसार त्रिरत्नों का पालन करके व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो सकता है और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। त्रिरत्नों के पालनार्थ आचरण की पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है। जैन धर्म अनादिकाल से अहिंसा का समर्थक रहा है अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन मे किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वारा भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है| जैन धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। अहिंसा परमो धर्म: - अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था। जब कभी ' अहिंसा ' पर चर्चा होती है , भगवान बुद्ध, भगवान महावीर और महात्मा गांधी को याद किया जाता है। अक्सर देखा गया है कि धर्म प्रवर्तक उपदेश तो देते हैं , लेकिन खुद वे उन पर चल नहीं पाते। यह बात महावीर , बुद्ध व गांधी पर लागू नहीं होती। इन तीनों ही युग पुरुषों ने अहिंसा के महत्व को समझा , उसकी राह पर चले और इसके अनुभवों के आधार पर दूसरों को भी इस राह पर चलने को कहा। अहिंसा की पहचान उनके लिए सत्य के साक्षात्कार के समान थी। अपने युग में यज्ञों में होने वाली हिंसा से महावीर के मन को गहरी चोट पहुंची , इसलिए उन्होंने अहिंसा का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसके प्रचार के लिए उन्होंने श्रमणों का संघ तैयार किया , जिन्होंने मनुष्य जीवन में अहिंसा के महत्व को बताया। सामान्यत: अहिंसा का अर्थ किसी प्राणी की मन , वचन व कर्म से हिंसा न करना होता है। आदमी में अनेक बुराइयां पाई जाती हैं , जिनकी गिनती करना असंभव है। इन बुराइयों की जड़ में मुख्य पांच दोष मिलेंगे। बाकी सभी दोष इन्हीं से पैदा होते हैं। ये दोष हैं चोरी , झूठ , व्यभिचार , नशाखोरी व परिग्रह यानी धन इकट्ठा करना। इन्हीं बुराइयों के कारण मनुष्य न जाने और किन-किन बुराइयों में लगा रहता है। हिंसा इनमें सबसे बड़ी बुराई है। हिंसा , अहिंसा की विरोधी है। इसका अर्थ सिर्फ किसी प्राणी की हत्या या उसे शारीरिक चोट पहुँचाना ही नहीं होता। महावीर ने इसका व्यापक अर्थ किया कि यदि कोई आदमी अपने मन में किसी के प्रति बुरी भावना रखता है , बुरे व कटु वचन बोलता है , तो वह भी हिंसा ही करता है। सभी प्राणी जीना चाहते हैं , अहिंसा उनको अमरता देती है। अहिंसा जगत को रास्ता दिखाने वाला दीपक है। यह सभी प्राणियों के लिए मंगलमय है। अहिंसा माता के समान सभी प्राणियों का संरक्षण करने वाली , पाप नाशक व जीवन दायिनी है। अहिंसा अमृत है। इस प्रकार महावीर ने अहिंसा की व्याख्या की।
उत्तम जैन विद्रोही
uttamvidrohi121@gmail.com
मो -8460783401
जीवन को सुख से जीने की कला
गुरुवार, 7 जुलाई 2016
मन की चंचलता।
मन की चंचलता ----हम सभी जानते हैं कि मन बहुत ही चंचल है । क्षण – क्षण बदलता रहता है । मन बदलता रहता है तो बुद्दि भी स्थिर नहीं रहता इसलिए कहा गया है कि शरीर के विकास के साथ –साथ मन के विकास पर भी ध्यान देना आवश्यक है । मन पर जिनका नियंत्रण है , उनका नैतिक विकास भी उन्नत है , वे अच्छे कर्म में प्रवृत रहते हैं , लेकिन जिनका मन नियंत्रित नहीं है उनकी बुद्धि भी भ्रष्ट रहती है और कर्म निश्चित रूप से हितदायक नहीं होता ।
मन चंचल है मैं आपको निवेदन करना चाहता हूं, मन निश्चित ही चंचल है, लेकिन मन की चंचलता बुरी बात नहीं है। मन की चंचलता उसके जीवंत होने का प्रमाण है। जहां जीवन है, वहां गति है; जहां जीवन नहीं है, जड़ता है, वहां कोई गति नहीं है। मन की चंचलता आपके जीवित होने का लक्षण है, चंचलता रोक लेना ही कोई अर्थ की बात नहीं है। चंचलता रुक जाना ही कोई बड़ी गहरी खोज नहीं है। और चंचलता को रोकने के जितने अभ्यास हैं, वे सब मनुष्य की बुद्धिमत्ता को, उसकी विज़डम को, उसकी इंटेलिजेंस को, उसकी समझ, उसकी अडरस्टैंडिंग को, सबको क्षीण करते हैं, कम करते हैं। जड़ मस्तिष्क मेधावी नहीं रह जाता।गीता के छठवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा है- हे भगवान, मन बड़ा चंचल औऱ मथ देने वाला है। इसे वश में करना मानो वायु को वश में करने जैसा है। यानी जैसे हवा को वश में नहीं किया जा सकता, वैसे ही मन को वश में करना दुष्कर है। भगवान कृष्ण ने कहा- हां अर्जुन, मन को रोकना कठिन है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। अभ्यास कैसा? इसी छठवें अध्याय में ही भगवान ने कहा है- मन जहां, जहां जाए, उसे रोक कर बार- बार भगवान में लगाना। इसे कुछ संत अभ्यास योग भी कहते हैं। लेकिन यह कैसे संभव है? यह तभी संभव होगा जब मन पर आप पैनी नजर रखें। आप ध्यान कर रहे हैं और मन को भी देख रहे हैं। हां, यह भगवान में लगा है। अचानक यह आपको चकमा देता है और सांसारिक प्रपंच में चला जाता है। चूंकि आप मन के प्रति सजग और सचेत हैं, इसलिए इसे फिर भगवान के पास खींच लाइए। इसमें ऊबने से काम नहीं चलेगा। मन की चालाकियां आपको पकड़नी पड़ेंगी। आप कहेंगे, मन तो मेरा है। यह चालाकी कैसे करता है? जी हां, मन बहुत चालाक है और अगर यह आपके वश में होता तो फिर चिंता ही क्या थी। तब तो आप जो कहते वही करता। लेकिन यह मन तो किसी न किसी इंद्रिय के माध्यम से आनंद चाहता है। मन खुद ही इंद्रिय है। मन अगर वश में हो तो आप मुक्त हो जाते हैं। लेकिन अगर वश में नहीं हैं तो आप इसके गुलाम हो जाते हैं औऱ यही बंधन है। इसी से मुक्त होने के लिए तो साधक छटपटाता है, भगवान से प्रार्थना करता है, जप और ध्यान करता है। वह लगातार भगवान से योग चाहता है। भगवान से हमारा जब तक वियोग है तब तक दुख और पीड़ा है, तनाव और तकलीफ है। लेकिन ज्योंही योग हो गया, बस फिर आपको कोई चिंता नहीं। आपकी हर परेशानी हल होती जाएगी। जो परेशानी पहाड़ लग रही है, वह मामूली लगने लगेगी। आलस्य को भगाने के लिए परिश्रम, उत्साह, स्फूर्ति और तत्परता के विचार सहायक हैं। ऐसे ही कामुकता को दूर करने के लिए ब्रह्मचर्य के विचार, मातृभावना, पवित्रता एवं संयम के विचार, विकारों के परिणाम के विचार करना मददरूप बनता है। क्रोध को भगाना हो तो शांति, प्रेम, क्षमा, मैत्री, सहानुभूति, सज्जनता, उदारता एवं आत्मभाव के विचार सहायक हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, निराशा-हताशा, आलस्य आदि आत्मसुख को लूटने वाले विकार हैं। विकारों की जगह पर निर्विकारता ले आओ। आपका जीवन सुखमय हो जायेगा, आनंदमय हो जायेगा, मधुमय हो जायेगा।..................
लेखक - उत्तम जैन विद्रोही
सूरत
uttamvidrohi121@gmail.com
मंगलवार, 5 जुलाई 2016
चातुर्मास
जैन धर्म में इसे सामूहिक वर्षायोग तथा चातुर्मास के रूप में जाना जाता है.. जैन धर्म में संन्यासियों, जैसे भटक भिक्षुओं का मानना था कि बारिश के मौसम के दौरान, अनगिनत कीड़े, कीड़े और छोटे जीव को नग्न आंखों में नहीं देखा जा सकता है तथा वर्षा के मौसम के दौरान जीवो की उत्त्पति भी सर्वाधिक होती है.चलन-हिलन की ज्यादा क्रियाये इन मासूम जीवो को ज्यादा परेशान करेगी . अन्य प्राणियों को साधुओ के निमित से कम हिंसा ह़ो तथा उन जीवो को ज्यादा अभयदान मिले उसके द्रष्टिगोचर कम से कम तो वे चार महीने के लिए एक गांव या एक ठिकाने में रहने के लिए अर्थात विशेष परिस्थितिओं के अलावा एक ही जगह पर रह कर स्वकल्याण के उधेश्य से ज्यादा से ज्यादा स्वाध्याय,संवर,पोषद,प्रतिक्रमण,तप,प्रवचन तथा जिनवाणी के प्रचार-प्रसार को महत्व देते है..यह सर्व विदित ही कि साधुओ का कोई स्थायी ठोर-ठिकाना नहीं होता तथा जन कल्याण की भावना संजोये वे वर्ष भर एक ठिकाने से दुसरे ठिकाने तक पैदल चल चल कर श्रावक-श्राविकाओ को अहिंसा,सत्य,ब्रम्हचर्यका विशेष ज्ञान बांटते रहते है तथा पुरे चातुर्मास अर्थात 4 महीने तक एक क्षेत्र की मर्यादा में स्थाई रूप से निवासित रहते हुए जैन दर्शन के अनुसार मौन-साधना,ध्यान,उपवास, स्व अवलोकन की प्रक्रिया,सामयिक ओर प्रतिक्रमण की विशेष साधना,धार्मिक उदबोधन,संस्कार शिविरों से हर शक्श के मन मंदिर में जन-कल्याण की भावना जाग्रत करने का सुप्रयास जारी रहता है.. तिर्थंकरो ओर सिद्ध पुरुषों की जीवनियो से अवगत कराने की प्रक्रिया इस पुरे वर्षावास के दरम्यान निरंतर गतिमान रहती है तथा परिणिति सुश्रवाको तथा सुश्रविकाओ के द्वारा अनगिनत उपकार कार्यो के रूप में होती है..एक सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार पर्युषण पर्व की आराधना भी इसी दौरान होती है..पर्युषण के दिनों में जैनी की गतिविधि विशेष रहती है तथा जो जैनी वर्ष भर या पुरे चार माह तक कतिपय कारणों से जैन दर्शन में ज्यादा समय नहीं प्रदान कर पाते वे इन पर्युषण के ८ दिनों में अवश्य ही रात्रि भोजन का त्याग,ब्रम्हचर्य,ज्यादा स्वाध्याय,मांगलिक प्रवचनों का लाभ तथा साधू-संतो की सेवा में संलिप्त रह कर जीवन सफल करने की मंगल भावना दर्शाते है..
चातुर्मास का सही मूल्यांकन श्रावको ओर श्राविकाओ के द्वारा लिए गए स्थायी संकल्पों एवं व्रत प्रत्याखानो से होता है..यह समय आध्यात्मिक क्षेत्र में लगात्तर नई ऊँचाइयों को छुने हेतु प्रेरित करने के लिए है..अध्यात्म जीवन विकास की वह पगडण्डी है जिस पर अग्रसर होकर हम अपने आत्स्वरूप को पहचानने की चेष्टा कर सकते है.. साधू-साध्वियो के भरसक सकारात्मक प्रयांसो की बदोलत कई युवा धर्म की ओर उन्मुख होकर नया ज्ञान-ध्यान सीखकर स्वयं के साथ दूसरों के कल्याण की सोच हासिल करते है ..कई सुश्रावक-सुश्रविका पारंगत होकर स्वाध्यायी बनकर जिन क्षेत्रो में साधू-साध्वी विचरण नहीं कर रहे है,वहां जाकर स्वाध्याय तथा जन कल्याण की भावना का प्रचार प्रसार कर अपना जीवन संवार लेते है..सेकंडो जिज्ञासाओ को शांत करने का सुअवसर है ,चातुर्मास..स्वधर्मी के कल्याण की अलख जगाता है,चातुर्मास..जीवदया की ओर उन्मुख करता है चातुर्मास..तपस्वी तथा आचार्या भगवन्तो के पावन दर्शन से लाभान्वित होने का मार्ग है चातुर्मास..साहित्य की पुस्तकों से रूबरू होने का जरिया है,चातुर्मास..उपवास से कर्म निर्जरा का सन्मार्ग दिखाता है चातुर्मास..सम्यग ज्ञान ,दर्शन ओर चरित्र की पाटी पढ़ाता है,चातुर्मास..कई धार्मिक.शेक्षणिक शिविरों क़ी जन्मदात्री है,चातुर्मास..कई राहत कार्यों के आयोजनों का निर्माता है चातुर्मास..जन से जैन बने ,प्रेरणा दाई है चातुर्मास....................... उत्तम जैन विद्रोही
रविवार, 3 जुलाई 2016
आज की युवा पीढ़ी मे कम होते संस्कार ओर इसके जिम्मेदार कोन--
मेरी पत्नी और शेष यादे
बचपन से दादा दादी पापा मम्मी ताऊ ताई के प्यार में पला ! स्वभाव से थोड़ा शर्मीला कक्षा 1 से 8 पापा अध्यापक थे उन्ही के स्कूल में पढ़ा ! मेरे पिता ही अभिभावक व् गुरु रहे ! दादी की धार्मिक प्रवृति गाव मे आये साधु संतो के नित्य दर्शन दिनचर्या में सम्मिलित था ! दादी शुरू से थोड़ी कठोर अनुशासन प्रिय थी ! जितनी कठोर उतनी प्यार भी करती थी ! शारीरिक अस्वस्थता के चलते अल्पवय 19 वर्ष की उम्र में मेरी शादी करवा दी ! में मूक दर्शक होकर मोन स्वीकृति दी ! इसके अतिरिक्त मेरे पास कोई चारा भी नही था ! सगाई के 7 माह बाद शादी भी हो गयी ! शादी के वक़्त पत्नी का तो क्या खुद का खर्चा उठाने लायक भी नही था ! पर परीवार की आर्थिक स्थिति ठीक होने से कभी कोई तकलीफ नही आयी ! वक़्त गुजरता गया बच्चे हुए खुद कमाने खाने लगा ! जीवन में काफी उतार चढ़ाव आये ! कभी आर्थिक स्थिति से भी कमजोर हुआ ! पर उस वक़्त मेरे साथ माता पिता का आशीर्वाद तो था ही पर मेरे साथ मेरी जीवन साथी कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रही तभी मेरा होंसला बना रहा ! काफी संघर्ष के बाद आर्थिक स्थिति से मजबूत हुआ ! बुरे वक़्त में हमसफ़र का साथ हो और वक़्त के साथ समझोता अगर जीवन साथी कर ले ! तो पति पत्नी में किसी तरह के मनमुटाव नही हो सकते व् जीवन एक आनंद की अनुभूति होती है ! यह अनुभूति मेने स्वयं प्राप्त की ! पर वक़्त पर एक ऐसा मोड़ आया ! पत्नी सूरत से पीहर वॉल्वो में जाते हुए दुर्घटना का शिकार हो गयी ! उसने प्राण त्यागते समय अंतिम समय में भी मुझे याद किया उसकी अनुभूति ठीक उसी समय प्रातःकाल 4 बजे स्वप्न में हुई पर में स्वप्न समझ कर ध्यान नही दिया ! पर जब करीब दुर्घटना से 45 मिनिट बाद जब केसरियाजी पोलिस द्वारा मुझे दुर्घटना की जानकारी प्राप्त हुई ! तो स्वयं कुछ सोचने समझने के हालात में नही था ! पर बाद में अहसास हुआ उसका इतना प्यार की प्राण त्यागते समय मुझे जरूर याद किया तभी वो तरंगे मेरे स्वप्न में पहुंची ! जीवन में जन्म व् मृत्यु निश्चित है ! पर वक़्त के पहले जीवनसाथी का चला जाना ! जिंदगी बेगानी हो जाती है ! वैसे मेरे माता पिता का आशीर्वाद आज भी प्राप्त है ! उन्ही के आशीर्वाद व् संस्कारो पर चलते रहने की कोशिश में लगा रहता हु ! और रहती है तो सिर्फ स्मृति शेष। …। उत्तम जैन ( विद्रोही )
उक्त मेरी सच्ची कहानी कहु या हकीकत है
शक नामक बीमारी----
शक नामक बीमारी जो स्त्री, पुरूषों में प्रायः होती है लाइलाज है। ऊपर वाला न करे कि यह बीमारी किसी में हो। शक यानि संदेह जिसे डाउट भीं कहते हैं एक ऐसी बीमारी है जो स्त्री-पुरूष के रिश्तों में दरार डालकर दोनों का जीवन दुःखद बनाती है। इसी शक पर पिछले दिनों मेरी एक लम्बी चौड़ी बहस पुराने मित्र से हुई। शक की बात चली तो उन्होंने कहा कि यह झूठ बोलने की वजह से होता है। झूठ तो सभीं बोलते हैं तो क्या सभीं पर शक किया जाए, इस पर वह बोले नहीं व्यापार में झूठ बोला जाता है। यदि सत्यवादी बन गए तो एक दिन कटोरा लेकर भीख मांगोगे। समय और परिस्थितियो के अनुसार ही झूठ-सच बोला जाता है। इस समय शक की बीमारी ने हर तरह की घातक बीमारियों को भीं काफी पीछे छोड़ दिया है। वो क्या है पति अपनी पत्नी पर, पत्नी अपने पति पर प्रेमी अपनी प्रेमिका और प्रेमिका अपने प्रेमी पर ‘शक’ करने लगे हैं। यार यह कोई नई बीमारी नहीं है सदियों से चलती आई रही है, और इन फ्यूचर चलती रहेगी। देखो भाई जी लोग एक दूसरे को बेहद प्यार करते हैं वे नहीं चाहते कि उनके प्यार के बीच कोई दूसरा आए। वैसे तुमसे कुछ भीं अनजान नहीं है, ऐसा करो विषय वस्तु पर कुछ भी बोलने का ‘मूड’ नहीं हो रहा है। यार शक ‘डाउट’ संदेह आदि सब गुड़ गोबर कर देता है। इसका इलाज भीं नहीं है। कई लोग अपसेट हो चुके हैं। हमने देखा है कि शक्की मिजाज के कई स्वथ्य लोग और नवजवान स्त्री व पुरुष डिप्रेशन का शिकार होकर अच्छा खासा जीवन कष्टकारी बना डाला है। इन बेचारे कालीदासों को कौन कहे कि ‘शक’ करने की आदत को छोड़ दो मजे में रहोगे। रिश्ते वह भीं स्त्री-पुरूष के बहुत ही नाजुक होते हैं, इनको परखने के लिए मन की आंखे और दिमाग चाहिए। ‘शक’ की बीमारी से दूर रहकर ही प्रेम, प्यार का रिश्ता मजबूर रहेगा वर्ना.....। बस अब तो मेरा प्रवचन समाप्त नही तो शकी लोग बोेल उठेंगे नहीं डियर कलमघसीट यह साधारण बात नहीं है। तुम सीरियसली नहीं ले रहे हो, मेरी मानों औरइस विषय पर इतना ‘प्रवचन’ मत कहो। बी सीरियस, एण्ड टेक इट सीरियसली। वर्ना कहीं तुम्हारे (तुम-दोनों के) बीच ‘शक’ की बीमारी आ गई तब तो सब खेल चौपट, जिन्दगी तबाह, बरबाद।
डियर उपदेशक ऐसा नहीं है कि हमारे बीच ‘शक’ है। हम लोग रूठने-मनाने के लिए ड्रामा किया करते हैं और सच्चे प्यार को कसौटी पर कसकर उसकी मजबूती को देखते हैं। क्या समझे-यदि नहीं समझे तो हम क्या करें। तुम अपना काम कर रहे हो और हम हमारा। करते रहो, यही तो जिन्दगी है। बन्धु मगर यह मत सोचों कि हमारे प्यार के बीच किसी प्रकार के ‘शक’ की गुंजाइश है। बस ठण्ड रखो मजे करो हमे हमारे हाल पर रहने दो। ..... उत्तम जैन विद्रोही
स्त्री की योग्यता का पैमाना उसकी प्रतिभा है देह नहीं...
ा किये गए कामों के स्थान पर उनकी शक्लों सूरत को वरीयता दी जाती है ………एक तो पुरुष की मानसिकता स्त्री देह तक ही सीमित है …दूसरे मीडिया उसे भुनाता है | ये आग में घी डालने के सामान है जिससे आग बुझेगी नहीं और भड़केगी | जब इतनी योग्य स्त्रियों को भी प्रतिभा के स्थान पर सौन्दर्य से मापा जाएगा तो साधारण स्त्रियों का अंदाज़ा स्वयं ही लगाया जा सकता !पुरुष स्त्री को हर हाल में शारीरिक-संरचना से क्यों आँकता है? इस तरह के सर्वेक्षण से उन स्त्रियों की उपलब्धि और योग्यता गौण और शारीरिक-संरचना प्रमुख होकर प्रस्तुत होती है जो कि सर्वथा अनुचित है ….शर्म आनी चाहिए… ऐसे बेहूदा विचार धारा वाले हर शख्स को अपने अंतर्मन में झाँक देखना चाहिए कि क्या गलत किया है उन्होंने.... ! बहुधा महिलाओं को ऐसी स्तिथितियों का सामना करना पड़ता है | जब उन के चयन या तरक्की पर सहकर्मी दबी जुबान में कहतें हैं … महिला थी इसलिए प्रमोशन हो गया . ऐसे वाक्य सुनकर एक मिनट के लिए रक्त खौल उठता है | पर फिर अगले ही क्षण मन को संयत करना होता है | आज महिलाएं अपनी प्रतिभा के दम पर हर जगह सफलता का परचम लहरा रहीं हैं | ऐसे में प्रतिभा के स्थान पर केवल उनके सौदर्य की चर्चा करना एक गलत मानसिकता है | जिसकी जितनी भत्सर्ना की जाए कम है ! प्रतिभा स्त्री कठोर परिश्रम से अर्जित करती है | फेसबूक हो शोशल मीडिया पर स्त्री की पोस्ट पर तारीफ़ों के पूल बांधते हुए मानसिक रूप से पीड़ित आप घोर से देखे मिल ही जाएंगे ! उनके विचारो पर ध्यान कम मगर तारीफ़ों की अंबार लग जाती है ! ऐसे व्यक्ति एक गलत मानसिकता से ग्रसित होते है ! इन सब मामलो स्त्रीया भी कुछ हद तक दोषी होती है ! जानबुझ कर कभी कभी ऐसा लिखती है की पुरुष के दिमाग मे कुछ संशय पेदा होने लगता है ! खेर समझदार को इशारा काफी मगर एक अनुरोध स्त्रियो के देह को न देखो उनकी योग्यता को परखो -------
देश की एक न्यूज़ वेबसाइट पर ने एक समाचार प्रकाशित किया हुआ आज मे पढ़ रहा था … ” देश की सबसे सुन्दर 10 आई ए एस व् आई .पी एस अधिकारी …………. इसमें उन्होंने 10 महिलाओं के नाम दिए | पढ़ते हुए मानस पटल पर एक विचार आया स्त्री की योग्यता का पैमाना उसकी प्रतिभा है या देह आज तक कभी देश के 10 सुन्दर पुरुष आई ए एस व् आई पी एस के नाम क्यों नहीं जारी किये गए | यह पुरुष वादी सोंच है जहाँ प्रतिभाशाली महिलाओं की योग्यता व् उनके द्वार
उत्तम जैन (विद्रोही )